जोशीमठ त्रासदी : सिर्फ नदी के पानी और उसके उफान को क्यों ठहराया जा रहा जिम्मेदार
तबाही का मंजर देखने की बाद और मलबे में दफन मजदूरों की सुरंग के मुहाने पर खड़े होकर भी अगर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री को चिंता परियोजना की ही हो रही है तो समझा जा सकता है कि पक्षधरता किस ओर है....
पहाड़ में आई भयानक तबाही के बाद वहां का आंखों देखा हाल बता रहे हैं सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्द्रेश मैखुरी
ऋषिगंगा अपेक्षाकृत छोटी नदी है जो रैणी में धौलीगंगा में मिल जाती है। धौलीगंगा विष्णुप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है, लेकिन इस छोटी ऋषिगंगा में उठे जलजले के निशान रैणी से लेकर तपोवन तक घटना के एक दिन बाद भी देखे जा सकते हैं। पूरी अलकनंदा की धारा में जो कलुषिता दिखाई दे रही है, वह भी घटना की भयावहता को बयान कर रही है।
घटना के दूसरे दिन ऋषिगंगा और धौलीगंगा में पानी बेहद कम है। इतना कम कि यदि सिर्फ नदी में पानी की धार को देखें, उसमें मलबे के कालेपन को दिमाग से उतार दें तो अंदाज़ भी नहीं लगा सकते कि यही पानी है, जिसने एक जलविद्युत परियोजना का नामोनिशान मिटा दिया। एक निर्माणाधीन परियोजना को उजड़ी हुई अवस्था में तब्दील कर दिया, पुलों को बहा दिया। एक बड़े इलाके के लोगों का शेष भारत से संपर्क ही काट दिया और इन सबसे भी अधिक त्रासद, सरकारी आंकड़े में बहुत रोक कर भी जो संख्या 200 हो गयी है, इतने लोगों के प्राण हर लिए।
तपोवन में निर्माणाधीन 530 मेगावाट की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग में भरा हुए मलबा भी, अब मामूली धार में बह रहे पानी की घटना के वक्त के रौद्र रूप की हृदयविदारक गवाही दे रहा है। यह सुरंग नदी तल से काफी ऊपर है। नदी के पानी के साथ आया मलबा लगभग पूरा मोड़ काटकर इस सुरंग के अंदर घुसा है और लगभग 500 मीटर लंबी इस सुरंग को पूरी तरह मलबे ने पाट दिया।
इस सुरंग के भीतर लगभग 50 मजदूर काम कर रहे थे, जब मलबे ने सुरंग को पूरी तरह भर दिया। 500 मीटर लंबी सुरंग में दूसरे दिन तक केवल 100 मीटर ही मलबा साफ किया जा सका। 24 घंटे से अधिक समय तक (इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वह अवधि 48 घंटे होने को है) उस मलबे के लंबे-चौड़े ढेर के बीच फंसे हुए मजदूरों की क्या हालत हुई होगी या हो रही होगी, यह सोचना ही आपको सिहरन या अवसाद से भर देता है।
सुरंग की सफाई में लगे एनडीआरएफ़, आईटीबीपी आदि के सुरक्षाकर्मियों को टकटकी लगा कर लोग देख रहे हैं। जिनको अपने के साथ अनहोनी की सूचना मिल चुकी, उनमें से एक को सड़क पर ही बिलखते हुई देखना दुख और असहाय होने का भाव पैदा करता है।
एक छोटी नदी के मामूली दिखने वाली पानी की धार ने ऐसा भयावह मंजर कैसे पैदा किया? नदी है तो उसमें पानी घटेगा-बढ़ेगा, लेकिन उसका वेग इतना मारक कैसे हुआ? क्या नदी तटों से कई फीट ऊपर तक बिखरे हुए मलबे के लिए सिर्फ नदी के पानी और उसके उफान को जिम्मेदार ठहरा कर इतिश्री कर ली जानी चाहिए?
तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की बैराज साइट पर जहां मजदूर सुरंग मलबे के ढेर में दबे हैं, वहां जगह-जगह सुरक्षा को लेकर बोर्ड लगे हुए हैं, लेकिन सुरक्षा का कोई इंतजाम या पूर्व चेतावनी का कोई तंत्र (अरली वार्निंग सिस्टम) अस्तित्व में रहा हो, ऐसे कोई चिन्ह नजर नहीं आते।
सुरक्षा संबंधी बोर्डों की इफ़रात है, पर बोर्ड न सुरक्षा कर सकते हैं और न खतरे की चेतावनी दे सकते हैं!
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का ट्वीट है, जिसमें उन्होंने कल अपने जोशीमठ प्रवास की बात के साथ "हादसे को विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा का कारण" न बनाने की अपील की है।
तबाही का मंजर देखने की बाद और मलबे में दफन मजदूरों की सुरंग के मुहाने पर खड़े होकर भी अगर चिंता परियोजना की ही हो रही है तो समझा जा सकता है कि पक्षधरता किस ओर है!
विकास की कैसी मार है,वह जोशीमठ क्षेत्र में प्रस्तावित और बन रही परियोजना की एक संक्षिप्त सूची से समझिए। मलारी-जेलम, जेलम-तमक, मरकुड़ा-लाता, लाता-तपोवन, तपोवन- विष्णुगाड़, विष्णुगाड़-पीपलकोटी आदि। यानी जिस विकास के खिलाफ प्रोपेगैंडा न करने की बात मुख्यमंत्री कह रहे हैं, वह विकास हो जाये तो यहां हर कदम पर जलविद्युत परियोजना होगी। एक परियोजना का पावर हाउस जहां है,वहां दूसरी परियोजना की बैराज साइट शुरू हो रही है।
जिस परियोजना की साइट में मजदूरों के फंसे होने के चलते मुख्यमंत्री ने जोशीमठ में रात्रि प्रवास किया,उस तपोवन विष्णुगाड़ परियोजना का एक किस्सा सुनिए और विकास की इस मार को समझिए। 2003-04 से इस परियोजना के खिलाफ जोशीमठ में भाकपा (माले) के राज्य कमेटी सदस्य कॉमरेड अतुल सती के साथ आंदोलन में काफी अरसे तक शामिल रहने के चलते, इस परियोजना के संदर्भ में बहुत सारी जानकारी है, जिसे मैं क्रमबद्ध तरीके से साझा करूंगा, लेकिन फिलहाल यह शुरुआती किस्से देखिये।
एनटीपीसी द्वारा बनाई जा रही तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की डीपीआर में उल्लेख था कि भूगर्भ वैज्ञानिकों ने सलाह दी कि जिस स्थल पर बैराज प्रस्तावित है (जिसके अब ध्वंसावशेष खड़े हैं),उसे वहाँ नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि वहां (जहां सुरंग बनेगी) गर्म पानी के सोते (हॉट वॉटर स्प्रिंग्स) होने की संभावना है। फिर डीपीआर में पूरी गणित के साथ समझाया गया था कि उस स्थान पर बैराज न बनाने से कितना आर्थिक नुकसान होगा, लिहाजा कंपनी बैराज वहीं बनाएगी। इससे आप समझ सकते हैं कि वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग करते हुए भी इन परियोजनाओं में वैज्ञानिक राय को मुनाफे के लिए किनारे धकेलने की प्रबल प्रवृत्ति है।
विकास सबको चाहिए, बिजली भी चाहिए पर सवाल है- किस कीमत पर? विज्ञान से हासिल क्षमताओं का अवैज्ञानिक उपयोग करके आक्रांता की तरह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाएगा तो प्रकृति की मार तो झेलनी ही पड़ेगी। उस मार से गाफिल 'विकास' का जाप करना उन्हीं के लिए आसान है, जो जानते हैं कि प्रकृति जब पलटवार कर रही है तो उस घातक प्रहार से वे कोसों दूर अपनी सुरक्षित खोहों में है।
(इंद्रेश मैखुरी की यह रिपोर्ट पहले नुक्ता-ए-नज़र में प्रकाशित।)