अक्षय उर्जा के नाम पर और पूंजीपतियों के फायदे के लिए आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़ने का दौर शुरू

आदिवासियों के इलाकों में किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले उनसे पूर्वानुमति लेने और उनके मना करने पर परियोजना को शुरू नहीं करने की बात संयुक्त राष्ट्र भी करता है, पर इसे शायद ही कोई सरकार या सरकार से वरदान प्राप्त कॉर्पोरेट घराना करता है...

Update: 2022-12-06 06:18 GMT

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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Renewable energy is an organized loot for land and resources of indigenous people. नेचर सस्टेनेबिलिटी नामक जर्नल में प्रकाशित एक विस्तृत अध्ययन के अनुसार दुनिया में नवीनीकृत उर्जा के प्रसार के लिए जितने भी खनिज और धातुओं का खनन किया जा रहा है, उसमें से 54 प्रतिशत से अधिक आदिवासी क्षेत्रों में स्थित है, और एक-तिहाई से अधिक क्षेत्र पर आदिवासी आबादी को जैव-संरक्षण का जिम्मा सौंपा गया है। आदिवासी कहीं के भी हों, अपने क्षेत्र के मूल निवासी होते हैं और जैव संरक्षण में उनका सबसे अधिक योगदान है, पर अक्षय ऊर्जा के तेजी से बढ़ाते विश्वव्यापी प्रसार ने बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया है।

हरेक आदिवासी समुदाय की अपनी विशिष्ट भाषा, कला और संस्कृति होती है, और अब अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा देते-देते हम उनकी संस्कृति और ज्ञान को नष्ट करते जा रहे हैं। अक्षय ऊर्जा के नाम पर जिन विंड टरबाइन, सोलर पैनल और बिजली के वाहनों के लिए बैटरी का उपयोग बढ़ता जा रहा है, उनमें बहुत से दुर्लभ धातुओं और खनिजों का उपयोग किया जाता है – अब जब इनका उपयोग बढ़ रहा है तब जाहिर है कि खनन का दायरा बढ़ रहा है और आदिवासी अपनी जमीन से उजाड़े जा रहे हैं।

पूरी दुनिया चरम पूंजीवाद की चपेट में है और पूंजीवाद की एक खासियत होती है कि जब भी कोई समस्या खडी होती है तब पूंजीवाद उस समस्या के नाम पर आनन्-फानन में एक उत्पाद-आधारित समाधान प्रस्तुत करता है। इस उत्पाद-आधारित समाधान के समर्थन में बड़े-बड़े लेख प्रकाशित होते हैं, अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किया जाते हैं और फिर धीरे-धीरे इसे पूरी दुनिया मान्यता देती है। पर जरा सोचिये, यदि समस्या जड़ से ख़त्म हो जायेगी तो फिर पूंजीपतियों का मुनाफ़ा कैसे बढेगा? जाहिर है, ऐसे समाधानों के बाद पूंजीपतियों की जेबें तो भरती जाती हैं पर समस्या वहीं खडी रहती है, गरीबी और बढ़ जाती है और आदिवासियों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट भी बढ़ जाती है। यही पूंजीवाद का आपदा में अवसर है।

पूंजीवादी व्यवस्था ने विकास का सब्जबाग दिखाकर दुनिया को जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के हवाले कर दिया। अब जब यह समस्या विकराल होती जा रही है, तब पूंजीवादी व्यवस्था ने इसका हल अक्षय ऊर्जा के तौर पर खोजा है और पूरी दुनिया में इसे आगे बढाने का काम किया जा रहा है। सरकारें इसे जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को नियंत्रित करने के एकमात्र विकल्प के तौर पर प्रचारित कर रही हैं और दुनिया के सभी अमीरी के शिखर पर बैठे व्यक्ति अक्षय ऊर्जा में हाथ आजमा रहे हैं। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि को बढाने वाली परम्परागत ऊर्जा और इसके लिए ईंधनों – कोयला और पेट्रोलियम पदार्थों - के खनन का क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, पूंजीवादी व्यवस्था समस्या का हल नहीं चाहती बल्कि इस समस्या को विकराल कर अक्षय उर्जा के नाम पर नए उत्पाद का बाजार बढ़ाना चाह रही है।

वैज्ञानिकों ने तापमान वृद्धि को रोकने या नियंत्रित करने के लये जो दूसरे समाधान सुझाए हैं, उन पर किसी का ध्यान नहीं है। दूसरे समाधानों में सबसे पहले उपभोक्तावाद को रोकना है, पर इस दिशा में हम विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं और उपभोक्ता संस्कृति को लगातार बढ़ाते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने पुराने वनों को संरक्षित कर नए वनों को स्थापित करने की बात कही, पर पूरी दुनिया में जंगलों के कटने की दर लगातार बढ़ती जा रही है। केवल अक्षय ऊर्जा को तापमान वृद्धि के समाधान के तौर पर देखा जा रहा है, पर दूसरी तरफ दुनिया में कहीं भी ऊर्जा संरक्षण की बात नहीं की जा रही है।

इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ क्वींसलैंड के वैज्ञानिकों जॉन ओवेन और देंना केम्प ने किया है, और इसके लिए दुनिया के लगभग 5097 खनन क्षेत्रों का विस्तृत अध्ययन किया है। इन खनन क्षेत्रों में से अधिकतर क्षेत्र पर्यावरण और संस्कृति की दृष्टि से संवेदनशील हैं, घने पुराने जंगलों के बीच स्थित हैं, कार्बन के विशाल भण्डार को समेटे हुए हैं और आदिवासियों का जीवन और पहचान हैं।

इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी के आकलन के अनुसार वर्ष 2040 तक बिजली के वाहनों की बढ़ती मांग के कारण लिथियम की मांग में 40 गुना बृद्धि हो जायेगी, और इस समय लिथियम के 85 प्रतिशत से अधिक खनन क्षेत्र आदिवासी इलाकों में हैं। अक्षय ऊर्जा के व्यापक प्रसार के कारण वर्ष 2040 तक निकेल और मैंगनीज की मांग में 20 से 25 गुना वृद्धि का अनुमान है। निकेल के 57 प्रतिशत खनन क्षेत्र और मैंगनीज के 75 प्रतिशत क्षत्र आदिवासी इलाकों में हैं। ऊर्जा उत्पादन, वितरण और भंडारण के लिए लोहा और ताम्बा का व्यापक उपयोग किया जाता है। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक ताम्बा की मांग में 250 गण वृद्धि होगी और इसके 66 प्रतिशत से अधिक भण्डार आदिवासी क्षेत्रों में स्थित हैं। लोहे के कुल भण्डार में से 44 प्रतिशत से अधिक आदिवासी क्षेत्रों में हैं।

इस वर्ष भी जलवायु परिवर्तन नियंत्रण से सम्बंधित संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज में आदिवासियों का प्रतिनिधि मंडल शामिल हुआ था, पर पिछले वर्ष की कांफ्रेंस में इनलोगों ने एक घोषणा पत्र जारी कर वैश्विक नेताओं से कहा था कि खनन के दौरान पर्यावरण और उनकी आबादी का विशेष तौर पर ध्यान रखा जाए और खनन से पहले सरकारों या उद्योगों को स्थानीय आदिवासियों से अनुमति लेनी होगी।

आदिवासियों के इलाकों में किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले उनसे पूर्वानुमति लेने और उनके मना करने पर परियोजना को शुरू नहीं करने की बात संयुक्त राष्ट्र भी करता है, पर इसे शायद ही कोई सरकार या सरकार से वरदान प्राप्त कॉर्पोरेट घराना करता है। इस दौर में तो जलवायु परिवर्तन का हौव्वा दिखाकर आदिवासियों की जमीन और संसाधन लूटे जा रहे हैं।

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