Murders of Environmental Defenders : जानलेवा है पर्यावरण संरक्षण, भारत सबसे खतरनाक देशों में शामिल

अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं, स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाईट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है, या फिर देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है...

Update: 2021-10-06 12:03 GMT

पर्यावरण संरक्षकों के लिए भारत बन चुका है सबसे खतरनाक देश (file photo)

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Murders of Environmental Defenders, जनज्वार ब्यूरो। स्वच्छ पर्यावरण का मौलिक अधिकार हमें संविधान देता है और संयुक्त राष्ट्र (United Nations) भी लगातार इसकी वकालत करता रहा है। हमारे प्रधानमंत्री पर्यावरण सुरक्षा को 5000 साल पुरानी परंपरा बताते नहीं थकते। इन सबके बीच हकीकत यह है कि इसी देश के नए संस्करण, न्यू इंडिया में अवैध खनन, जंगलों के कटने, बांधों के विरुद्ध आवाज उठाने वाले, पर्यावरण प्रदूषण का विरोध करने वाले, साफ़ पानी और साफ़ हवा की मांग करने वालों पर पुलिस, उद्योगों के पालतू गुंडे, भूमाफिया और सरकारी संरक्षण प्राप्त हत्यारे गोली चलाते हैं, कभी ट्रैक्टर चढाते हैं या फिर सड़क दुर्घटना करवाते हैं।

इस न्यू इंडिया में यह सब इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है कि दुनियाभर में 22 देशों की उस सूची में जिसमें पर्यावरण संरक्षण करते लोगों की हत्या की गई, उसमें भारत भी केवल शामिल ही नहीं है, बल्कि दुनिया में सबसे खतरनाक 10वां देश और एशिया में फिलीपींस के बाद दूसरा सबसे खतरनाक देश है।

वर्ष 2012 से ब्रिटेन के एक गैर-सरकारी संगठन, ग्लोबल विटनेस (Global Witness), नामक संस्था ने हरेक वर्ष पर्यावरण के विनाश के विरुद्ध आवाज उठाने वालों की हत्या (murders of environmental defenders) के सभी प्रकाशित आंकड़ों को एकत्रित कर एक वार्षिक रिपोर्ट को तैयार करने का कार्य शुरू किया था।

वर्ष 2021 की हाल में ही प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में हरेक सप्ताह चार से अधिक पर्यावरण संरक्षकों की ह्त्या कर दी जाती है। वर्ष 2020 के दौरान दुनिया में कुल 227 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या कर दी गयी। मारे गए लोगों की संख्या किसी भी वर्ष की तुलना में सर्वाधिक है। सबसे अधिक ऐसी हत्याएं, कोलंबिया (Colombia) में 65, मेक्सिको (Mexico) में 30, फिलीपींस (Philippines) में 29, ब्राज़ील (Brazil) में 20, होंडुरास (Honduras) में 17, कांगो (DPR Congo) में 15, ग्वाटेमाला (Guatemala) में 15, निकारागुआ (Nicaragua) में 12, पेरू (Peru) में 6 और भारत (India) में 4 हत्याएं की गयीं। कोलंबिया लगातार दूसरे वर्ष पहले स्थान पर रहा है।

भले ही भारत का स्थान 22 देशों की इस सूची में 4 हत्याओं के कारण 10वां हो, पर हमारे देश और पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों (Environment and Natural Resources) पर अपनी पैनी नजर रखने वाले इन आंकड़ों पर कभी भरोसा नहीं करेंगे। पर्यावरण संरक्षण का काम भारत से अधिक खतरनाक शायद ही किसी देश में हो। यहाँ के रेत और बालू माफिया हरेक साल सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं, जिसमें पुलिस वाले और सरकारी अधिकारी भी मारे जाते हैं। पर, इसमें से अधिकतर मामलों को दबा दिया जाता है, और अगर कोई मामला उजागर भी होता है तो उसे पर्यावरण संरक्षण का नहीं बल्कि आपसी रंजिश या सड़क हादसे का मामला बना दिया जाता है।

इसी तरह, अधिकतर खनन कार्य जनजातियों या आदिवासी क्षेत्रों में किये जाते हैं। स्थानीय समुदाय जब इसका विरोध करता है, तब उसे माओवादी, नक्सलाईट या फिर उग्रवादी का नाम देकर एनकाउंटर में मार गिराया जाता है, या फिर देशद्रोही बताकर जेल में डाल दिया जाता है।

आदिवासी और पिछड़े समुदाय (Indigenous and tribal people) के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाले पर्यावरण और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं (Human rights activists) को भी आतंकवादी और देशद्रोही बताकर जेल में ही मरने को छोड़ दिया जाता है। फादर स्टेन स्वामी का उदाहरण सबके सामने है। दरअसल जिस भीमा-कोरेगांव काण्ड (Bhima Koregaon Case) का नाम लेकर दर्जन भर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सरकार ने साजिश के तहत आतंकवाद का नाम देकर जेल में बंद किया है, वे सभी आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार की आवाज ही बुलंद कर रहे थे। बड़े उद्योगों से प्रदूषण के मामले को भी उजागर करने वाले भी किसी न किसी बहाने मार डाले जाते हैं। इन सभी हत्याओं में सरकार और पुलिस की सहमति भी रहती है।

ग्लोबल विटनेस की रिपोर्ट के अनुसार कुल 227 हत्याओं का आंकड़ा दरअसल वास्तविक आंकड़ा नहीं है, हत्याएं इससे बहुत अधिक होतीं हैं, पर आंकड़े उपलब्ध नहीं कराये जाते। यदि हत्या न भी हो, तब भी ऐसे लोगो को बिना किसी जुर्म के जेल में डाल देना या फिर देशद्रोही करार देना सामान्य है। भारत समेत अनेक देशों में ऐसे लोगों को आतंकवादी और देशद्रोही तक करार देने में सरकारें पीछे नहीं रहतीं।

ऐसी हत्याओं में से एक-तिहाई से अधिक प्राकृतिक संसाधनों की लूट - जंगलों की अवैध कटाई, इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का विरोध, खनन, बाँध, हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट और कृषि आधारित उद्योगों (illegal logging, infrastructure projects, mining, dams, hydroelectric projects and Agro-industries)- के विरोध करने पर की जातीं हैं और इन हत्याओं में से 80 प्रतिशत से अधिक लैटिन अमेरिका और एशिया, विशेष तौर पर फिलीपींस में की गईं।

दुनिया में पर्यावरण संरक्षण करने वालों की जितनी हत्याएं होतीं हैं उसमें से आधे से अधिक केवल तीन देशों – कोलंबिया, मेक्सिको और फिलीपींस – में की जाती हैं, जबकि कुल हत्याओं में से दो-तिहाई से अधिक दक्षिण अमेरिकी (Latin America) देशों में की जातीं हैं। पिछले वर्ष अकेले कोलंबिया में 65 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की गई, जो वर्ष 2012 से रिकॉर्ड रखने के समय से किसी भी देश के सन्दर्भ में सर्वाधिक आंकड़ा है।

पर्यावरण संरक्षण के लिए अपनी जान गंवाने वालों में सबसे अधिक वनवासी और जनजातियों के लोग रहते हैं। पिछले वर्ष कुल हत्याओं में से 40 प्रतिशत से अधिक ऐसे लोगों की ह्त्या की गई। ब्राज़ील में तो अब कई जनजातियाँ विलुप्तीकरण के कगार पर हैं। सबसे कम प्रभावित महाद्वीप यूरोप और उत्तरी अमेरिका है। दुनियाभर में कुल 20 ऐसी हत्याएं थीं जिसमें जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा करने वाले सरकारी कर्मचारी मारे गए।

रिपोर्ट के अनुसार, जब जलवायु परिवर्तन (Climate Change) विकराल स्वरुप ले रहा है और पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, तब पर्यावरण संरक्षण अधिक महत्वपूर्ण होता है, पर सरकारें और पूंजीपति उनके महत्त्व को लगातार अनदेखा कर रहे हैं। बड़ी संख्या में जनजातियों के लोग मारे जा रहे हैं या फिर जेलों में डाले जा रहे हैं, धमकाए जा रहे हैं, पर संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार जनजातियाँ हमेशा से ही जंगलों को संरक्षित करती रहीं हैं।

दुनियाभर में जनजातियाँ जितने जंगल बचा रही हैं, उसमें प्रतिवर्ष पूरी दुनिया से कार्बन का जितना उत्सर्जन (Carbon emission) होता है, उसका 33 गुना से अधिक इन जंगलों में अवशोषित है। यानि जनजातियाँ जलवायु परिवर्तन रोकने में और तापमान बृद्धि कम करने में सबसे प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं। इसके बाद भी दिसम्बर 2015 के जलवायु परिवर्तन रोकने के पेरिस समझौते (Paris Accord on Climate Change) की बाद से हरेक सप्ताह औसतन 4 पर्यावरण संरक्षकों की हत्या की जा रही है।

वर्ष 2020 में जितने लोगों की हत्या पर्यावरण संरक्षण के नाम पर की गई, उसमें 15 प्रतिशत से अधिक महिलायें हैं। महिलायें हमेशा से ही प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करती रहीं हैं। बड़ी संख्या में महिलाओं की हत्या तो होती ही है, उन्हें बलात्कार और हिंसक झड़पों का सामना भी करना पड़ता है। अनेक महिला पर्यावरण संरक्षकों का चरित्र हनन कर उन्हें चुप कराने की साजिश की जाती है। ग्लोबल विटनेस के अनुसार वैश्विक स्तर पर भ्रष्टाचार, हत्यारे पूंजीवाद का प्रसार और प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट ने मानवाधिकारों का लगातार हनन किया है और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा करने वालों को अपना दुश्मन समझा है। यही कारण है कि सरकारें और पूंजीपति ही ऐसी हत्याओं को बढ़ावा देते हैं।

दुखद तथ्य यह है कि महामारी के इस दौर में भी यह सिलसिला थमा नहीं है, जबकि तमाम अध्ययन इस महामारी की जड़ में प्राकृतिक विनाश को ही रखते हैं। प्रदूषण और पर्यावरण के विनाश से दुनियाभर में लोग मर रहे हैं, पर पर्यावरण संरक्षण भी कम जानलेवा नहीं है। 

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