मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या मामले में 25 देशों की सूची में भारत 10वें नंबर पर, पाकिस्तान से भी बदतर हैं हालात
मोदी सरकार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कुचलने के लिए साइबर क्राइम, आतंकवाद विरोधी क़ानून और अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट का व्यापक इस्तेमाल कर रही है....
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। भारत समेत दुनिया में इस दौर में पूंजीपतियों की बैसाखी के सहारे खडी दक्षिणपंथी और सत्ता-भोगी सरकारों का वर्चस्व है। जाहिर है, ऐसी सरकारों के लिए लोकतंत्र, पर्यावरण-संरक्षण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार जैसे मुद्दों के कोई मायने नहीं हैं। हाल में ही फ्रंटलाइन डिफेंडर्स नामक संस्था द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट, "ग्लोबल एनालिसिस 2020" के अनुसार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले में भारत दुनिया में 10वें स्थान पर है और इस सन्दर्भ में देश की स्थिति चीन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो, लीबिया, पाकिस्तान और सीरिया से भी बदतर है।
इस रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष, यानि 2020 में दुनिया के कुल 25 देशों में 331 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ह्त्या की गई, जबकि वर्ष 2019 में 31 देशों में 304 कार्यकर्ताओं की हत्या की गई थी। वर्ष 2020 के 25 देशों में भारत भी शामिल है। यही नहीं बल्कि रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि दुनिया के बहुत सारे देशों में इन कार्यकर्ताओं को पीटा जा रहा है, बेवजह हिरासत में लिया जा रहा है और उन पर बिना किसी सबूत के आपराधिक मुकदमे चलाये जा रहे हैं।
ऐसे देशों की चर्चा में भारत और चीन का विशेष उल्लेख है। मानवाधिकार कार्यकर्ता सामाजिक न्याय, पर्यावरणीय मुद्दों, नस्लभेद और लैंगिक समानता के क्षेत्र में काम कर रहे हैं, पर दुनियाभर में की गई कुल हत्याओं में से 69 प्रतिशत का सरोकार पर्यावरण संरक्षण, जमीन से जुड़े मसलों और आदिवासियों के अधिकारों से था। कुल 331 हत्याओं में से लगभग तीन-चौथाई दक्षिण अमेरिकी देशों में की गई हैं।
रिपोर्ट के अनुसार ऐसी सबसे अधिक 177 हत्याएं अकेले कोलंबिया में की गई हैं। इसके बाद क्रमवार स्थान पर फिलीपींस (25), होंडुरास (20), मेक्सिको (19), अफ़ग़ानिस्तान (17), ब्राज़ील (16), ग्वाटेमाला (15), इराक (8), पेरू (8), भारत (6), चिली (4), इंडोनेशिया (2) और निकारागुआ (2) का है। बोलीविया, कनाडा, चीन, कोस्टा रिका, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक कांगो, लीबिया, नेपाल, पाकिस्तान, साउथ अफ्रीका, स्वीडन, सीरिया और थाईलैंड में से प्रत्येक देश में ऐसी एक-एक हत्याएं की गई हैं।
मारे गए कुल मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में से 13 प्रतिशत महिलायें हैं, जबकि 28 प्रतिशत हत्याएं लैंगिक समानता के लिए आवाज उठाने वालों की की गई है। मारे गए कुल कार्यकर्ताओं में से 6 ट्रांसजेंडर हैं। दुनिया में आदिवासियों और वनवासियों की संख्या कुल आबादी का महज 6 प्रतिशत है, पर मारे गए कुल 331 कार्यकर्ताओं में से लगभग 33 प्रतिशत कार्यकर्ता इसी वर्ग के हैं।
वर्ष 2020 में 20 मानवाधिकार कार्यकर्ता ऐसे थे जो अपने देशों में फैले भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे। रिपोर्ट के अनुसार कोलंबिया, अफ़ग़ानिस्तान और पेरू जैसे देशों में ऐसी हत्याएं साल-दर-साल बढ़ती जा रही हैं।
इस रिपोर्ट की खासियत यह है कि इसमें मारे गए कुल 331 व्यक्तियों की सूची भी प्रस्तुत की गई है। भारत में बिहार के आरटीआई एक्टिविस्ट पंकज कुमार, ओडिशा के आरटीआई एक्टिविस्ट रंजन कुमार दास, उत्तर प्रदेश के पत्रकार शुभम मणि त्रिपाठी और पत्रकार राजेश सिंह निर्भीक, कश्मीर के वकील और एक्टिविस्ट बाबर कादरी और गुजरात के अल्पसंख्यक मामलों के वकील और एक्टिविस्ट देवजी माहेश्वरी के नाम सम्मिलित हैं। जितने भी प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता इस दौर में देश की विभिन्न जेलों में कैद किये गए है, लगभग सभी के नाम रिपोर्ट में उपलब्ध हैं।
इस रिपोर्ट में चीन में उइगर मुस्लिम आबादी पर किये जाने वाले जुल्म का विस्तृत उल्लेख है। भारत के सन्दर्भ में नागरिकता संशोधन क़ानून के विरोध करने वालों कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से प्रताड़ित करने और जेल में बंद करने की बात कही गई है।
कोविड 19 के दौर में भी बहुत सारे बुजुर्ग मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आवश्यकता से अधिक भरी जेलों में बिना किसी सुरक्षा के बंद कर दिया गया। इसमें 80 वर्षीय वरवर राव का नाम भी बताया गया है जिन्हें जेल के भीतर ही कोविड 19 का सामना करना पड़ा। मानवाधिकार पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगुलेशन एक्ट के अनुपालन का हवाला देकर बार-बार चुप कराने की साजिश की जाती है।
यही नहीं सरकार ने देश में मानवाधिकार हनन पर उठाते अंतरराष्ट्रीय संगठनों की आवाजों को भी दबाने का प्रयास किया है। पिछले वर्ष जब यह तय हो गया कि यूरोपियन पार्लियामेंट भारत में मानवाधिकार हनन से सम्बंधित प्रस्ताव को पारित करने वाली है, तब भारत सरकार ने अपनी कूटनीति के तहत इसे पारित नहीं करने दिया।
भारत की मोदी सरकार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कुचलने के लिए साइबर क्राइम, आतंकवाद विरोधी क़ानून और अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट का व्यापक इस्तेमाल कर रही है। सबसे दुखद तो यह है कि भारत सरकार और विभिन्न राज्यों की सरकारें आज भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का दमन कर रही हैं और अंतरराष्ट्रीय आवाजों को खारिज कर रही हैं।
वर्ष 2021 की शुरुआत से ही भारत सरकार की भाषा, मंशा और गतिविधियों से यह स्पष्ट हो चुका है कि देश में मानवाधिकार हनन बदस्तूर चलता रहेगा, आखिरकार सत्ता का यही अजेंडा है और सरकार का वजूद इसी पर टिका है।