जिस सोलर पार्क सेक्टर में गौतम अडानी कर रहे हैं बड़ा निवेश, वह बिगाड़ सकता है देश की सामाजिक और पर्यावरणीय व्यवस्था

Solar park : सोलर पार्क स्थापित करने के बाद स्थानीय स्तर पर तापमान भी बढ़ता है, जिससे स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। सोलर पैनल की आयु 25 से 30 वर्ष की होती है, और उपयोग के बाद इसका कोई उपयोग नहीं होता और इसका पुनःचक्रण भी नहीं किया जा सकता...

Update: 2022-10-25 16:03 GMT

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Solar Parks may damage environmental and social fabric of the area : हमारे देश में बड़े विशालकाय सोलर पार्क का प्रचलन तेजी से बढ़ा है – दरअसल जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हमारी सरकार को बस एक यही तरीका नजर आ रहा है। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं इसमें दिलचस्पी दिखाते हैं और अब गौतम अडानी के इस बाजार में तेजी से कदम बढ़ रहे हैं। जाहिर है, बड़े सोलर पार्क देश में बड़े पैमाने पर स्थापित किये जाने वाले हैं।

सोलर पार्क को कुछ इस तरह से सरकार प्रस्तुत करती है, मानो इनका कोई बुरा प्रभाव समाज और पर्यावरण पर पड़ता ही ना हो। सोलर पार्क को पर्यावरण स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है, जाहिर है इससे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का कोई अध्ययन नहीं किया जाता। दूसरी तरफ अधिकतर विकसित देशों में परियोजनाओं से होने वाले सामाजिक प्रभाव का मूल्यांकन किया जाता है, पर हमारे देश में सामाजिक प्रभावों को नगण्य कर दिया जाता है और इसका मूल्यांकन नहीं किया जाता।

हाल में ही अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि सोलर पार्क को स्थापित करने और चलाने के समय यदि पर्यावरण और समाज को नजरअंदाज किया जाता है तब बहुत सारी समस्याएं खडी हो सकती हैं। कर्नाटक के तुमकुर जिले में स्थित पवागादा सोलर पार्क दुनिया के सबसे बड़े सोलर पार्क में एक है, जिसकी क्षमता 2 मेगावाट बिजली उत्पन्न करने की है और इसे वर्ष 2019 में चालू किया गया था।

इस सोलर पार्क को केंद्र और राज्य सरकार एक आदर्श परियोजना बताती रही है, जिससे स्थानीय आबादी खुशहाल होगी, स्थानीय आबादी में बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी, सस्ती बिजली मिलेगी, आर्थिक सम्पन्नता आयेगी, और प्रतिवर्ष 7 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड का वायुमंडल में उत्सर्जन रोका जा सकेगा। अनेक गैर-सरकारी सामाजिक और पर्यावरणीय संस्थाओं ने इस सोलर पार्क का विस्तार से अध्ययन किया है और इसके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन किया है।

पवागादा सोलर पार्क वाले क्षेत्र में प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र में 5.35 किलोवाट घंटा सौर ऊर्जा प्राप्त होती है, जाहिर है यह सौर उर्जा के लिए एक आदर्श स्थान है। इस परियोजना के लिए पांच गाँव के किसानों ने स्वेच्छा से 13000 एकड़ अपनी भूमि सौर ऊर्जा कंपनियों को पट्टे पर दिया है। यह पट्टा 21000 रुपये प्रति एकड़ की दर से दिया गया है और हरेक दो वर्षों में इस दर में 5 प्रतिशत की वृद्धि की जायेगी। यहाँ तक तो एक आदर्श स्थिति नजर आती है और सरकार इसे प्रचारित भी करती है, और पूरे क्षेत्र के आर्थिक विकास का दावा भी करती है।

इन तथ्यों को आप बारीकी से देखें तो इतना तो स्पष्ट हो ही जाएगा कि लाभ में केवल वही किसान रहेंगे जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं, क्योंकि वही अपनी जमीन पट्टे पर दे सकते हैं, पर सामान्यतया गाँव में कुछ किसानों के पास ही अपनी जमीन होती है, जिस पर खेती की जाती है, और गाँव की शेष आबादी श्रमिकों की होती है जो खेत वाले किसानों की जमीन पर श्रम कर अपना पेट भरते हैं। जाहिर है, सोलर पार्क से बहुत छोटे किसानों और खेतिहर श्रमिकों को कोई फायदा नहीं है।

खेतिहर श्रमिकों पर बेरोजगारी का संकट खड़ा हो गया है क्योंकि जिन खेतों पर वे श्रमिक का काम करते थे, उन पर अब सोलर पैनल खड़े हैं। इनमें से कुछ श्रमिकों को सोलर पार्क में ही घास काटने, सोलर पैनल की सफाई करने और सुरक्षा गार्ड का रोजगार मिला है, पर उनकी संख्या बहुत कम है। सामाजिक विकास से जुड़े संस्थानों का कहना है कि इस तरह की परियोजनाओं को स्थापित करने से पहले पूरे क्षेत्र की आबादी का विस्तृत आर्थिक और सामाजिक आकलन किया जाता है और खेतिहर श्रमिकों और वंचित समुदाय को प्राथमिकता के आधार पर रोजगार के अवसर और सुविधाएं दी जाती हैं, पर हमारे देश में ऐसी परियोजनाओं का लाभ केवल बड़े जमीन मालिकों में ही सिमट कर रह जाता है।

इस तरीके की परियोजनाएं सरकारी प्रचार तंत्र का हिस्सा तो बनती हैं, पर किसी भी स्थानीय समस्या का कोई समाधान नहीं होता। ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक तौर पर आर्थिक असमानता का पैमाना जमीन पर मालिकाना हक़ रहा है, और सोलर पार्क जैसी परियोजनाओं से आर्थिक असमानता और विकराल हो रही है।

बड़े किसानों को सोलर पार्क के लिए खेती की जमीन को पट्टे पर देने के कारण उनके पास अचानक बहुत सारी मुद्रा पहुँच गयी, और इस मुद्रा से कुछ बड़े किसान भारी व्याज पर कर्ज देने का धंधा करने लगे हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर तबके की एक बड़ी आबादी धीरे-धीरे कर्ज में डूबती जा रही है। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की परती सार्वजनिक और सरकारी भूमि मवेशियों के लिए चारागाह का काम करती थी, पर अब सोलर पार्क के अन्दर मवेशियों को चराना मना है। मवेशियों को अब चराने के लिए दूर ले जाना पड़ता है। इन सब समस्याओं से ट्रस्ट होकर कुछ लोगों ने अपने पुश्तैनी गाँव को ही छोड़ दिया है।

विश्व बैंक ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक रिपोर्ट में ऐसी सामाजिक समस्याओं के प्रति आगाह किया था, पर हमारे प्रधानमंत्री जी और सरकार की प्राथमिकता सौर ऊर्जा पर अंतर्राष्ट्रीय वाहवाही बटोरना है, जनता नहीं। हमारे प्रधानमंत्री तो वैसे भी हरेक परेशानी को कुछ दिनों की परेशानी ही बताते हैं और उसके बाद स्वार्गिक सुख का सब्जबाग दिखाते हैं। ऐसी परियोजनाएं समाज में सबसे अधिक महिलाओं को आर्थिक तौर पर कमजोर करती हैं। सोलर पार्क से पहले इस क्षेत्र की अधिकतर महिलायें खेतिहर श्रमिक का काम करती थीं, पर अब वे बेरोजगार हैं।

कर्नाटक के इस क्षेत्र में बारिश कितनी कम होती है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले 6 दशकों के दौरान 54 बार इसे सूखा-ग्रस्त क्षेत्र घोषित किया गया है। जाहिर है, इस क्षेत्र में पानी की भयानक किल्लत बनी रहती है। दूसरी तरफ सोलर पैनल की सफाई के लिए भारी मात्रा में पानी की जरूरत पड़ती है। एक मेगावाट बिजली उत्पन्न करने वाले पैनल को एक बार साफ़ करने के लिए 7 हजार से 20 हजार लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। हमारे सरकारों की प्राथमिकता पानी के उपयोग के सम्बन्ध में अब पूरी तरह बदल चुकी है और अब पानी के उपयोग में प्राथमिकता उद्योग हो गए हैं। पानी की कमी होने पर अब इस क्षेत्र में कृषि और घरेलु आपूर्ति प्रभावित होगी।

सोलर पार्क स्थापित करने के बाद इलाके के वन्यजीव या तो मर जाते हैं या फिर कहीं और चले जाते हैं। कीट पतंगे और मधुमक्खियाँ भी कम हो जाते हैं। इनका खेतों में परागण में बहुत योगदान रहता है, और इनकी कमी से कृषि पैदावार कम हो जाती है। पवागादा सोलर पार्क के आसपास के किसान इस समस्या से जूझने लगे हैं। सोलर पार्क के लिए किसानों से पट्टे पर ली गयी जमीन के बारे में अनुबंध में कहा गया है कि उन्हें जमीन वापस पहले जैसी ही मिलेगी। पहले जैसी जमीन वापस करना असंभव है क्योंकि सोलर पैनल का आधार पक्का बनाया जाता है। खेती की जमीन को सीमेंट और ईंट से पक्का करने के बाद उसे वापस पहले की अवस्था में लाना असंभव है।

सोलर पार्क स्थापित करने के बाद स्थानीय स्तर पर तापमान भी बढ़ता है, जिससे स्वास्थ्य समस्याएं भी बढ़ सकती हैं। सोलर पैनल की आयु 25 से 30 वर्ष की होती है, और उपयोग के बाद इसका कोई उपयोग नहीं होता और इसका पुनःचक्रण भी नहीं किया जा सकता। यदि, इसके कचरे का उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो इससे अनेक विषाक्त पदार्थ भूमि में मिल सकते हैं। पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि सौर ऊर्जा से हरेक समस्या के समाधान का दावा करने वाली सरकार इन समस्याओं पर कभी विचार करेगी और स्थानीय समस्याओं पर कभी ध्यान देगी?

Tags:    

Similar News