भारत में भूखी-बेरोजगार जनता के प्रतिनिधि सांसदों की औसत संपत्ति 38.33 करोड़ और 7 प्रतिशत से ज्यादा हैं अरबपति

हमारे देश की राज्यसभा तो पूंजीपतियों का अड्डा है, यहाँ हरेक सांसद की औसत संपत्ति 79.54 करोड़ रुपये है, मगर फिर भी हरेक करोड़पति और अरबपति सांसद जनता को अपनी गरीबी के किस्से जरूर सुनाता है...

Update: 2024-03-02 13:11 GMT

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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Our MPs are ultra-rich, they would not understand the problems of common people. हाल में ही नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) ने हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्स्पेंडीचर सर्वे के माध्यम से बताया है कि वर्ष 2022-2023 में औसत ग्रामीण व्यक्ति ने प्रति महीने 3773 रुपये और औसत शहरी नागरिक ने 6459 रुपये प्रति महीने खर्च किया। इस राशि को आप आबादी की औसत आमदनी भी मान सकते हैं।

इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों में लोगों की आमदनी ग्रामीण क्षेत्रों के आबादी की तुलना में 1.7 गुना अधिक है। इसके बाद नीति आयोग के सीईओ ने वक्तव्य दिया कि इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि देश की आबादी समृद्धि की तरफ बढ़ रही है। वैसे भी सरकार ने अर्थव्यवस्था को जीडीपी में 7.5 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि और 5 खरब डॉलर वाली अर्थव्यवस्था के झांसों में समेट दिया है। देश की भूखी और बेरोजगार आबादी भी 5 ख़रब डॉलर और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के नशे में मदमस्त है।

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नीति आयोग के सीईओ को यदि ऐसे आंकड़ों में समृद्धि नजर आती है, तब उन्हें कुछ महीने 6459 रुपये प्रति महीने के वेतन पर काम करके देखना चाहिए और समृद्धि का अहसास करना चाहिए। दरअसल सत्ता पर, राजनीति पर और सत्ता से जुड़े संस्थानों पर पूंजीवाद का कब्ज़ा है, जिसके लिए सामान्य आदमी का सांस लेना और मुफ्त के मुट्ठीभर अनाज पर गुजारा ही विकास है। एक तरफ तो सत्ता और संसद में पहुँचने का रास्ता ही पूंजीवाद से होकर जाता है, तो दूसरी तरफ हमारे सांसद स्वयं पूंजीपति हैं, उन्हें सामान्य जनता की समस्याओं की कोई जानकारी नहीं है। स्कूलों में पढ़ाया जाता है कि सांसद जनता के प्रतिनिधि होते हैं, नीति आयोग को यह सुझाव तो देना ही चाहिए कि जनता के प्रतिनिधियों का भी वेतन उतना ही होना चाहिए जितना आम जनता का है।

एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने सितम्बर 2023 में एक रिपोर्ट प्रकाशित कर बताया था कि हमारे देश के सांसदों (लोकसभा और राज्यसभा) में प्रत्येक की औसत संपत्ति 38.33 करोड़ रुपये है और इनमें से 7 प्रतिशत से अधिक सांसद अरबपति हैं। लोकसभा के सदस्यों की औसत संपत्ति का मूल्य 20.47 करोड़ रुपये है। हमारे देश की राज्यसभा तो पूंजीपतियों का अड्डा है, यहाँ हरेक सांसद की औसत संपत्ति 79.54 करोड़ रुपये है। हरेक करोड़पति और अरबपति सांसद जनता को अपनी गरीबी के किस्से सुनाता है। यही नहीं, देश के किसानों की आमदनी सामान्य जनता से भी कम है और अरबपति सांसद अपने आप को किसान या किसान का बेटा ही बताता है।

एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार देश के 40 प्रतिशत से अधिक सांसदों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं और 25 प्रतिशत पर संगीन आपराधिक मामले हैं। आपराधिक छवि वाले सांसद तो सामान्य सांसदों से भी अधिक अमीर हैं। एक स्वच्छ छवि वाले सांसद की औसत संपत्ति 30.50 करोड़ रुपये है, पर आपराधिक छवि वाले सांसदों की औसत संपत्ति 50.03 करोड़ रुपये है।

जाहिर है कि सत्ता में बैठे लोग पूंजीपति हैं और पूंजीपतियों के हित के लिए काम करते हैं। पूंजीवाद ने तो अब विकास परियोजनाओं को भी सौगात घोषित कर दिया है और गरीबों को मुफ्त अनाज देकर विकसित भारत का नारा दिया है। प्रधानमंत्री जी हवा में हाथ लहराते हुए हरेक मंच से “आयुष्मान भारत” से गरीबों के मुफ्त इलाज की बात करते हैं।

एनएसएसओ की फैक्टशीट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में जनता महीने में होने वाले कुल खर्च का 7.13 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 5.91 प्रतिशत खर्च दवाओं और स्वास्थ्य सेवाओं पर करती है। देश के अधिकतर गरीब ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मुफ्त इलाज का ख़्वाब दिखा रहे हैं, फिर वे कौन से लोग है जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहने के बाद भी एक शहरी से अधिक खर्च दवाओं और स्वास्थ्य सुविधाओं पर कर रहे हैं?

प्रधानमंत्री जी उज्ज्वला योजना का भी खूब बखान करते हैं, पर एनएसएसओ का सर्वेक्षण इसकी भी विफलता बयां करता है। शहरी आबादी इंधन पर अपनी मासिक खर्चे का 6.26 प्रतिशत खर्च करती है, जबकि उज्ज्वला योजना के तमाम दावों के बीच ग्रामीण आबादी के लिए यह प्रतिशत 6.66 है। यही हाल मुफ्त अनाज और दाल के सरकारी दावों का भी है, ग्रामीण आबादी इस पर शहरी आबादी से अधिक खर्च करती है।

इस सर्वेक्षण के आंकड़े सत्ता की नाकामयाबी का बहुत कुछ बखान करते हैं। संभवतः इस रिपोर्ट की बारीकियों का अध्ययन सत्ता ने किया ही नहीं है, बल्कि केवल यह देखा है कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी है। बारीकी से सत्ता ने इसे देखा होता तो निश्चित तौर पर इस रिपोर्ट का हश्र वही होता, जैसा वर्ष 2017-2018 में हुआ था, जब सरकार ने अपनी ही रिपोर्ट को यह कहते हुए नकार दिया था कि इसके आंकड़े ठीक नहीं हैं।

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