दुनिया में कृषि उत्पादन का मात्र 10 प्रतिशत का हिस्सेदार भारत भूजल दोहन में पहले नंबर पर विराजमान

भूजल ख़त्म हो जाने के बाद यदि नहरों का पानी आंशिक तौर पर भी उपलब्ध रहेगा तब भी कृषि उत्पादकता में औसतन 7 प्रतिशत की कमी हो जायेगी, और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में यह कमी 24 प्रतिशत तक हो जायेगी....

Update: 2021-03-02 11:41 GMT

photo : social media

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। 1960 के दशक से शुरू किये गए हरित क्रांति ने देश को अन्न संकट से तो उबार दिया, पर इसका गंभीर असर भूमि, जैव-विविधता और पाने के संसाधनों पर पड़ा। नदियों से बड़ी-बड़ी नहरें निकाली गईं, और भूजल का अंधाधुंध दोहन किया गया। हरेक जगह नहरें नहीं जा सकती थीं, इसलिए पूरे देश में बोरवेल का जाल बिछ गया।

बोरवेल गहराई से भूजल का दोहन करते हैं, इसलिए एक्विफेर्स सूखने लगे। दुनिया के कृषि उत्पादन का लगभग 10 प्रतिशत भारत में उत्पन्न होता है, पर दुनिया में भूजल दोहन में हमारा स्थान पहला है। मानसून में तो बारिश से सिंचाई हो जाती है, पर सर्दियों और गर्मी के समय सिंचाई का साधन केवल भूजल ही रहता है।

साइंस एडवांसेज नामक जर्नल के 24 फरवरी के अंक में इस सम्बन्ध में यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन की वैज्ञानिक मेहा जैन का एक शोधपत्र प्रकाशित हुआ है। इसके अनुसार यदि भूजल के संसाधन ख़त्म हो गए, और जिसकी पूरी संभावना भी है, तब सिचाई के आभाव में देश में सर्दियों की फसलों के औसत उत्पादकता में 20 प्रतिशत की कमी हो जायेगी। इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत के क्षेत्र होंगें जहां उत्पादकता 68 प्रतिशत तक कम हो जायेगी। यह कमी तब आयेगी, जब भूजल ख़त्म हो जाएगा और सिचाई के लिए नहरों का पानी भी नहीं उपलब्ध रहेगा।

भूजल ख़त्म हो जाने के बाद यदि नहरों का पानी आंशिक तौर पर भी उपलब्ध रहेगा तब भी कृषि उत्पादकता में औसतन 7 प्रतिशत की कमी हो जायेगी, और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में यह कमी 24 प्रतिशत तक हो जायेगी। मेहा जैन के अनुसार भूजल का पूरा विकल्प नहरें नहीं हो सकतीं हैं। नहरें में पानी नदियों से आता है, जिनमें पानी की मात्रा मौसम पर निर्भर करती है, और पिछले कुछ वर्षों से देश की लगभग हरेक नदी में पानी का बहाव कम होता जा रहा है।

नहरों के साथ पानी के असमान वितरण की समस्या भी है। नहरों के पास के खेतों में जब सिंचाई की जाती है तब पर्याप्त पानी उपलब्ध रहता है, नहरों से खेतों की दूरी जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, किसानों को पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। नहरें हरेक जगह पहुँच भी नहीं सकती हैं, इसीलिए भूजल का उपयोग बढ़ता गया था, जो हरेक जगह उपलब्ध है।

मेहा जैन के अनुसार भूजल का देश की कृषि अर्थव्यवस्था और ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान है। सिंचाई के पानी की कमी से बचने के लिए इस शोधपत्र में कुछ उपाय भी बताये गए हैं – सर्दियों में धान की खेती के बदले कम पानी की जरूरत वाले फसलों को लगाना, सिंचाई के  लिए स्प्रिंकलर और ड्रिप पद्धति का उपयोग और नहरों की दक्षता बढाने वाली नीतियों पर चर्चा। इस अध्ययन के लिए गाँव की जनसख्या को जनगणना से लिया गया था, और फसलों के पैटर्न के लिए हाई-रेसोल्यूशन सेटेलाइट चित्रों का उपयोग किया गया था।

मेहा जैन के अनुसार, अब तक इस सम्बन्ध में जितने भी अध्ययन किये गए हैं, उनमें भूजल में कमी का तो विस्तृत आकलन किया गया है, पर इससे कृषि उत्पादकता पर पड़ने वाले असर को नजरअंदाज किया गया है। इस अध्ययन में कृषि उत्पादकता पर पड़ने वाले असर के सटीक आकलन का प्रयास किया गया है।

देश के लगभग 60 करोड़ किसान देश को गेंहूँ और चावल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बनाते हैं। भारत सरकार के अनुसार भूजल के लगभग ख़त्म होने के बाद सिंचाई नहरों से की जा सकती है, पर यह निश्चित तौर पर अव्यावहारिक विकल्प है।

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