सोशल मीडिया के दौर में लोकलुभावनवादी सत्ता को विस्थापित करना कठिन काम, यहां सच नहीं झूठ और हिंसा का है बोलबाला
हमारे देश में भी लोकलुभावनवादी सत्ता है और यहाँ के उदाहरण से इसे आसानी से समझा जा सकता है, हमारी सरकार अपनी उपलब्धियों के नाम पर गगनचुम्बी मंदिर, मंदिरों के कॉरिडोर और मंदिरों पर स्वर्ण कलश ही गिना पाती है, एक समूह को छोड़कर शेष सभी को टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य घोषित करती है और बेरोजगारों और भूखे लोगों का समर्थन भी पाती है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
At the beginning of 2023, there are least number of populist governments in the world in the past 20 years. प्रजातंत्र का एक वीभत्स स्वरुप है – लोकलुभावनवादी सत्ता। लोकलुभावनवादी सत्ता, यानी पोलुलिस्ट गवर्नमेंट की अनेक परिभाषाएं हो सकती हैं, पर सबसे सरल परिभाषा है – देश के सबसे बड़े धार्मिक, नस्ल या आर्थिक समूह को अपने भ्रमजाल में फंसाकर सत्ता तक पहुँचना और दूसरे सभी समूहों का हिंसक तिरस्कार करना।
हमारे देश में भी लोकलुभावनवादी सत्ता है और यहाँ के उदाहरण से इसे आसानी से समझा जा सकता है। हमारी सरकार अपनी उपलब्धियों के नाम पर गगनचुम्बी मंदिर, मंदिरों के कॉरिडोर और मंदिरों पर स्वर्ण कलश ही गिना पाती है, एक समूह को छोड़कर शेष सभी को टुकड़े-टुकड़े गैंग का सदस्य घोषित करती है और बेरोजगारों और भूखे लोगों का समर्थन भी पाती है। ऐसी सत्ता को मध्यमार्गी और निरंकुश के बीच में रख सकते हैं, पर वास्तविकता में ऐसी सत्ता निरंकुश सत्ता के अधिक नजदीक होती है।
टोनी ब्लेयर इंस्टिट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज ने हाल में ही एक रिपोर्ट प्रकाशित की है – रेपेल एंड रीबिल्ड: एक्सपैंडिंग द प्लेबुक अगेंस्ट पोपुलिज्म। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 के शुरू में दुनिया में लोकलुभावनवादी सरकारों की संख्या भारत समेत 11 देशों में थी, और यह संख्या वर्ष 2003 के बाद यानी पिछले 20 वर्षों में सबसे कम है। वर्ष 2022 के शुरू में इनकी संख्या 13 थी, जबकि वर्ष 2020 में इनकी संख्या 19 थी।
लोकलुभावनवादी सत्ता वाले देशों के संख्या कम होने के कारण पिछले 2 वर्षों के दौरान ही दुनिया की लगभग 80 करोड़ आबादी ऐसी सत्ता के चंगुल से छूट गयी है, पर अभी भी दुनिया की 1.7 अरब आबादी ऐसी सत्ता की चपेट में है। वर्ष 2020 में ऐसी आबादी 2.5 अरब थी। लोकलुभावनवादी सत्ता वाले देशों के कम होने का कारण पूरी दुनिया में, विशेष तौर पर लैटिन अमेरिकी देशों में, विकासवादी और मध्यमार्गीय नेताओं का उभरना और जनता से समर्थन है।
पिछले वर्ष ब्राज़ील में जेर बोल्सेनारो और स्लोवेनिया में जनेज़ जनसा की चुनावी हार, फिलीपींस में रोड्रिगो दुतेरतो को चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करना और श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे को जन-आन्दोलन के कारण देश छोड़कर जाना – सभी लोकलुभावनवादी सत्ता के विरुद्ध उठती आवाज के कारण है। दूसरी तरफ पिछले वर्ष इटली, इजराइल और स्वीडन के चुनावों में लोकलुभावनवादी नेताओं वाले पार्टियों द्वारा बनाए गए गठबंधन सत्ता में काबिज हो गए।
फ्रांस में चुनावों में लोकलुभावनवादी नेता मरिने लापेन ने विजयी राष्ट्रपति एम्मुएल मैक्रॉन को कड़ी टक्कर दी। अमेरिका में पिछले वर्ष संपन्न हुए मध्यावदी चुनावों में ट्रम्प समर्थित अधिकता रिपब्लिकन उम्मीदवार या तो चुनाव हार गए या फिर उनका प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। यूनाइटेड किंगडम में भी सत्ता पर काबिज कन्जर्वेटीव पार्टी के विरुद्ध दक्षिणपंथी लोकलुभावनवादी विचारधारा वाली रिफार्म यूके नामक पार्टी तेजी से अपनी जड़ें मजबूत कर रही है।
इस रिपोर्ट के अनुसार लोकलुभावनवादी नेता कट्टरपंथी वामपंथी भी हो सकते हैं और दक्षिणपंथी विचारधारा वाले नेता भी। पर इनमें एक समानता होती है – किसी एक समूह या वर्ग को ऐसे नेता देश का मूल निवासी घोषित कर देते हैं और फिर उस समूह को दुष्प्रचार द्वारा अन्य सभी समुदायों या वर्गों के विरुद्ध भड़काते हैं, उन्हें देश की सभी समस्याओं की जड़ बताते हैं।
लोकलुभावनवादी नेता हमेशा एक वर्ग को किसी भी कीमत पर देश पर पूरा अधिकार दिलाने की बात करते हैं। लोकलुभावनवादी विचारधारा के भी मुख्य तौर पर तीन अलग स्वरूप होते हैं – सांस्कृतिक लोकलुभावनवाद मौलिक तौर पर कट्टरपंथी दक्षिणपंथी विचारधारा है; सामाजिक आर्थिक लोकलुभावनवाद वामपंथी विचारधारा है और व्यवस्था से बगावत करने वाला लोकलुभावनवादी दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों की विचारधारा है। इन तीनों में सबसे प्रचलित सांस्कृतिक लोकलुभावनवाद है जिसके बलबूते पर दुनिया के लोकलुभावनवादी सत्ता वाले देशों में से भारत समेत 7 देशों में सरकारें सत्ता पर काबिज हैं।
सांस्कृतिक लोकलुभावनवाद की जड़ें बहुत मजबूत होती हैं, पर पिछले वर्ष ब्राज़ील, स्लोवेनिया, फिलीपींस और श्रीलंका में तख्तापलट से इतना तो स्पष्ट होता है कि ऐसी सत्ता आर्थिक संकट या फिर कोविड 19 जैसे जटिल संकट से प्रभावित हो सकती हैं। इस मामले में भारत बिलकुल एक अपवाद की तरह है जहां आर्थिक, सामाजिक या फिर जनता को प्रभावित करने वाली कोई भी समस्या जनता को लोकलुभावनवादी नेताओं और नारों के आगे नजर ही नहीं आती हैं। हमारे देश में हरेक बेरोजगार और हरेक भूखे को अपनी समस्याओं का हल भव्य मंदिरों में नजर आने लगा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 भी लोकलुभावनवादी सत्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहेगा, क्योंकि तुर्की और पोलैंड में ऐसी सत्ता है और इन देशों में इस वर्ष चुनाव होने वाले हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में लोकलुभावनवादी सत्ता को विस्थापित करना एक कठिन काम है क्योंकि दूसरे दल या फिर नेता उतना झूठ नहीं बोल पाते जितना लोकलुभावनवादी नेता बोलते हैं, और सोशल मीडिया पर सच नहीं, बल्कि झूठ और हिंसा का बोलबाला है।
रिपोर्ट के अनुसार लोकलुभावनवादी सत्ता से दूसरे राजनीतिक दल उनके अंदाज में नहीं लड़ सकते, या मुकाबला कर सकते। दूसरे दलों को यदि सही में मुकाबला करना है तो फिर उन्हें अपना एक स्पष्ट एजेंडा बनाकर जनता के बीच उतरना होगा और लोकलुभावनवादी नेताओं के विरोध पर आधारित प्रचार से बचना होगा।