देश के समस्याओं से सरकार उदासीन और इन समस्याओं को बढ़ाने में पत्रकारों का है बहुत बड़ा योगदान

शायद ही कोई पत्रकार जलवायु परिवर्तन और आपदाओं से निपटने की सरकारी नीति पर सवाल करता है, या फिर किसी प्राकृतिक आपदा की फाइनल सरकारी रिपोर्ट की मांग करता है...

Update: 2021-09-01 07:59 GMT

वैज्ञानिक दे चुके हैं चेतावनी कि बड़ी परियोजनाओं पर नहीं लगी लगाम तो आती रहेंगी भयानक तबाहियां (file photo)

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

जनज्वार। एक अध्ययन के अनुसार अब जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि की समाचार पत्रों में रिपोर्टिंग 90 प्रतिशत तक सही होने लगी है, जबकि पहले यह अनुपात 35 प्रतिशत ही था। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोलोराडो के पर्यावरण विभाग के वैज्ञानिक मैक्स बोयकोफ्फ़ की अगुवाई में किया गया है और इसमें 2005 से 2019 के बीच जलवायु परिवर्तन से जुड़े अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और न्यूज़ीलैण्ड के समाचारों का विश्लेषण किया गया है।

इस अध्ययन के अनुसार इस अवधि में 90 प्रतिशत समाचार वैज्ञानिक तथ्य से भरपूर थे। इससे पहले ऐसे ही अध्ययन में 1988 से 2002 के बीच प्रकाशित समाचारों का विश्लेषण किया गया था और निष्कर्ष था कि महज 35 प्रतिशत समाचार ही वैज्ञानिक तथ्यों पर खरे उतरते थे।

जलवायु परिवर्तन और तापमानव वृद्धि का व्यापक प्रभाव दुनिया भर में पड़ रहा है और इसकी चर्चा भी खूब की जा रही है। ऐसे में जाहिर है, मीडिया भी इस मुद्दे को लगातार उठा रहा है पर इसका कोई असर दिखाई नहीं देता। दुनियाभर में जिन कारणों से जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसमें से किसी पर रोक नहीं लगी और न ही लोगों ने अपना रहन-सहन पर्यावरण अनुकूल बनाया। जाहिर है, मीडिया इस मुद्दे को उठा तो रहा है, पर इसका प्रभाव नहीं पड़ रहा है।

यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मीडिया का मतलब वैश्विक मीडिया से है, जिसमें भारत के मीडिया की चर्चा नहीं है। हमारे देश का मीडिया निष्पक्ष नहीं बल्कि मोदी भक्त और बीजेपी भक्त है, यह हमें समाचार नहीं दिखाता बल्कि सरकार के पक्ष में समाचार गढ़ता है और जनता के सरोकारों को हमारी नज़रों से दूर करता है। मोदी सरकार के अनुसार जलवायु परिवर्तन केवल अमेरिका, चीन और कुछ यूरोपीय देशों द्वारा उत्पन्न समस्या है और भारतीय मीडिया भी या तो जलवायु परिवर्तन से अनजान बना रहता है या फिर केवल उतना ही बताता है, जितना सरकार का प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो बताता है।

देश के समस्याओं से सरकार उदासीन है, और इन समस्याओं को बढाने में पत्रकारों का बहुत बड़ा योगदान है। जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि से जुडी आपदाएं हमारे देश में लगातार आती हैं, सरकारें मुवावजा देकर अपना काम पूरा कर लेती हैं और पत्रकारों में कुछ दिनों की सुगबुगाहट होती है और फिर दूसरी आपदा पर खबरें आनी शुरू हो जाती हैं। शायद ही कोई पत्रकार जलवायु परिवर्तन और आपदाओं से निपटने की सरकारी नीति पर सवाल करता है, या फिर किसी प्राकृतिक आपदा की फाइनल सरकारी रिपोर्ट की मांग करता है।

बोस्टन यूनिवर्सिटी की पत्रिका "द ब्रिंक" में दो वर्ष पहले इसी विषय पर एक लेख, "हाउ टू कन्विंस अ क्लाइमेट चेंज स्केप्टिक डीनैयर्स बीलिटिल साइंस एंड इग्नोर पब्लिक ओपिनियन" प्रकाशित किया गया था। इसमें बोस्टन यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ़ कम्युनिकेशन की को-डायरेक्टर मिना से-वोगेल, कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड साइंस में अर्थ और एनवायरनमेंट की प्रोफेसर सूचि गोपाल और रोहन कुन्दर्गी के एक अध्ययन का हवाला दिया गया है। इस दल के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जलवायु परिवर्तन की प्रभावी रिपोर्टिंग में किसी घटना की दूरी और रिपोर्टिंग की वैज्ञानिक भाषा बहुत महत्वपूर्ण होती है।

इस दल ने अनेक देशों के विजुअल मीडिया में जलवायु परिवर्तन की खबरों के साथ दिखाए गए विडियो का अध्ययन किया और देखा की जलवायु परिवर्तन के स्थानीय प्रभावों की रिपोर्टिंग के समय भी विडियो सुदूर क्षेत्रों के प्रस्तुत किये जाते हैं। उदाहरण के तौर पर केरल की बाढ़ की रिपोर्टिंग या महाराष्ट्र के सूखा की रिपोर्टिंग में जलवायु परिवर्तन की चर्चा शुरू होते ही अलास्का, ग्रीनलैंड या फिर दक्षिणी ध्रुव की विडियो चलने लगती है।

सूचि गोपाल के अनुसार ऐसे विडियो देखने वालों पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ते। लोग अपने शहर, राज्य या देश की खबर से प्रभावित होते हैं। यदि भारत की खबर है तो कश्मीर के लोग भी कन्याकुमारी की खबर से कुछ हद तक प्रभावित होते हैं पर देश की सीमा से परे की जलवायु परिवर्तन की खबरें लोगों पर कोई असर नहीं डालतीं।

इसी तरह, सामान्य धारणा के विपरीत बहुत सरल शब्दों में जलवायु परिवर्तन जैसे विषय की रिपोर्टिंग दर्शकों को प्रभावित नहीं करती। जब रिपोर्टर जलवायु परिवर्तन के मामले में भारी-भरकम वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग करते हैं तब लोगों को यह समस्या अधिक गंभीर लगती है।

दूसरी तरफ अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ केन्सास के नए अध्ययन के अनुसार किसी देश की मीडिया द्वारा जलवायु परिवर्तन की रिपोर्टिंग कुछ घटकों पर निर्भर करती है, और किसी देश में कैसी रिपोर्टिंग की जायेगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। पर, कहीं भी मीडिया जलवायु परिवर्तन को आज और अभी की समस्या के तौर पर प्रस्तुत नहीं करता। अमीर देशों के मीडिया में जलवायु परिवर्तन को एक राजनैतिक समस्या के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है, जबकि गरीब देशों का मीडिया इसे वैश्विक, विशेष तौर पर अमीर देशों की समस्या बताता है।

केन्सास यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता के असिस्टेंट प्रोफेसर, होन्ग वू, इस अध्ययन के मुख्य लेखक हैं। इनके अनुसार, "मीडिया यह बताता है की आप किस दिशा में सोचें। किसी विषय के प्रस्तुतीकरण के ढंग से लोग उसी तरह सोचने लगते हैं और इनसे राष्ट्रीय नीतियाँ भी प्रभावित होती हैं"। होन्ग वू के दल ने इस अध्ययन के लिए कुल 45 देशों में वर्ष 2011 से 2015 के बीच समाचार पत्रों में प्रकाशित जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित 37000 से अधिक समाचारों/लेखों का विश्लेषण मशीन लर्निंग विधि द्वारा किया।

इस अध्ययन के अनुसार किसी देश का मीडिया जलवायु परिवर्तन को किस तरीके से प्रस्तुत करता है इसका सबसे बड़ा सूचक देश का प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद है। होन्ग वू के अनुसार अध्ययन से स्पष्ट है की समृद्ध देशों का मीडिया जलवायु परिवर्तन को राजनैतिक समस्या के तौर पर प्रस्तुत करता है, जबकि गरीब देशों में मीडिया इसे अंतरराष्ट्रीय समस्या के तौर पर दिखाता है। इस विरोधाभास को समझा जा सकता है क्योंकि अमीर देशों अपनी समृद्धि के बल पर जलवायु परिवर्तन से लड़ सकते हैं, पर गरीब देशों के पास संसाधन नहीं हैं।

उन देशों में, जहां जलवायु परिवर्तन तेजी से असर दिखा रहा है, प्राकृतिक आपदा के प्रकोप से जान-माल की अधिक हानि हो रही है, उन देशों का मीडिया जलवायु परिवर्तन के आर्थिक सन्दर्भ भी प्रस्तुत करता है। जलवायु परिवर्तन के साथ सामाजिक विकास के नाम पर अमीर देशों का मीडिया पूरी तरह ऊर्जा के उपयोग पर केन्द्रित रहता है। जिन देशों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन अधिक होता है, वहां भी मीडिया के लिए ऊर्जा का मुद्दा प्रमुख रहता है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव झेल रहे गरीब देशों में मीडिया का ध्यान इसके प्राकृतिक प्रभावों पर रहता है।

होन्ग वू के अनुसार इस अध्ययन से जलवायु परिवर्तन की रिपोर्टिंग पर मीडिया के प्रभावों को समझा जा सकता है। वे कहते हैं, "कम्मुनिकेशन शोधार्थियों के तौर पर हम जानना चाहते हैं की पिछले 30 वर्षों में इस विषय पर जनसंवाद और मीडिया द्वारा इसे लगातार इसे गंभीर वैश्विक समस्या बताने के बाद भी यह समस्या कम क्यों नहीं हो पा रही है। यदि हम चाहते हैं कि इस सन्दर्भ में जनजागरूकता और बढे तो मीडिया को पहल करना पड़ेगा। यदि मीडिया जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका की समीक्षा करे तो इसे बेहतर आयाम दिया जा सकता है। हमें आशा करनी चाहिए की मीडिया का यह नया कलेवर राष्ट्रीय नीतियों में भी झलकने लगेगा।"

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