जलवायु परिवर्तन के असर से कम होगी धान की पैदावार, किसानों को समय रहते तलाशने होंगे भरपाई के उपाय

जलवायु परिवर्तन से तापमान, बारिश और वायु में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की सांद्रता प्रभावित होती है, और यही सभी कारक पैदावार को भी प्रभावित करते हैं।

Update: 2021-03-17 07:50 GMT

जलवायु परिवर्तन नहीं किसी आपातकाल से कम, दुनिया के लिए भारी खतरा

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

बिहार स्थित बोर्लौग इंस्टिट्यूट फॉर साउथ एशिया के रिसर्च फार्म पर किये गए एक अनुसन्धान से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और पानी की कमी के कारण भविष्य में धान की पैदावार कम होगी। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ इलिओनिस के प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता की अगुवाई में वैज्ञानिकों के दल ने किये है। इस अध्ययन में कुछ सुझाव भी दिए गए हैं, जिनपर अमल कर पैदावार को बढ़ाया भी जा सकता है।

यह अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी आज की तुलना में 2 अरब अधिक होगी और 60 प्रतिशत से अधिक खाद्यान्न की जरूरत पड़ेगी। चावल दुनिया में बड़ी आबादी का मुख्य भोजन है और धान के उत्पादन की शुरुआत पारंपरिक तौर पर दुनिया के उन क्षेत्रों में शुरू की गयी थी जहां सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्र में पानी आसानी से उपलब्ध था। धान की पैदावार से लेकर चावल निकालने तक की प्रक्रिया में पानी की बहुत जरूरत होती है। अनुमान है की एक किलो चावल के उत्पादन से लेकर बाजार तक पहुँचने में 4000 लीटर पानी की जरूरत होती है।

प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता के अध्ययन के अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान धान की फसल तैयार होने की अवधि लगातार घट रही है, जिससे इसकी पैदावार गिर रही है। जलवायु परिवर्तन से तापमान, बारिश और वायु में कार्बन डाइऑक्साइड गैस की सांद्रता प्रभावित होती है, और यही सभी कारक पैदावार को भी प्रभावित करते हैं। परम्परागत तौर पर धान के बिचड़े को जिस खेत में लगाया जाता है उसमें कम से कम 6 इंच गहरा पानी इकट्ठा किया जाता है। यह पानी गर्मी और हवा के साथ ही वाष्पीकृत होकर वायुमंडल में मिल जाता है, जिससे भारी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है।

प्रोफ़ेसर प्रशांत कलिता के अनुसार पानी बचाने के लिए किसानों को धान की बीज वाली किस्मों का पैदावार बढ़ाना चाहिए, जिससे खेतों में पानी की खपत कम होगी। यदि, परम्परागत तरीके से ही खेती करनी है तब खेतों में खड़े पानी के ऊपर कृषि अपशिष्ट का छिडकाव कर देना चाहिए, जिससे पानी का वाष्पीकरण कम होगा। कृषि अपशिष्ट पानी के कारण जल्दी विखंडित होगा और खेतों में कार्बनिक खाद की प्रचुरता होगी। इन तरीकों से उपज के कुल नुकसान में से 60 प्रतिशत नुकसान की भरपाई की जा सकती है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार धान से चावल बनाने की प्रक्रिया के दौरान लगभग 30 प्रतिशत उपज बर्बाद हो जाती है, यदि इस बर्बादी को रोक दिया जाए तो चावल का उत्पादन स्वतः 30 प्रतिशत बढ़ जाएगा।

फिलीपींस में नार्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के एक गहन अध्ययन से पता चलता है कि बढ़ाते तापमान से धान की पैदावार कम होती है। प्रोफ़ेसर रोडरिक रेजेसुस की अगुवाई में किये गए इस अध्ययन में सारे आंकड़े फिलीपींस के धान के खेतों से एकत्रित किये गए थे। इस दल ने धान की पैदावार का अध्ययन तीन वर्गों में किया था। पहले वर्ग में परम्परागत खेती, दूसरे में हरित क्रांति के बाद के बाद की खेती और तीसरे वर्ग में आधुनिक खेती, जिसे बढ़ते तापमान के अनुरूप ढाला गया है। अध्ययन का निष्कर्ष है की बढ़ते तापमान का असर सबसे अधिक परम्परागत खेती पर पड़ता है और सबसे कम आधुनिक खेती पर, पर असर हरेक प्रकार की खेती पर होता है। इस दल ने अध्ययन के लिए वर्ष 1966 से 2016 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया है।

इन अध्ययनों से इतना तो स्पष्ट है की तापमान बृद्धि के कारण फसलों की पैदावार पर असर पड़ेगा और किसानों को इस पैदावार की भरपाई के उपाय समय रहते तलाशने होंगें। पर, जलवायु परिवर्तन का दुखद पहलू यह भी है कि कहीं इससे परम्परागत खेती ही समूल नष्ट ना हो जाए।

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