पर्यावरण विनाश में भी भारत बना विश्वगुरु, पर्यावरण रक्षक कहलाते हैं यहां अर्बन नक्सल!
पिछले वर्ष के दौरान दुनिया के कुल 35 देशों में 358 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गयी, और इसमें कुल 23 हत्याओं के साथ हमारा देश चौथे स्थान पर है....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
India is at the bottom of environmental protection, yet environmental defenders have got a new name, URBAN NAXAL. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और इससे निपटने के लिए तैयार की जाने वाली सरकारी नीतियों और तैयारियों से सम्बंधित ग्लोबल एडाप्टेशन इनिशिएटिव इंडेक्स 2022 में दुनिया के 182 देशों में हमारे देश का स्थान 111वां है। इस इंडेक्स के दो वर्ग हैं – जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के सन्दर्भ में हम दुनिया में 51वें स्थान पर हैं, पर इन प्रभावों से निपटने की तैयारियों के सन्दर्भ में हमारा स्थान दुनिया में 104वां है। इस इंडेक्स को अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ नोट्रेडैम द्वारा ग्लोबल एडाप्टेशन इनिशिएटिव के तहत हरेक वर्ष प्रकाशित किया जाता है। इसके लिए जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित 45 पैरामीटरों के आधार पर पिछले 20 वर्षों के दौरान देशों द्वारा किये गए कार्यों और उनपर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन कर देशों को क्रम दिया जाता है। सबसे ऊपर वे देश होते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने की बेहतर तैयारी कर रहे हैं, या फिर इसकी योजना तैयार कर चुके हैं।
इस वर्ष के इंडेक्स में सबसे ऊपर के देश क्रम से – नॉर्वे, फ़िनलैंड, स्विट्ज़रलैंड, स्वीडन और डेनमार्क हैं। दूसरी तरफ इंडेक्स में सबसे नीचे के देशों का क्रम – चाड, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, गिनी बिस्साऊ, इरीट्रिया और डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो – है। इस वर्ष इस इंडेक्स में कुल 182 देशों को शामिल किया गया था, और बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत अकेला देश है जिसका स्थान 100 से भी नीचे है। भारत 111वें स्थान पर है, चीन का स्थान 39वां है और राजनैतिक और आर्थिक तौर पर लम्बे समय से अस्थिर श्रीलंका 104वें स्थान पर है।
हमारे देश में प्रधानमंत्री को मसीहा मानने वाली जनता और मीडिया के लिए खुश होने वाली बात यह है कि इस इंडेक्स में पाकिस्तान का स्थान भारत से नीचे, 146वें स्थान पर और बांग्लादेश 164वें स्थान पर है। इस इंडेक्स में म्यांमार 156वें स्थान पर और अफ़ग़ानिस्तान 175वें स्थान पर है। इस इंडेक्स को वर्ष 1995 से लगातार प्रकाशित किया जा रहा है, और 1995 से 2005 तक भारत का स्थान लगातार 120 से अधिक रहा, पर वर्ष 2006 से वर्ष 2013 तक हमारा देश 80 से 90 के बीच बना रहा। वर्ष 2013 में इस इंडेक्स में भारत का स्थान 81वां था, पर वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता बदलते ही हम 141वें स्थान पर पहुँच गए। इंडेक्स में भारत को 100 में से 44 अंक दिए गए हैं, जबकि पहले स्थान पर स्थापित नॉर्वे को 75.4 अंक और अंतिम स्थान पर स्थापित चाड को 26.6 अंक दिए गए हैं।
इस इंडेक्स में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के प्रयासों में लगभग सभी देश पिछड़ रहे हैं। पहले 10 स्थानों पर जो देश हैं, उनके भी अंकों में कमी आई है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि साल-दर-साल जलवायु परिवर्तन के नए प्रभाव सामने आ रहे हैं, जिनसे निपटने के लिए नई योजनाओं की जरूरत पड़ रही है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के आकलन के लिए आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक – सभी पहलुओं को शामिल किया गया है। इसमें खाद्य सुरक्षा, साफ़ पानी, स्वास्थ्य सेवाओं, आवासीय सुविधा, इंफ्रास्ट्रक्चर और इकोसिस्टम सेवाओं को भी शामिल किया गया है।
जाहिर है, इस इंडेक्स के अनुसार हमारा देश, जो पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के सन्दर्भ में दुनिया के 110 देशों से भी पीछे है। इससे कुछ महीनों पहले ही इस वर्ष के पर्यावरण प्रदर्शन इंडेक्स, यानि एनवायर्नमेंटल परफॉरमेंस इंडेक्स में कुल 180 देशों में भारत का स्थान 180वां है। इस इंडेक्स को वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के लिए येल यूनिवर्सिटी और कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक संयुक्त तौर पर तैयार करते हैं और इसका प्रकाशन वर्ष 2012 से हरेक दो वर्षों के अंतराल पर किया जाता है। वर्ष 2020 के इंडेक्स में भारत 168वें स्थान पर था। प्रधानमंत्री मोदी लगातार हमारे देश को विश्वगुरु बनाते रहे हैं। पहले तो यह कल्पना या फिर जुमलेबाजी नजर आती थी, पर इस बार तो कम से कम पर्यावरण विनाश के सन्दर्भ में उन्होंने भारत को विश्वगुरु बना कर ही अभूतपूर्व कारनामा कर दिया है।
ऊपर के दोनों इंडेक्स में भारत का स्थान कोई आश्चर्य का विषय नहीं है, बल्कि आश्चर्य तो तब होता है जब प्रधानमंत्री जी हरेक मंच से गर्व के साथ बताते हैं कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण की परंपरा 5000 वर्षों की है, हम पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करना सिखा सकते हैं, हमारी जीवन शैली पर्यावरण के बहुत नजदीक है। अब तो प्रधानमंत्री जी इज ऑफ़ लाइफ की बात भी करने लगे हैं। जब पूरे देश की आबादी प्रदूषित हवा में सांस लेती हो, हरेक नदियाँ प्रदूषित हों, हिमालय के संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र को रौदते हुए तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं स्वीकृत की जा रही हों, कोयले के उत्खनन के नाम पर बेशर्मी से जंगलों को काटने की इजाजत दी जा रही हो, आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा हो, उद्योगों द्वारा श्रमिकों के शोषण की खुली छूट हो, किसान खेती के बदले आत्महत्या की तरफ जा रहे हों, बेरोजगारी और महंगाई चरम पर हो – ऐसे में इज ऑफ़ लाइफ के राग अलापने पर आप केवल हंस ही सकते हैं।
हाल में ही 23 सितम्बर को राज्य के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में प्रधानमंत्री ने इज ऑफ़ लाइफ और इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस को एक जैसा ही बताया, जबकि कम से कम हमारे देश में दोनों ही बिलकुल विपरीत विषय हैं। इज ऑफ़ डूइंग बिज़नस के नाम पर हम अपने प्राकृतिक संसाधनों को लुटा रहे हैं, प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं, पर्यावरण का विनाश कर रहे हैं, श्रमिकों का शोषण कर रहे हैं – फिर इससे इज ऑफ़ लाइफ का सम्बन्ध कैसे हो सकता है?
हमारे देश के लोग तो एक अजीब से नशे में डूब गए हैं, पर दुनिया हमारे प्रजातंत्र का हाल देख रही है और समझ भी रही है। अमेरिका के फ्रीडम हाउस ने फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2022 प्रकाशित की है। इसमें कुल 195 देशों में प्रजातंत्र का विश्लेषण किया गया है, इनमें से भारत समेत 56 देशों में आंशिक प्रजातंत्र है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में भी भारत आंशिक लोकतंत्र था। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत को 100 में से कुल 66 अंक मिले हैं, जबकि वर्ष 2021 की रिपोर्ट में 67 अंक थे। रिपोर्ट के अनुसार भारत में राजनैतिक अधिकार तो बहुत हैं पर नागरिक अधिकारों की लगातार अवहेलना की जा रही है। राजनैतिक अधिकारों के तहत कुल 40 अंकों में से भारत को 33 अंक मिले हैं, जबकि नागरिक अधिकारों के तहत कुल 60 अंकों में से महज 33 अंक ही दिए गए हैं।
एक दूसरी रिपोर्ट ग्लोबल एनालिसिस 2021 के अनुसार पिछले वर्ष के दौरान दुनिया के कुल 35 देशों में 358 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गयी, और इसमें कुल 23 हत्याओं के साथ हमारा देश चौथे स्थान पर है। इस रिपोर्ट को दो संस्थाओं – फ्रंटलाइन डिफेंडर्स और ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स मेमोरियल ने संयुक्त रूप से प्रकाशित किया है। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या के सन्दर्भ में पिछले वर्ष की संख्या एक नया रिकॉर्ड थी, वर्ष 2020 में 25 देशों में कुल 331 कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गयी थी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि साल-दर-साल केवल हत्याओं की संख्या ही नहीं बढ़ रही है, बल्कि उन देशों की संख्या भी बढ़ रही है, जहां ऐसी हत्याएं हो रही हैं। जाहिर है, ऐसी हत्यायों में बृद्धि का सबसे बड़ा कारण दुनिया में प्रजातंत्र का सिमटना और पूंजीवाद का प्रभाव बढ़ना है।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या के सन्दर्भ में सबसे खूंखार देश कोलंबिया है जहां पिछले वर्ष 138 कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गयी, इसके बाद मेक्सिको में 42 हत्याएं और फिर ब्राज़ील में 27 हत्याएं की गईं। इसके बाद 23 हत्याओं के साथ भारत का स्थान है। भारत के बाद क्रम से अफ़ग़ानिस्तान, फिलीपींस, होंडुरस, निकारागुआ, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो, म्यांमार और पकिस्तान का स्थान है। इस पूरी सूचि से इतना तो स्पष्ट है कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के सन्दर्भ में सबसे खतरनाक दक्षिण अमेरिका और दक्षिणी एशिया है। इसका सबसे बड़ा कारण है, ये दोनों ही क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों के सन्दर्भ में सबसे समृद्ध हैं, और पूंजीवादी ताकतें हमेशा से इन संसाधनों को लूटती रही हैं।
पिछले वर्ष जिन 358 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गयी, उसमें से लगभग 60 प्रतिशत पर्यावरण, जंगल और आदिवासी समुदाय के संरक्षण का काम करते थे। दुनिया में कुल आबादी में से महज 6 प्रतिशत आदिवासी आबादी है, पर कुल मारे गए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में से इनकी संख्या एक-तिहाई से भी अधिक है। पिछले वर्ष मारे गए सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में से 18 प्रतिशत महिलायें थी, जबकि वर्ष 2020 में इनका अनुपात महज 13 प्रतिशत ही था।
जाहिर है, प्रजातंत्र के हनन के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, आन्दोलनकारियों, और सरकार विरोधियों की ह्त्या में तेजी से बढ़ोत्तरी होती है और इसके लिए जिम्मेदार निरंकुश सरकारें और पूंजीवाद है। हमारे देश में आने वाले समय में पर्यावरण विनाश में निश्चित तौर पर गति आने वाली है। प्रधानमंत्री जी ने पर्यावरण मंत्रियों को संबोधित करते हुए दो अलग बातें कहीं थी, पर आप इन दोनों विषयों को जब एक साथ देखेंगे तब भविष्य में होने वाले पर्यावरण विनाश और मानवाधिकार हनन को एक साथ समझ सकते हैं।
प्रधानमंत्री जी ने कहा कि पर्यावरण स्वीकृति के नाम पर परियोजनाओं को लटकाया नहीं जाना चाहिए और बाद में कहा कि पर्यावरण विनाश का विरोध करने वाले अर्बन नक्सल हैं, विकास विरोधी हैं और इन्हें राजनैतिक समर्थन मिलता है। इन दोनों वक्तव्यों को एक साथ देखने पर स्पष्ट है कि आगे से केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय या राज्य की सम्बंधित संस्थाएं पर्यावरण स्वीकृति के समय पर्यावरण विनाश का आकलन नहीं करेंगीं बल्कि किसी भी तरीके से स्वीकृति देंगीं। पर्यावरण विनाश का जब आकलन ही नहीं होगा तब जाहिर तौर पर विनाश अत्यधिक होगा और इसका विरोध भी। भविष्य में अधिक परियोजनाओं का विरोध होगा, जिससे प्रधानमंत्री जी के शब्दों में अर्बन नक्सल की संख्या बढ़ जायेगी और फिर पुलिस और प्रशासन पर्यावरण विनाश का विरोध करने वालों का दमन किसी भी कीमत पर करने के लिए स्वतंत्र होगा, और सरकार ऐसे हरेक हिंसक दमन के समर्थन में खडी होगी।
प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में कहा था कि अर्बन नक्सल न्यायालयों को भी प्रभावित कर देते हैं – जाहिर है, न्यायालायें भी सतर्क हो जायेंगी और हरेक पर्यावरण विनाश का विरोध करने वाले को शातिर अपराधी जैसा फैसला सुनायेंगी। जाहिर है, हम कम से कम पर्यावरण विनाश में तो विश्वगुरु हैं ही, आखिर हमारे प्रधानमंत्री जी ने इसके लिए बहुत मेहनत की है।