सत्ता समर्थक होना सामान्य, मगर अंधभक्त होना मनोवैज्ञानिक विकार, आने वाले सालों में हम सभी हो जायेंगे मानसिक रोगी

देश की सामान्य अंधभक्त आबादी पहले से अधिक उग्र और हिंसक हो चली है। व्यवहार में हिंसा के साथ ही भाषा भी लगातार हिंसक होती जा रही है। यह भाषा के साथ ही भीड़ की हिंसा मनोविज्ञान के तौर पर सामान्य नहीं है....

Update: 2023-03-03 10:44 GMT

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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

यदि देश का यही हाल रहा और सत्ता निरंकुश ही रही तो निश्चित तौर पर आने वाले वर्षों में देश की पूरी आबादी मानसिक रोगों की चपेट में होगी। देश की सत्ता जिन हाथों में है, वे सभी मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। सत्ता का आधार विपक्ष, विकास और व्यवस्था पर लगातार बोला जाने वाला धाराप्रवाह झूठ है। इसमें से अधिकतर झूठ ऐसे होते हैं, जिनकी तालियों और नारों से परे कोई उपयोगिता नहीं होती, पर झूठ उगलने की ऐसी लत है कि संसद से लेकर चुनावों तक झूठ ही झूठ बिखरा पड़ा है।

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि लगातार जाने-अनजाने झूठ बोलना महज झूठ नहीं है बल्कि एक गंभीर मानसिक रोग है। जब झूठ बोलने की ऐसी लत लगी हो, जिसमें सच खोजना भी कठिन हो तब उसे पैथोलोजिकल लाइंग कहा जाता है और हमारे सत्ता के शीर्ष पर बैठे आकाओं में यही लक्षण हैं।

सत्ता में जितने मंत्री-संतरी हैं, प्रवक्ता हैं, उन्हें अपना अस्तित्व ख़त्म कर बस एक ही नाम की माला जपनी है। संभव है कुछ निकम्मे लोग सही में अपना अस्तित्व मिटा देना चाहते हों, पर अधिकतर लोगों के लिए अपना अस्तित्व मिटाकर केवल एक नाम की माला जपना और हरेक समय उसे सही साबित करना निश्चित तौर पर एक मानसिक तनाव वाला काम होगा। महंगाई और बेरोजगारी जैसी सर्वव्यापी समस्या पर भी सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों की तारीफ़ में कसीदे गढ़ना निश्चित तौर पर बहुत सारे नेताओं को मानसिक तौर पर कमजोर कर रहा होगा। देश की मीडिया में बैठे अधिकतर पत्रकार भी ऐसी मानसिक समस्या से जूझ रहे होंगे और अपना अस्तित्व तलाश रहे होंगे।

सत्ता के समर्थन में देश की आधी से अधिक आबादी है। समर्थक होना एक मनोविज्ञान के सन्दर्भ में सामान्य प्रक्रिया है, पर अंधभक्त होना एक मनोवैज्ञानिक विकार है। इससे देश की आधी से अधिक आबादी जूझ रही है, और यह इनके व्यवहार से भी स्पष्ट होता है। देश की सामान्य अंधभक्त आबादी पहले से अधिक उग्र और हिंसक हो चली है। व्यवहार में हिंसा के साथ ही भाषा भी लगातार हिंसक होती जा रही है। यह भाषा के साथ ही भीड़ की हिंसा मनोविज्ञान के तौर पर सामान्य नहीं है।

सामान्य मस्तिष्क किसी भी विषय पर खुद विश्लेषण कर किसी भी सन्दर्भ का खुद निष्कर्ष निकालता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। आज के दौर में देश की आधे से अधिक आबादी के मस्तिष्क ने विश्लेषण करना बंद कर दिया है, और यह आबादी सही मायने में मनुष्य नहीं, बल्कि भेड़ जैसी हो गयी है जिसके बारे में विख्यात है कि झुण्ड का एक सदस्य जिस दिशा में चलना शुरू करता है, बाकी सभी सदस्य उसी दिशा में जाने लगते हैं।

जो सत्ता के काम का, नीतियों का और इसके नेताओं के वक्तव्यों और फरेब का विश्लेषण करने लायक बचे हैं – ऐसे लोग अलग मानसिक यातनाएं झेल रहे हैं। ऐसे लोग जो सोच रहे हैं वे कहीं लिख नहीं सकते, किसी से बोल नहीं सकते, उसपर व्यंग्य नहीं कर सकते, उस पर गाने नहीं बना सकते और इसे किसी कार्टून या चित्र में ढाल नहीं सकते। ऐसी आबादी घने धुंध से घिर गयी है और कभी भी ऑनलाइन से लेकर शारीरिक हमले का शिकार हो सकती है, मारी जा सकती है, या फिर घर को बुलडोजर से ढहाया जा सकता है।

अभिव्यक्ति पर तमाम पाबंदियों के साथ मारे जाने का डर हम सभी को मानसिक यातनाएं दे रहा है। जरा सोचिये एक लेखक को हरेक शब्द लिखते हुए यह डर सताए कि इसका क्या असर होगा, किसी स्टैंडअप कॉमेडियन को हरेक शब्द बोलने से पहले सोचना पड़े कि इसके बाद कहीं जेल तो नहीं होगी – जाहिर है ऐसे माहौल में आपका दम घुटने लगेगा और हरेक तरह की अभिव्यक्ति जकड़ जायेगी। यही आज देश का माहौल है। हम जो सोच रहे हैं उसे सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। इस घुटन में सबकी अभिव्यक्ति मर रही है, दम तोड़ रही है और हमें मानसिक रोगों से घेर रही है।

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