भीमबेटका गुफाओं में उभरीं जिन आकृतियों से वैज्ञानिकों ने किया पुरातन जीव के जीवाश्म मिलने का दावा, उसका सच जानकर रह जायेंगे दंग

अध्ययन के प्रकाशित होने के बाद से भारत में जीवन के विकास और देश की भू-संरचना पर एक नई बहस छिड़ गयी, क्योंकि इतने पुराने जीव का जीवाश्म देश में पहली बार मिला था, यह भी बताया जाने लगा कि विकास के दौर में रूस, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया और भारत एक ही भू-संरचना का हिस्सा थे..

Update: 2023-03-13 11:51 GMT

भीमबेटका गुफाओं में उभरीं जिन आकृतियों से वैज्ञानिकों ने किया पुरातन जीव के जीवाश्म मिलने का दावा उसका सच जानकर रह जायेंगे दंग

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

It was a degenerated beehive and not a fossil of 550 million years old animal at Bhimbetka caves in Madhya Pradesh. जनवरी 2023 में गोंडवाना रिसर्च नामक जर्नल में यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ्लोरिडा के भू-वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार मध्य प्रदेश में स्थित यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल भीमबेटका गुफाओं में वर्ष 2020 से जिस पुरातन जीव के जीवाश्म के मिलने का दावा किया जा रहा था, वह दरअसल मधुमक्खियों का एक खाली और बहुत पुराना छत्ता है। अपर विंध्य पठार श्रृंखला पर स्थित भीमबेटका गुफाएं पत्थरों पर चित्रकारी के लिए विश्व-प्रसिद्ध हैं और वैज्ञानिक आकलन के अनुसार इन रेखा-चित्रों को पत्थरों पर लगभग 10,000 वर्ष पहले उकेरा गया होगा। भीमबेटका गुफाओं को सबसे पहले लगभग 70 वर्ष पहले, भूवैज्ञानिक वी एस वाकणकर ने खोजा था।

वर्ष 2020 में कोविड के कारण जब भारतीय भू-विज्ञान कांग्रेस का अधिवेशन स्थगित कर दिया गया था, तब उसमें भाग लेने पहुंचे जियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया के कुछ भूवैज्ञानिक कुछ अन्य विदेशी भूवैज्ञानिकों के साथ भीमबेटका की गुफाओं में घूमने चले गए। इसी दौरान इस दल को पेविलियन गुफा की छत पर पत्ती जैसी आकृति नजर आई। पहले तो इसे वैज्ञानिकों ने गुफा के अन्दर उकेरे गए प्राग-ऐतिहासिक रेखा चित्र समझा, पर इसके अनेक चित्र खींचने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि यह रेखाचित्र नहीं है, बल्कि पत्थरों पर कुछ उभरी आकृति है।

इसके बाद वैज्ञानिकों के इस दल ने अलग-अलग कोणों से इसके तमाम चित्र लिए और गहन विमर्श किया कि यह रेखाचित्र नहीं, बल्कि कोई जीवाश्म है। वैज्ञानिकों के इस दल में ऑस्ट्रेलिया के जीवाश्म विशेषज्ञ ग्रेगोरी रेटाल्लैक और अमेरिका के भूवैज्ञानिक नेफ्रा मैथ्यूज के साथ ही भारत के भूवैज्ञानिक शरद मास्टर, रंजित खंगार और मेराजुद्दीन खान भी थे। इन लोगों ने विचार विमर्श कर यह निश्चित किया कि इसपर आगे अध्ययन कर एक शोधपत्र सम्मिलित तौर पर प्रकाशित करेंगे। आगे अध्ययन और शोधपत्र लिखने का काम ग्रेगोरी रेटाल्लैक को सौपा गया।

ग्रेगोरी रेटाल्लैक ने चित्रों की 3-डी मॉडलिंग कर और दूसरे अध्ययनों के बाद एक शोधपत्र लिखा, जिसमें मुख्या लेखक के तौर पर उनका नाम था और शेष नाम उनके बाद थे। इसे गोंडवाना रिसर्च नामक जर्नल में वर्ष 2021 के शुरू में प्रकाशित किया गया, और इसे दुनिया के सबसे पुराने बहुकोशीय जंतु, डीकिन्सोनिया, का जीवाश्म बताया गया। इससे पहले इसके जीवाश्म दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया, यूक्रेन और रूस में मिल चुके थे, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ये जंतु पृथ्वी पर लगभग 55 करोड़ वर्ष पहले रहे होंगें और इनसे ही पृथ्वी पर जटिल संरचना वाले जीवों का विकास हुआ होगा।

इससे पहले दक्षिणी ऑस्ट्रेलिया और रूस में मिलाने वाले जीवाश्म लगभग 4 फीट लम्बाई के थे, पर भीमबेटका में मिलने वाले तथाकथित जीवाश्म की लम्बाई 17 इंच ही थी। इस अध्ययन के प्रकाशित होते ही देश के कई समाचारपत्रों के साथ ही न्यूयॉर्क टाइम्स, वेदर चैनेल और वैज्ञानिक जर्नल नेचर ने इसे समाचार के तौर पर प्रमुखता से प्रकाशित किया। इस अध्ययन के प्रकाशित होने के बाद से भारत में जीवन के विकास और देश की भू-संरचना पर एक नई बहस छिड़ गयी, क्योंकि इतने पुराने जीव का जीवाश्म देश में पहली बार मिला था। यह भी बताया जाने लगा कि विकास के दौर में रूस, दक्षिण ऑस्ट्रेलिया और भारत एक ही भू-संरचना का हिस्सा थे।

इस अध्ययन के प्रकाशित होने के बाद यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ्लोरिडा के भू-वैज्ञानिकों के एक दल ने जोसफ जी मीर्ट की अगुवाई में इस दावे को परखने की योजना बनाई। इस दल में सैमुएल क्वाफो के साथ ही भारत से दो भूवैज्ञानिक, मनोज के पंडित और अनन्या सिंह भी शामिल थे। इन लोगों ने जब तथाकथित जीवाश्म का मुयायना किया तब तक इसके कुछ हिस्से छत से लटक चुके थे, जाहिर है किसी जीवाश्म में ऐसा अंतर नहीं आता है।

इसके बाद गहन अध्ययन के बाद पता चला कि तथाकथित जीवाश्म महज मधुमक्खियों का एक पुराना छत्ता था। इस अध्ययन के प्रकाशित होने के बाद इसे जीवाश्म बताने वाले ऑस्ट्रेलिया के जीवाश्म विशेषज्ञ ग्रेगोरी रेटाल्लैक ने नए दावों को स्वीकार कर कहा है कि वैज्ञानिक अनुसंधानों में ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं और विज्ञान में गलतियों को स्वीकार किया जाना चाहिए। 

Tags:    

Similar News