दिशा रवि की गिरफ्तारी का असल कारण किसान आंदोलन नहीं भारत सरकार के पर्यावरण मसौदे का विरोध
दिशा रवि गिरफ़्तारी की को सामान्यत: सिर्फ़ किसान आन्दोलन से जोड़कर देखा जा रहा है, जबकि इस गिरफ़्तारी का असली कारण भारत सरकार द्वारा लॉकडाउन के दौरान जारी किए गये पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 के मसौदे का दिशा रवि द्वारा किया गया विरोध है…
प्रमोद रंजन का साप्ताहिक कॉलम 'नई दुनिया'
जनज्वार। 13 फरवरी, 2021 को कर्नाटक की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को दिल्ली पुलिस ने बेंगलुरू स्थित उनके घर जाकर गिरफ़्तार किया और उन पर देशद्रोह का केस लगाया गया है।
21 वर्षीय दिशा पर आरोप है कि उन्होंने पंजाब के भू-स्वामियों (किसानों) के आंदोलन को जन-समर्थन दिलाने के लिए स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग द्वारा तैयार की गयी रूप-रेखा (टूल-किट) के निर्माण में भूमिका निभायी थी।
मीडिया में इसकी चर्चा जिस रूप में हुई है, वह उसकी गंभीरता को समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। यहाँ हम इनके कुछ अलक्षित पहलुओं को देखने की कोशिश करेंगे।
दिशा रवि की गिरफ़्तारी क्यों हुई है?
दिशा रवि स्वीडन की विश्व प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग से अपने कॉलेज के शुरुआती दिनों से ही प्रभावित रही हैं तथा उनके बहुचर्चित कार्यक्रम 'फ़्राइडे फ़ॉर फ़्यूचर' (शुक्रवार भविष्य के लिए) से आरंभ से ही जुड़ी रही हैं। इस कार्यक्रम के तहत ग्रेटा थनबर्ग ने दुनिया भर के युवाओं से शुक्रवार का दिन पर्यावरण से संबंधित मामलों पर जागरूकता फैलाने के लिए सुरक्षित रखने का आग्रह किया था। उनके इस अभियान ने दुनिया भर में पर्यावरण-संबंधी सैकड़ों आन्दोलनों को जन्म दिया है तथा दर्जनों देशों में इससे संबंधित प्रदर्शन आयोजित होते रहे हैं जिसमें लाखों युवा भाग लिया करते हैं। इन आंदोलनों के कारण कई देशों को कॉरपारेशनों के हित में लागू किए गये क़ानून वापस लेने पड़े हैं। ग्रेटा थनबर्ग महज़ 18 वर्ष की हैं।
इस किशोरी को 'टाइम्स' और 'फोर्ब्स' पत्रिका द्वारा विश्व की सबसे प्रभावशाली शख़्सियतों में शुमार किया जा चुका है तथा उन्हें दो बार नोबेल पुरस्कार के लिए भी नामित किया गया है।
ग्रेटा थनबर्ग ने भारत में चल रहे उपरोक्त किसान-आंदोलन को समर्थन देने हेतु आह्वान किया था। भारत सरकार का कहना है कि दिशा रवि ने भी इस आह्वान में भूमिका निभायी है। इन कारणों से भारत समेत दुनिया भर के मीडिया ने दिशा रवि की गिरफ़्तारी की ख़बरें प्रकाशित की हैं, और भारत सरकार के इस क़दम की आलोचना की है।
दूसरी ओर, भारतीय मीडिया में कहा गया कि नरेन्द्र मोदी सरकार एक ऐसी युवा लड़की को बेवजह परेशान कर रही है, जिसका राजनीति से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। भारतीय ख़बरों में दिशा को एक ऐसी भावुक, बिन्दास और संवेदनशील लड़की के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो पर्यावरण एवं जलवायु-परिवर्तन जैसे मुद्दे पर काम करती है। जाति और धर्म से दूर समझे जाने वाले (जो कि पूरी तरह सच नहीं है) ऐसे मुद्दों को भारत में इसलिए निरीह, नख-दंत-विहीन समझा जाता रहा है क्योंकि ये न तो वोटों के गणित को प्रभावित करते हैं और न ही किसी प्रकार की उग्र-हिंसक कार्रवाइयों में भागीदारी करते हैं। भारतीय मध्यवर्ग ऐसे आन्दोलनों में अपने बच्चों की शिरकत का बुरा नहीं मानता। उसे लगता है कि यह कुछ तख़्तियाँ उठा लेने और टी-शर्ट पर आंदोलन का नाम लिखवाकर फ़ोटो खिंचवा लेने भर का मामला है तथा ये आंदोलन किसी भी प्रकार से किसी का अहित नहीं करते बल्कि सिर्फ़ सबको अच्छी लगने वाली बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, इसलिए निरापद हैं। इन आन्दोलनों में शामिल होने पर उसे अपने बच्चों का करियर ख़राब होने का ख़तरा नहीं दिखता।
इन्हीं कारणों से भारतीय मीडिया भी इस प्रकार के आंदोलनों को गंभीरता से नहीं लेता है, हालाँकि इनसे संबंधित ख़बरें खू़ब छपती हैं।
भारतीय मीडिया ने दिशा रवि की गिरफ़्तारी को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा है। सामान्य तौर पर कहा जा रहा है कि उसने अपनी भावुकता के कारण, ग़लती से किसान-आंदोलन में हाथ डाल दिया है और यह सरकार एक मध्यमवर्गीय, पढ़ी-लिखी लड़की को गिरफ़्तार कर अपनी मूर्खता और तानाशाही प्रवृत्तियों का प्रदर्शन कर रही है। इस भाव पर बल देने के लिए ख़बरों में यह भी बताया गया है कि दिशा "शाकाहारी हैं और शाकाहारी स्टार्ट-अप के लिए काम करती हैं" तथा उन्होंने इन मुद्दों पर होने वाले प्रदर्शनों में "कभी कोई क़ानून नहीं तोड़ा है"। मीडिया संस्थानों ने अपने पाठकों का ध्यान इस ओर भी दिलाया है कि दिशा रवि ने अभी भी भारतीय क़ानूनों के अनुसार कोई अपराध नहीं किया है तथा जिस कथित 'टूल-किट' की बात सरकार कर रही है, वह किसी आन्दोलन के प्रसार की एक रूप-रेखा होती है, जिसे आन्दोलनकारियों के द्वारा तैयार किया जाना और प्रसारित किया जाना स्वाभाविक है। इसलिए सरकार को ये दमनात्मक कार्रवाई बंद करनी चाहिए।
मीडिया में कही गयी उपरोक्त बातें एकदम सही हैं। लेकिन, क्या सरकार ने सचमुच इस मामले में सिर्फ़ अपनी मूर्खता और तानाशाही का प्रदर्शन किया है? क्या सरकारी अधिकारी सचमुच नहीं जानते कि किसी आंदोलन के लिए 'टूल-किट' के निर्माण या उसके प्रसार को भारतीय न्यायालयों में अपराध साबित नहीं किया जा सकता? या कि शाकाहार किसी के निर्दोष होने की गारंटी है? और यह भी कि, क्या कानून नहीं तोड़ना कोई ऐसा मेडल है, जिसे किसी परिवर्तनकामी आंदोलनकारी के गले में डाला जाना चाहिए?
बहरहाल, दिशा रवि के अब तक के कामों की पृष्ठभूमि को देखने पर यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उनकी गिरफ़्तारी के लिए किसान आंदोलन के 'टूल किट' को महज़ एक बहाना बनाया गया है। वस्तुत: उन्हें एक अन्य मामले में चुप करवाने के लिए उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है।
यह मामला भारत सरकार की पर्यावरण संबंधी नियमावली में परिवर्तन की कोशिश के असफल हो जाने का है। जिसकी जिम्मेवार दिशा रवि रही हैं। कुछ न्यूज वेबपोर्टलों ने इससे संबंधित हालिया घटनाओं के पन्नों को पलटने की कोशिश की है, लेकिन उन्होंने इन दोनों के बीच के संबंध को समझने की कोशिश नहीं की है।
हम यहां देखेंगे कि कैसे पर्यावरण संबंधी नियमावली में परिवर्तन में बाधक बनने के कारण भारत के एक चर्चित न्यूज पोर्टल को भी पिछले दिनों निशाना बनाया है। ये सभी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुईं हैं।
तीसरी दुनिया के अनेक देशों की तरह भारत सरकार ने भी कोविड महामारी के दौरान किए गये लॉकडाउन का लाभ उठाकर कई ऐसे क़ानून जनता पर थोप दिये हैं, जो अगर सामान्य दिनों में लागू होते तो उनका काफ़ी विरोध होता। भारत में सरकार ने इस दौरान श्रम क़ानूनों में बदलाव, रेलवे का निजीकरण, कोयला-क्षेत्र का निजीकरण समेत इस प्रकार के दर्जनों काम कर डाले। इनमें से अधिकांश चीजे़ं देशी व वैश्विक कॉरपोरेशनों द्वारा की गयी लॉबिंग के कारण संभव हो सकीं। लेकिन, इन सबके घटित हो जाने के बावजूद इनमें सबसे बड़ी बाधा है पर्यावरण पर स्टॉकहोम (स्वीडन) घोषणा, 1972 पर हस्ताक्षरकर्ता होने के कारण भारत में बने पर्यावरण संबंधी क़ानून। इन क़ानूनों के तहत उद्योगों और कथित विकास परियोजनाओं को शुरू करने से पहले यह सुनिश्चित करना होता है कि इसका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हर विकास परियोजना को पर्यावरणीय स्वीकृति देने से पहले उसका 'पर्यावरण प्रभाव आकलन' किया जाता है। हालाँकि इन नियमों को काँग्रेस के कार्यकाल में, वर्ष 2006 में ही काफ़ी कमज़ोर कर दिया गया था।
मौजूदा सरकार द्वारा कॉरपोरेशनों को लाभ पहुँचाने के लिए लॉकडाउन के दौरान जो क़ानून लाए गये हैं, उनका पूरा लाभ कॉरपोरेशनों को तब तक नहीं मिल सकता, जब तक कि पर्यावरण संबंधी आकलन की प्रक्रियाओं को पूरी तरह अप्रभावी न बना दिया जाए क्योंकि दुनिया की सभी बड़ी परियोजनाएँ पर्यावरण के विध्वंस से ही शुरू होती हैं। इनमें से अधिकांश परियोजनाएँ मानवता के लिए ग़ैर-ज़रूरी होती हैं तथा सिर्फ़ पैसा बनाने तथा कई बार सरकारी-निजी शक्तियों की सनक को पूरा के लिए शुरू की जाती रही हैं।
भारत सरकार लॉकडाउन की शुरूआत के साथ ही 'पर्यावरण प्रभाव आकलन' की प्रक्रियाओं में बदलाव का एक प्रस्ताव लेकर आयी थी, जिसे पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 (Environment Impact Assessment 2020) कहा गया। इसे 11 अप्रैल, 2020 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित किया गया।
इस नये मसौदे में ऐसे बड़े उद्योगों और परियोजनाओं की एक लंबी सूची दी गयी, जिन्हें शुरू करने में कॉरपोरेशनों को पर्यावरण संबंधी नियमों से कई प्रकार की छूट का प्रस्ताव था। साथ ही, इसमें यह भी प्रस्ताव किया गया कि "भारत के सीमावर्ती देशों के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा से 100 किलोमीटर हवाई दूरी के भीतर गिरने वाले क्षेत्र" में किसी प्रकार की परियोजना शुरू करने के लिए पर्यावरण संबंधी नियम लागू नहीं होंगे। इस मसौदे का अर्थ यह था कि देश के अन्य सीमावर्ती हिस्सों के अतिरिक्त पूर्वोत्तर भारत के सभी सात राज्यों (मिज़ोरम, नागालैंड,अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा और असम) में ये नियम लागू नहीं होंगे, क्योंकि यह पूरा इलाक़ा ही सीमा से लगभग 100 किलोमीटर की हवाई दूरी पर स्थित है। ये राज्य भारत के उन कुछ इलाक़ों में हैं, जो अभी भी बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों से भरा-पूरा तथा समृद्ध जैव-विविधता वाला है। नियमों के अनुसार, सरकार ने इस प्रस्ताव पर जनता से अपना सुझाव 60 दिन के अंदर, यानी 11 जून तक देने के लिए कहा है।
भारत में इस प्रकार के प्रस्तावों को सामान्यत: खानापूर्ति की तरह लिया जाता है। अगर कोई नया नियम जाति, धर्म अथवा किसी विशिष्ट समूह के सीधे हित से जुड़ा होता है तो उस समूह में सक्रिय कुछ संस्थाएँ अपने सुझाव अथवा आपत्तियाँ दर्ज करवाने सामने आती हैं। लेकिन सार्वजनिक-सरोकारों के नीतिगत मामलों के बारे में न तो व्यापक समझ विकसित हो सकी है, न ही इन्हें कोई अपने जीवन-मरण के प्रश्न की तरह लेता है। इस तरह के मामलों में ग़ैर-सरकारी संगठन कुछ पहल अवश्य करते हैं, लेकिन जैसा कि पहले कहा गया, उनकी कोशिशें दिखावटी और नख-दंत विहीन होती हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य तस्वीरें खिंचवाना और देशी-विदेशी अनुदान प्राप्त करना होता है। उन्हें शायद ही कभी कोई उल्लेखनीय जन-समर्थन हासिल हो पाता है। सरकारें भी इस कमज़ोरी को समझती हैं।
लेकिन पिछले साल मार्च के अंत में जारी "पर्यावरण प्रभाव आकलन, 2020" के ड्राफ्ट पर सुझाव और आपत्तियाँ माँगे जाने के कुछ समय बाद कुछ ऐसा हुआ जिससे सरकार हतप्रभ रह गयी।
कुछ समय तक तो इक्का-दुक्का ग़ैर-सरकारी संगठनों के खानापूर्ति वाले सुझाव, आपत्तियाँ आती रहीं, लेकिन एक महीना बीतते-बीतते पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को रोज़ हजारों की संख्या में ईमेल आने लगे, जिनमें प्रारूप को रद्द करने अथवा इस पर सुझाव देने की समय-सीमा बढ़ाए जाने की माँग की जा रही थी। ईमेल करने वालों का तर्क था कि लॉकाडाउन के कारण अनेक लोग अपनी आपत्तियाँ दर्ज नहीं करवा पाएँगे। ये ईमेल देश के विभिन्न हिस्सों से आ रहे थे। दक्षिण भारत के तटवर्ती राज्यों से लेकर, मध्य हिमालय के प्रदेशों से तथा पूर्वोत्तर के सुदूर जंगलों से भी। ईमेल करने वालों में युवा वकील, विभिन्न कॉलेज-यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी, पूर्वोत्तर भारत के विद्यार्थी-संगठन, राजनेता-समाज-संस्कृतिकर्मी आदि शामिल थे।
इस सबका असर कितना था, इसकी बानगी के रूप में ख़ुद पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की विज्ञान संबंधी नीति विषयक प्रभाग के निदेशक डॉ शरथ कुमार पलेरला द्वारा की गयी टिप्पणी को देखा जा सकता है। शरथ पलेरला ने इस विषय पर आए ईमेलों का जिक्र करते हुए मंत्रालय को लिखा कि :
"वैश्विक आर्थिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल के बीच मंत्रालय ने जनता द्वारा टिप्पणी प्राप्त करने के लिए ड्राफ्ट नोटिफिकेशन जारी किया है। यह क़दम हमें आपकी प्राथमिकताओं को लेकर काफी चिन्तित करता है। जब यह नोटिफिकेशन जारी किया गया था तब अमेरिका, यूरोप और भारत पहले से ही आर्थिक सुस्ती और सार्वजनिक तंत्र पर पड़ रहे भारी दबाव जैसी चिन्ताजनक स्थिति का सामना कर रहे थे। इसके बाद भारत समेत कई देश लॉकडाउन में चले गये, जिसके कारण कठोर प्रतिबंध लगाए गये और सार्वजनिक स्थानों पर लोगों की आवाजाही पर रोक लगा दी गयी।
आज भी कई सारे कार्यालय बंद हैं और लोग अपने घरों से काम कर रहे हैं। ये प्रतिबंध अनिश्चित समय के लिए हो सकते हैं और यह स्पष्ट नहीं है कि कब से सामान्य जनजीवन पटरी पर लौट पाएगा। वैश्विक महामारी के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का अभी तक आकलन नहीं किया जा सका है। इस समय शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग सिर्फ़ भोजन, रोज़गार, आय और मानसिक एवं भौतिक स्वास्थ्य से जूझ रहे हैं। जैसा कि आपने शायद ये महसूस किया होगा कि लॉकडाउन के दौरान विभिन्न गतिविधियाँ बंद करने के कारण कई बड़े शहरों की वायु गुणवत्ता में सुधार आया है और नदियाँ पहले की तुलना में साफ़ और निर्बाध बह रही हैं।
यह दर्शाता है कि रासायनिक ज़हर से हमारी हवा और पानी को बचाने के नाम पर औद्योगिक और मानवीय क्रियाकलापों को रेगुलेट करने के लिए आपके द्वारा स्थापित सिस्टम फेल हुआ है। ख़बरों से हमें ये भी पता चलता है कि मंत्रालय अभी भी ज़्यादा खनन, ज़्यादा उद्योगों, बड़े निर्माण कार्यों और अधिक हाइवे बनाने की मंज़ूरी दे रहा है। यह सब हमारे जंगलों को बर्बाद कर देगा, जल संसाधनों को प्रदूषित करेगा, ज़्यादा भूमि, सार्वजनिक स्थानों और तटीय क्षेत्रों का अधिग्रहण होगा। आप (अभी मौजूद) पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना और अन्य पर्यावरण क़ानूनों का इस्तेमाल कर ये सब कर रहे हैं। फिर भी कई प्रभावित लोगों के लिए पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना एकमात्र ज़रिया है जो यह सुनिश्चित करता है कि प्रोजेक्ट डेवलपर परियोजना के डिज़ाइन और इससे पड़ने वाले प्रभावों का खुलासा करें और इसके चलते इन्हें परियोजना से पड़ने वाले प्रभाव को कम करना होता है और सभी क़ानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना पड़ता है।
लेकिन अब आप पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना में ऐसे समय में प्रतिगामी बदलाव कर रहे हैं जब हम आपके द्वारा माँगी गयी सार्वजनिक टिप्पणी पर अपनी राय नहीं दे सकते हैं। क्या यह लोकतांत्रिक है? क्या यह सही है? क्या यह मानवीय भी है कि जब हम कोरोना वायरस से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं, लॉकडाउन के दौरान लाखों लोग पीड़ित हैं और इस दौरान हमें हमारे पर्यावरणीय भविष्य को लेकर और चिन्तित किया जाए? हम जनहित में माँग करते हैं कि पर्यावरण मंत्रालय तत्काल प्रभाव से ड्राफ्ट पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 को वापस ले।"
'द वायर (हिन्दी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बड़े अधिकारियों ने भी प्रस्ताव रखा था कि लोगों के विरोध तथा कोविड-19 महामारी को ध्यान में रखते हुए मसौदे पर लोगों की टिप्पणियाँ प्राप्त करने की समय सीमा को बढ़ाकर 10 अगस्त, 2020 कर दी जाए।
लेकिन अधिसूचना, 2020 के मसौदे को वापस लेना तो दूर, विभाग के मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बिना कारण बताए एकतरफ़ फ़ैसला लेते हुए आपत्तियाँ दर्ज करवाने की समय-सीमा को जनता की माँग के अनुरूप करने के विचार को भी खारिज कर दिया और टिप्पणी भेजने की आख़िरी तारीख़ 30 जून 2020 निर्धारित कर दी तथा नयी तिथि के बारे में प्रेस को सूचना दे दी गयी।
संभवत: प्रकाश जावड़ेकर ने सोचा होगा कि कम समय देने से अधिक आपत्तियाँ नहीं आएँगी लेकिन हुआ उसका उल्टा। आपत्तियों की रफ़्तार और तेज़ हो गयी। रोज़ दसियों हज़ार ईमेल आने लगे। इसी बीच यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट भी पहुँच गया, जहाँ पर्यावरण-कार्यकर्ता विक्रांत तोंगड़ ने एक याचिका दायर कर इस समय सीमा को कम से कम सितंबर तक या फिर कोविड महामारी से संबंधित प्रतिबंधों के ख़त्म होने तक बढ़ाने की माँग की। कोर्ट ने इस समय-सीमा को बढ़ाकर 11 अगस्त कर दिया तथा सरकार के प्रतिकूल टिप्पणियाँ कीं। इससे सरकार को कड़ा झटका लगा।
11 अगस्त को समय सीमा के ख़त्म होने तक 17 लाख लोग अपनी आपत्तियाँ दर्ज करवा चुके थे, तथा ईमेलों का आना जारी था। यह एक ऐसा रिकॉर्ड था, जिसकी मिसाल भारत में बने बहुत कम क़ानूनों के मामले में मिलेगी। उनमें तो बिल्कुल नहीं, जो जाति और धर्म से इतर मामलों के हों।
इनमें से अधिकांश ईमेलों के पीछे दिशा रवि और उनके साथियों का दिमाग, तकनीकी कौशल और मेहनत थी, जिन्होंने ऑनलाइन संपर्क अभियान चलाकर इसका विरोध करने की अपील की थी। उन्होंने इसके लिए भी 'टूल किट' तैयार किया था, जिसमें उपरोक्त मसौदे के दुष्परिणामों को बिन्दुवार समझाया गया था तथा रणनीतियों का ज़िक्र किया गया था।
इसी कैम्पेन का असर सरकार के लिए काम कर रहे अनेक आला-अधिकारियों, वैज्ञानिकों आदि पर भी पड़ रहा था।
साथ ही, चूँकि इसे ग्रेटा थनबर्ग जैसी विश्वप्रसिद्ध बाला का समर्थन प्राप्त था, इसलिए वैश्विक-स्तर पर भी इसकी चर्चा हो रही थी। दुनिया भर के पर्यावरणविद्, मानवाधिकार कार्यकर्ता इस पर अपनी चिन्ताएँ ज़ाहिर कर रहे थे। इस मसौदे के क़ानून बन जाने पर भारत के आदिवासियों पर इसका क्या असर होगा, कितने अतिरिक्त लोग इसके कारण संभावित प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन से मारे जाएँगे, इन सबके बारे में अनेकानेक शोध-पत्र प्रकाशित हो रहे थे, जिससे वैश्विक-जमात के बीच भारत की मौजूदा सरकार की नाक कट रही थी।
परिणामस्वरूप, भारत सरकार ने दिशा रवि के संगठन ('फ्राइडे फॉर फ्यूचर' के भारत चैप्टर) समेत इस मुहिम का प्रचार कर रहे कुछ अन्य स्वयंसेवी संगठनों की वेबसाइट को ब्लॉक कर दिया तथा उन्हें ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) के तहत नोटिस भेजा । इस अधिनियम के तहत देशद्रोह, आतंकवाद आदि से संबंधित मामलों में कार्रवाई की जाती है। बाद में सरकार ने इसे अपनी भूल कहा तथा दिशा रवि समेत इन सभी संगठनों को सूचना प्रौद्योगिकी कानून (IT Act) की धाराओं में नोटिस भेजा। विदेशी मीडिया में इसकी काफी आलोचना हुई और इसे लोकतंत्र के लिए आवश्यक मतभिन्नता की आज़ादी पर हमले और भारत सरकार की जन-विरोधी कार्रवाई के रूप में देखा जाने लगा। बाद में सरकार ने आईटी एक्ट का नोटिस भी वापस ले लिया। लेकिन उनकी वेबसाइटें ब्लॉक ही रहीं।
दिशा रवि और ग्रेटा थनबर्ग के इस मुहिम का संज्ञान संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी लिया। मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त (UN High Commissioner for Human Rights Office) कार्यालय के विशेष दूत (Special Rapporteur) ने इस पर्यावरण-मसौदे के लिए भारत की कड़ी आलोचना की तथा भारत सरकार के सामने आधिकारिक रूप से अपनी चिन्ताएँ रखीं। दिशा रवि की गिरफ़तारी में भारत सरकार जिसे भारत को बदनाम करने की वैश्विक साज़िश' कह रही है, वह यही थी। इस तथाकथित 'वैश्विक साज़िश' का अर्थ है- कॉरपोरेशनों के हितों के ख़िलाफ़ वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित संस्थाओं और व्यक्तियों को भड़काना।
भारत सरकार ने 3 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र के दूत के आरोपों का खंडन करते हुए एक कार्यालय ज्ञापन जारी किया तथा उसे अख़बारों में प्रकाशित करवाया। लेकिन, पर्यावरण-कार्यकर्ताओं की इस युवा टोली ने इस खंडन का भी पर्दाफ़ाश कर दिया और सिलसिलेवार बताया कि सरकार अधिकांश मामले में झूठ बोल रही है तथा इसके मंत्री ने इस बारे में संसद को भी गुमराह किया है। इन कार्यकर्ताओं ने लोगों को बताया कि किस प्रकार संयुक्त राष्ट्र के दूत के आलोचना पत्र के जवाब में सरकार द्वारा जारी कार्यालय ज्ञापन, बेशर्मी से दावा करता है कि कोई बड़ा उद्योग पूर्व पर्यावरणीय मंज़ूरी से मुक्त नहीं किया गया है, जबकि मसौदे में इन्हें मुक्त किए जाने का साफ़ उल्लेख है।
बड़े भारतीय मीडिया-समूह इस प्रकार के जटिल नीतिगत मुद्दों पर बहुत कम सामग्री प्रकाशित करते हैं, क्योंकि इनमें बहुत कम लोगों की दिलचस्पी होती है। लेकिन न्यूज़ क्लिक नामक हिन्दी व अँग्रेज़ी वेबसाइट ने इस बीच इससे संबंधित बारीकियाँ बताने वाली रिपोर्ट, लेख आदि निरंतर प्रकाशित किये। न्यूज़ क्लिक समेत इन विषयों पर सामग्री के एक नियमित पाठक की हैसियत से मैं यह कह सकता हूँ कि इसने पर्यावरण संबंधी उपरोक्त प्रावधानों की पर सबसे अच्छी रिपोर्टिंग की है। योग्य संपादकों और लेखकों के अतिरिक्त इसका एक कारण संभवत: यह था कि इस न्यूज़ वेबसाइट के मालिक और मुख्य कर्ताधर्ता प्रबीर पुरकायस्थ ख़ुद एक वैज्ञानिक तथा विज्ञान-संबंधी मामलों पर सक्रिय रहने वाले कार्यकर्ता हैं जो इस प्रकार के तकनीकी विषयों पर काम करने वाले ग़ैर-सरकारी संगठनों की अनेक गतिविधियों में शामिल रहते हैं।
हालाँकि इस वेबसाइट को पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2020 का मसौदा आने से पहले से ही भारत की मौजूदा सरकार की जन-विरोधी नीतियों का विरोध के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन कम लोगों ने इस पर ध्यान दिया कि दिशा रवि की गिरफ़्तारी के ठीक पहले 9 और 10 फरवरी को भारत सरकार के प्रवर्तन निदेशालय ने इसके दफ़्तर, मालिक व संपादकों के घरों पर छापा मारा तथा मनी-लांड्रिंग समेत कई धाराओं में मुक़दमे दर्ज किये।
दर-अस्ल, ये सभी कार्रवाइयाँ उन ठिकानों पर किए गये हमले हैं, जहाँ से लॉकडाउन के पर्दे के पीछे से कॉरपोरेशनों को लाभ पहुँचाने की सरकारी क़वायद के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिशें की जा रही हैं। हम सब जानते हैं कि पिछले दिनों भारत की लोकसभा में जो कृषि संबंधी तीन बिल पास हुए हैं, उनका भी मुख्य उद्देश्य कॉरपोरेशनों को फ़ायदा पहुँचाना व उनकी दूरगामी नीतियों का पोषण करना ही है, जिसके विरोध में पंजाब के भू-स्वामी उठ खड़े हुए हैं। जागरूकता की कमी के कारण इस आन्दोलन से अन्य राज्यों के छोटे किसान, मज़दूर, अन्य निम्न और मध्यम वर्गीय तबके़ इससे अभी दूर ही हैं। मुश्किल से इन्हें हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक सामाजिक तबके़ का साथ मिल पा रहा है। कृषि बिल के दूरगामी प्रभावों से प्रभावित होने वाले विभिन्न तबक़ों के बीच इस आंदोलन से होने वाले साझा लाभों का कोई पुल नहीं निर्मित हो सका है तथा इनके बीच गुपचुप तरीक़े से न सिर्फ़ हितों का संघर्ष चल रहा है बल्कि अन्य तबक़ों में कृषि की बेहतर व्यवस्था से संपन्न हुए भू-स्वामियों के प्रति जलन और उनके हितों के प्रति अवहेलना का भाव भी है।
दिशा रवि जैसी युवा कार्यकर्ता में वह कौशल है जिसके बूते वे इस प्रकार के गतिरोध को तोड़ पाने में सफल हो सकती हैं। कॉरपोरेशन उनकी इसी क्षमता से भयभीत हैं, और सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि उस 'टूल किट' में कुछ भी नहीं रखा है। असली चीज़ वह संभावना है जो जाति-धर्म के लबादे को फेंक चुकी टेक्नो-सेवी, नागरिक सुविधाओं, नागरिक-अधिकारों और व्यक्तिगत आज़ादी के प्रति सचेत नयी पीढ़ी की राजनीति को भी जन्म दे सकती है।
[प्रमोद रंजन की दिलचस्पी संचार माध्यमों की कार्यशैली के अध्ययन, ज्ञान के दर्शन और संस्कृति, समाज व साहित्य के उपेक्षित पक्षों के अध्ययन में रही है। वे असम विश्वविद्यालय के रवीन्द्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज़ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं।]