विशेष : धरती का पर्यावरण बचाने के बदले मनुष्य चाँद और मंगल पर बस्तियां बनाने में ज्यादा सक्रिय
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यदि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाना है तब वर्ष 2030 तक लगभग चीन के आकार का क्षेत्र, यानि एक अरब वर्ग किलोमीटर को पूरी तरह संरक्षित करना होगा....
विश्व पर्यावरण दिवस पर वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय का विशेष लेख
जनज्वार। इस वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस के लिए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने विषय घोषित किया है, पारिस्थितिकी तंत्र पुनःस्थापन (Ecosystem Restoration)। विषय के चयन से ही जाहिर है कि पारिस्थितिकी तंत्र का लगातार विनाश इस दौर की सबसे गंभीर समस्या है, पर इसपर अबतक अधिक ध्यान नहीं दिया गया था। जब भी वैश्विक स्तर पर पर्यावरण की बात की जाती है तब चर्चा जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि से शुरू होकर इसी पर ख़त्म हो जाती है। पर, वैज्ञानिकों के अनुसार जैव-विविधता का विनाश भी लगभग उतनी ही गंभीर समस्या है और पृथ्वी पर जीवन बचाने के लिए जल्दी ही गंभीरता से जैव-विविधता बचाने की पहल करनी पड़ेगी।
पर्यावरण का विनाश केवल हवा, भूमि और पानी का प्रदूषण या अंधाधुंध उपयोग ही नहीं है, बल्कि सबसे अधिक हम पारिस्थितिकी का विनाश कर रहे हैं और इस विनाश का पैमाना इतना बड़ा है कि पृथ्वी पर जीवन ही संकट में आ गया है। पर्यावरण के बदलाव का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है – यादो आपकी उम्र 60 वर्ष है तो जब आप पैदा हुए होंगें तबका औसत तापमान वर्तमान से 0.7 डिग्री सेल्सियस कम रहा होगा, नदियों में पानी का औसत बहाव अब से 40 प्रतिशत अधिक रहा होगा, वायु प्रदूषण का स्तर 70 प्रतिशत कम रहा होगा, नदियाँ बिलकुल साफ रही होंगीं, और जैव-विविधता आज की तुलना में 40 प्रतिशत अधिक रही होगी।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाईजेशन द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार यदि पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को बचाना है तब वर्ष 2030 तक लगभग चीन के आकार का क्षेत्र, यानि एक अरब वर्ग किलोमीटर को पूरी तरह संरक्षित करना होगा। यह काम बड़ा है और समय कम, इसलिए दुनिया को इस क्षेत्र में प्रयास बढाने होंगें। इस समय भी ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं, पर वे अपर्याप्त हैं। पारिस्थितिकी तंत्र और जैव-विविधता के अभूतपूर्व विनाश को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने इस पूरे दशक को इनके विनाश को रोकने के लिए समर्पित किया है।
हमारा पूरा विकास, जिसे हम आधुनिक विकास कहकर खुश होते हैं, पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश पर ही टिका है। इस दौर में दुनिया के सकल घरेलु उत्पाद का 50 प्रतिशत से अधिक इसके दोहन पर आधारित है। पर, ऐसे अंधाधुंध दोहन के समय हम यह भूल जाते हैं की हमारा अस्तित्व पारिस्थितिकी तंत्र पर ही टिका है। इसका इतना विनाश हम कर चुके हैं कि दुनिया की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी पर इसका असर पड़ने लगा है। इस दौर में हम जितना दोहन कर रहे हैं, उसके लिए 1.6 पृथ्वी की जरूरत है, यानि हम संसाधनों का दोहन पृथ्वी की क्षमता से अधिक कर रहे हैं।
कोई भी संसाधन असीमित नहीं है, हरेक संसाधन की हरेक वर्ष नवीनीकरण की क्षमता सीमित है। आदर्श स्थिति यह है जब प्राकृतिक संसाधन का जितना वर्ष भर में नवीनीकरण होता है, विश्व की जनसँख्या केवल उतने का ही उपभोग करे, जिससे संसाधनों का विनाश नहीं हो। पर, अब हालत यह हो गयी है कि वर्ष 2020 के अंत तक जितने संसाधनों का उपयोग हमें करना था, उतने का उपयोग विश्व की आबादी 22 अगस्त तक ही कर चुकी थी।
बढ़ती आबादी के साथ साथ खाद्यान्न उत्पादन, धातुओं का खनन, जंगलों का कटना और जीवाश्म इंधनों का उपभोग तेजी से बढ़ रहा है। इससे कुछ हद तक अल्पकालिक जीवन स्तर में सुधार तो आता है, पर दीर्घकालिक परिणाम भयानक हैं। विश्व की कुल भूमि में से एक-तिहाई से अधिक बंजर हो चुकी है, पानी की लगभग हरेक देश में कमी हो रही है, तापमान बढ़ता जा रहा है, जलवायु का मिजाज हरेक जगह बदल रहा है, जैव-विविधता तेजी से कम हो रही है और जंगल नष्ट होते जा रहे हैं। हम प्रकृति से उधार लेकर अर्थव्यवस्था में सुधार ला रहे है| वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं, हम यह उधार कभी नहीं चुका पायेंगे, पर सभी देश इसे नजरअंदाज करते जा रहे हैं| पूंजीवादी व्यवस्था पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करने पर तुली है, पर यह सब बहुत दिनों तक चलेगा ऐसा लगता नहीं है।
नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार अमीर देशों के उपभोक्तावादी रवैय्ये के कारण बड़े पैमाने पर वर्षा वन और उष्णकटिबंधीय देशों के जंगल काटे जा रहे हैं। दुनिया के धनी देशों का एक समूह जी-7 है। अनुमान है की जी-7 के सदस्य देशों में चौकलेट, कॉफ़ी, बीफ, पाम आयल जैसे उत्पादों का इस कदर उपभोग किया जाता है कि इन देशों के प्रति नागरिकों के लिए हरेक वर्ष 4 पेड़ काटने पड़ते हैं। अमेरिकी नागरिकों के लिए यह औसत 5 पेड़ प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शोध छात्र विजय रमेश ने हाल में ही देश के वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग में परिवर्तित करने का गहन विश्लेषण किया है और इनके अनुसार पिछले 6 वर्षों के दौरान सरकार तेजी से वन क्षेत्रों में खनन, उद्योग, हाइड्रोपॉवर और इन्फ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने की अनुमति दे रही है, जिससे वनों का उपयोग बदल रहा है और इनका विनाश भी किया जा रहा है।
इस दौर में, यानि 2014 से 2020 के बीच पर्यावरण और वन मंत्रालय में वन स्वीकृति के लिए जितनी भी योजनाओं ने आवेदन किया, लगभग सबको (99.3 प्रतिशत) स्वीकृति दे दी गई, या फिर स्वीकृति की प्रक्रिया में हैं, जबकि इससे पहले के वर्षों में परियोजनाओं के स्वीकृति की दर 84.6 प्रतिशत थी।
यही नहीं, बीजेपी की सरकार वनों के साथ कैसा सलूक कर रही है, इसका सबसे उदाहरण तो यह है कि 1980 में लागू किये गए वन संरक्षण क़ानून के बाद से वर्ष 2013 तक, जितने वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोगों के लिए खोला गया है, इसका 68 प्रतिशत से अधिक वर्ष 2014 से वर्ष 2020 के बीच स्वीकृत किया गया। वर्ष 1980 से 2013 तक कुल 21632.5 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को गैर-वन उपयोग के लिए स्वीकृत किया गया था, पर इसके बाद के 6 वर्षों के दौरान ही 14822.47 वर्ग किलोमीटर के वन क्षेत्र को गैर-वन गतिविधियों के हवाले कर दिया गया।
दिसम्बर 2019 में संसद को बताया गया था कि वर्ष 2015 से 2018 के बीच कुल 1280 परियोजनाओं के लिए 20314 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र के भू-उपयोग को बदला गया है। इन परियोजनाओं में खनन, ताप बिजली घर, नहरें, सड़कें, रेलवे और बाँध सम्मिलित हैं। वनों के क्षेत्र को परियोजनाओं के हवाले करने में सबसे आगे तेलंगाना, मध्य प्रदेश और ओडिशा हैं। पूरे देश में परियोजनाओं के हवाले जितना वन क्षेत्र किया गया है, उसका 62 प्रतिशत से अधिक केवल इन तीन राज्यों में किया गया है।
जैव-विविधता के संरक्षण के लिए ऐची समझौते के तहत वर्ष 2020 तक के लिए अनेक लक्ष्य निर्धारित किये गए थे। इसमें से एक लक्ष्य को छोड़कर किसी भी लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है। जिस लक्ष्य को हासिल किया जा सका है, उसे लक्ष्य-11 के नाम से जाना जाता है और इसके अनुसार वर्ष 2020 तक दुनिया में भूमि और नदियों के कुल पारिस्थितिकी तंत्र का 17 प्रतिशत और महासागरों के 10 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र को आधिकारिक तौर पर संरक्षित करना था। हाल में ही प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार भूमि और नदियों के संरक्षण का लक्ष्य तो हासिल कर लिया गया है, पर महासागरों का 8 प्रतिशत क्षेत्र ही संरक्षित किया जा सका है।
हमारे देश ने भी इस समझौते को स्वीकार किया है, और हमारे प्रधानमंत्री लगातार देश में पर्यावरण संरक्षण की पांच हजार वर्षों से चली आ रही परंपरा का जिक्र अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में करते रहे हैं। हमारे देश में कुल 679 संरक्षित क्षेत्र हैं, जिनका सम्मिलित क्षेत्र 162365 वर्ग किलोमीटर है और या देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 5 प्रतिशत है, जबकि समझौते के तहत 17 प्रतिशत क्षेत्र संरक्षित करना था। इसमें 102 राष्ट्रीय उद्यान और 517 वन्यजीव अभयारण्य हैं।
देश में 39 बाघ रिज़र्व और 28 हाथी रिज़र्व हैं। संरक्षित क्षेत्रों में 6 ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र के युनेस्को ने संरक्षित धरोहर के तौर पर अधिसूचित किया है। ये संरक्षित धरोहर हैं – काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मानस राष्ट्रीय उद्यान, केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान और फूलों की घाटी, सुंदरबन और पश्चिमी घाट। इन संरक्षित स्थानों के अतिरिक्त सरकार ने संरक्षित करने के लिए सागर और महासागर क्षेत्र में 106 स्थलों की पहचान की है।
पर्यावरण के विनाश के संदभ में आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि हमें समस्याएं मालूम हैं, इनका असर भी मालूम है – फिर भी दुनिया उदासीन बनी हुई है। अब तो हालत यहाँ तक पहुँच गए हैं कि धरती का पर्यावरण बचाने के बदले मनुष्य चाँद और मंगल पर बस्तिया बनाने पर अधिक सक्रिय है।