पर्यावरण संरक्षण बना मनुष्य के अस्तित्व का प्रश्न, मगर बड़ी आबादी के इससे अंजान होने का फायदा मिल रहा सत्ता और पूंजीपतियों को
पर्यावरण संरक्षण में जन-भागीदारी बढाने के लिए शिक्षा और पर्याप्त सूचना के साथ ही पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के नाम पर सरकार द्वारा वसूली गयी राशि के खर्च का पर्याप्त ब्यौरा भी आवश्यक है। यदि सरकारें इतना काम करती हैं तब जनता की भागीदारी बढ़ जाती है और इसका किसी भी राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध नहीं होता....
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Education and awareness is essential for making environmental protection a political agenda. पिछले कुछ वर्षों से पर्यावरण सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन रोकने को लेकर खूब चर्चाएँ की जाती हैं, वैश्विक मीडिया भी इन मुद्दों को जोर शोर से उठा रहा है, इससे सम्बंधित सरकारी नीतियाँ भी बन रही हैं और अब कम्पनियां और उद्योग भी इससे सम्बंधित अपनी नीतियाँ और कार्ययोजनायें बनाने लगे हैं। पश्चिमी देशों में युवाओं द्वारा इनके विरुद्ध आन्दोलन भी लगातार किये जा रहे हैं, पर पूरे विश्व की सामान्य जनता इन चर्चाओं से अलग है। सामान्य जनता द्वारा इन मुद्दों पर उदासीनता के कारण दुनियाभर में अधिकतर सरकारी योजनायें अपेक्षित परिणाम नहीं दे रही हैं तो दूसरी तरफ चुनावों में सामान्य जनता के लिए पर्यावरण संरक्षण कोई मुद्दा ही नहीं बनता।
फ्लीटस्ट्रीट नामक संस्था ने हाल में ही ब्रिटेन में एक सर्वेक्षण किया था (सन्दर्भ-1), जिसमें सामान्य लोगों से सरकारी नीतियों और उद्योग जगत में पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन रोकने से सम्बंधित सामान्य शब्दों, जैसे हरित (ग्रीन), सतत विकास (सस्टेनेबल डेवलपमेंट), नेट-जीरो, पर्यावरण अनुकूल, स्थानीय उपज (लोकली ग्रोन), एकल उपयोग प्लास्टिक (सिंगल यूज़ प्लास्टिक), सर्कुलर इकोनॉमी, कार्बन ऑफसेटिंग जैसे शब्दों या वाक्यांशों का मतलब पूछा गया था। इस सर्वेक्षण में ब्रिटेन के तीन-चौथाई निवासी इन शब्दों का मतलब समझाने में नाकाम रहे।
फ्लीटस्ट्रीट के सह-संस्थापक ने कहा है कि सर्वेक्षण से स्पष्ट है कि ब्रिटेन के केवल एक-चौथाई लोग ही इन शब्दों को समझ पाते हैं, इसीलिए सरकार की नीतियाँ असफल रहती हैं, पर्यावरण संरक्षण को प्रभावी बनाने के लिए जनता को जागरूक करना आवश्यक है। सर्कुलर इकॉनोमी को केवल 4 प्रतिशत आबादी समझ पाती है, जबकि कार्बन ऑफसेटिंग को महज 11 प्रतिशत आबादी समझती है। इस सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित शब्दों की सबसे अच्छी समझ 18 से 24 वर्ष के आयु वर्ग के युवाओं में है, शायद इसीलिए इनके विरुद्ध आन्दोलन में युवा ही अग्रणी भूमिका में रहते हैं।
भले ही यह अध्ययन केवल ब्रिटेन तक सीमित हो, पर पूरे दुनिया की ऐसी ही स्थिति है। हमारे देश में तो वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण के परिणाम लगातार भुगतने के बाद भी आम जनता इसे नहीं समझती। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के देशों में युवाओं ने अपने आन्दोलन से और मीडिया ने जनता को इतना स्पष्ट कर दिया है कि यह एक बड़ी समस्या है इस समस्या से निपटने में सरकारें नाकाम रही हैं – इसलिए यह एक राजनीतिक और चुनावी मुद्दा बन गया है, पर अफ्रीकी और एशियाई देशों में जनता को यह कोई चुनावी मुद्दा नहीं लगता, इसीलिए इन देशों में राजनीति भी इन समस्याओं को दूर करने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं बनाती।
इथियोपिया, केन्या, तंजानिया, रवांडा, यूगांडा जैसे पूर्वी अफ्रीका के देशों में किये गए एक अध्ययन (सन्दर्भ 2) का निष्कर्ष है कि सामान्य आबादी तक पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की नीतियों को पहुंचाने के लिए शिक्षा और पर्याप्त सूचना आवश्यक है। इस अध्ययन को क्लाइमेट पालिसी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
इस अध्ययन के अनुसार पर्यावरण संरक्षण में जन-भागीदारी बढाने के लिए शिक्षा और पर्याप्त सूचना के साथ ही पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन के नाम पर सरकार द्वारा वसूली गयी राशि के खर्च का पर्याप्त ब्यौरा भी आवश्यक है। यदि सरकारें इतना काम करती हैं तब जनता की भागीदारी बढ़ जाती है और इसका किसी भी राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध नहीं होता। इस अध्ययन के अनुसार पर्यावरण संरक्षण के नाम पर कराये गए सरकारी जन-आयोजनों की अपेक्षा सामाजिक जन-आयोजनों से जनता में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ती है।
पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में जन-जागरूकता का महत्व वर्ष 2024 में पहले से अधिक है। इस वर्ष भारत, अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका समेत दुनिया के 40 से अधिक देशों में चुनाव होने वाले हैं और दुनिया की आधी से अधिक आबादी इन चुनावों में अपने मताधिकार का उपयोग करने वाली है (सन्दर्भ 3)। वैश्विक स्तर पर प्रजातंत्र के लिए यह ऐतिहासिक वर्ष है, इससे पहले चुनावों का ऐसा व्यापक पैमाना कभी नहीं रहा है, जाहिर है इन चुनावों के नतीजे आने वाले वर्षों में पर्यावरण संरक्षण की दिशा तय करेंगे। दुनिया में वर्ष 2030 के अंत तक तापमान बृद्धि रोकने के लिए अनेक संकल्प लिए हैं, नवीनीकृत ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने का और वनों को उजाड़ने की प्रक्रिया को ख़त्म करने का संकल्प लिया है।
अमेरिका में वर्तमान राष्ट्रपति जो बाईडेन ने पर्यावरण संरक्षण के लिए बड़ी-बड़ी योजनायें शुरू की हैं, पर अगले चुनाव में यदि डोनाल्ड ट्रम्प चुनाव जीतकर वापस आते हैं और जिसकी पूरी संभावना भी है, तब जाहिर है अमेरिका में पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन रोकने लिए सभी योजनायें बंद कर दी जायेंगी और इस उद्देश्य से दी जाने वाली गरीब देशों को आर्थिक और तकनीकी सहायता भी रुक जायेगी। यूरोपियन यूनियन के चुनावों में पर्यावरण संरक्षण की बृहत् योजना, ग्रीनडील एक बड़ा मुद्दा है।
इसका विरोध चरमपंथी दक्षिणपंथी कर रहे हैं और अनुमान है कि इन चुनावों में ऐसी विचारधारा वाले सदस्यों की संख्या बढ़ेगी। ब्रिटेन में सत्तासीन कंजर्वेटिव पार्टी पर्यावरण संरक्षण की नीतियाँ पर्यावरण को और तबाह कर रही हैं। लेबर पार्टी के दौर में पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में ब्रिटेन अग्रणी था, पर अब यह इस क्षेत्र में बहुत पीछे पहुँच गया है। कोयले पर अत्यधिक निर्भरता वाले देशों – भारत, इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्रीका -में भी चुनाव होने वाले हैं। भारत में बीजेपी राज में कोयले पर निर्भरता बढ़ती जा रही है और यदि फिर से बीजेपी की सरकार बनी तब कोयले का उपयोग आने वाले वर्षों में बढ़ता ही जाएगा। वेनेज़ुएला, रूस और मेक्सिको जैसे देशों में जहां पेट्रोलियम उद्योग अर्थव्यवस्था में प्रमुख है, में भी चुनाव होने वाले हैं।
वर्ष 2024 में यूरोपियन पार्लियामेंट समेत यूरोप में 20 चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों में पर्यावरण के सन्दर्भ में जनता की जागरूकता का आकलन करने के उद्देश्य से यूरोपियन कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस ने 11 देशों में सामान्य जनता के बीच एक सर्वेक्षण किया (सन्दर्भ 4)। इन 11 देशों में यूरोपियन यूनियन के 9 सदस्यों के साथ ब्रिटेन और स्विट्ज़रलैंड को भी शामिल किया गया था। इस सर्वेक्षण में औसतन 19 प्रतिशत प्रतिभागियों ने पर्यावरण संरक्षण को सबसे बड़ा मुद्दा बताया। डेनमार्क में यह औसत 29 प्रतिशत था, फ्रांस में 27 प्रतिशत और एस्तोनिया में महज 6 प्रतिशत रहा। पुरुषों में 20 प्रतिशत और महिलाओं में 18 प्रतिशत प्रतिभागियों ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बताया। इस सर्वेक्षण में पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में सबसे जागरूक 18 से 29 वर्ष तक के युवा रहे।
पर्यावरण संरक्षण भले ही पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व का प्रश्न बन गया हो, पर दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इससे अनभिज्ञ है। यूरोप और अमेरिका में अब जनता इसे समस्या मानने लगी है, पर एशिया और अफ्रीका की आबादी इस समस्या से अनजान है और इसका फायदा सत्ता और पूंजीपतियों को मिल रहा है।
सन्दर्भ:
1. euronews.com/green/2024/01/25/
2. Niklas Harring et al, Public acceptability of policy instruments for reducing fossil fuel consumption in East Africa, Climate Policy (2024)-DOI:10.1080/14693062.2024.2302319
3. nytimes.com/2024/01/16/climate/
4. euronews.com/green/2024/01/19/