कई पीढ़ियां बीतने के बाद भी केरल के चाय बागान मजदूरों के पास क्यों नहीं है अपना घर
पीढ़ी दर पीढ़ी केरल के चाय बागानों में काम करने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा कम पगार पर एक ही जगह काम करता रहता है और इसके पीछे केवल एक ही कारण है कि ये लोग किसी भी हाल में बेघर नहीं होना चाहते हैं....
नीतू जोसेफ़ की रिपोर्ट
32 वर्षीय सतीश उन दिनों को याद करता है जब वह कोचि की एक बेकरी में काम करते हुए 1000 रुपये प्रतिदिन कमाता था। लेकिन 10 साल पहले उसे काम छोड़कर अपने पुश्तैनी शहर मुन्नार लौटना पड़ा। यहां अपने बाप-दादा के काम को करना जारी रखते हुए उसे केवल 400 रुपये प्रतिदिन की ही कमाई होती है। सतीश के लिए यह एक सीधा निर्णय था क्योंकि कठिनाइयाँ उसके सामने मुंह बाये खड़ी थीं, उसके सामने कोई विकल्प नहीं था, या तो वह ये काम करना स्वीकार करे, या उसके परिवार को उनके घर से बाहर निकाल दिया जाए।
यह कहानी अकेले सतीश की ही नहीं है। पीढ़ी दर पीढ़ी केरल के चाय बागानों में काम करने वाली आबादी का एक बड़ा हिस्सा कम पगार पर एक ही जगह काम करता रहता है और इसके पीछे केवल एक ही कारण है कि ये लोग किसी भी हाल में बेघर नहीं होना चाहते हैं।
पिछले साल श्रम विभाग द्वारा राज्य में किये गए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि केरल के चाय बागानों में काम कर रहे 32591 परिवारों के पास ना तो अपना मकान है और ना ही अपनी ज़मीन। ये सभी लोग चाय बागानों के मालिकाना हक़ रखने वाली कंपनी द्वारा उपलब्ध कराये गए मकानों में ही रहते हैं। इन मकानों को लयाम कहा जाता है। 58 साल की आयु में अवकाश ग्रहण करने के समय उन्हें तीन कमरों का यह बदबूदार और रोशनी विहीन मकान छोड़ना होता है, लेकिन इन कामगारों के सामने समस्या यह खड़ी हो जाती है कि वे जाएँ तो कहाँ जाएँ क्योंकि उनके पूर्वज तो ये काम करने तमिलनाडु से केरल आये थे। इसका परिणाम ये होता है कि युवा पीढ़ी को भी अपने माता-पिता के काम को अपनाना पड़ता है ताकि कंपनी के मकान से हाथ ना धोना पड़े।
अपनी चाय, इलायची और दूसरे बाग़ान के लिए मशहूर केरल के इदुकि और वायनाड ज़िलों के बाग़ानों में काम कर रहे कामगारों से द न्यूज़ मिनट ने बातचीत करी ताकि उनके इस फंसाव से जुड़े मुद्दों को समझा जा सके।
दुष्चक्र
सतीश उन तमिल प्रवासियों की तीसरी पीढ़ी में शामिल है जो तमिलनाडु के तिरुनेलवेली ज़िले से केरल इस उम्मीद से आये थे कि मुन्नार ज़िले के हरे-भरे चाय बाग़ानों से अपनी आजीविका कमाएंगे।
एक छोटे से हॉल,एक बेडरूम और एक किचन वाले अपने टूटे-फूटे मकान, जिसमें पांच लोग रहते थे, के बारे में बताते हुए सतीश कहता है,"तिरुनेलवेली में जहां मेरे दादा जी रहते थे वहां पानी की बहुत किल्लत थी जिसके चलते फसल खराब हो जाती थी। मुन्नार में मेरे दादा-दादी को चाय बाग़ान में काम और रहने को मकान मिल गया। मैंने उन्हें नहीं देखा लेकिन मेरी दो बहनें और मैं उसी मकान में रहते हुए बड़े हुए जहां दादा-दादी रहते थे।" अब सतीश अपने माता-पिता,पत्नी और दो बच्चों के साथ पेट्टिमुड़ी स्थित मकानों में से एक में रहता हैं जहां भू-स्खलन का खतरा लगातार बना रहता है।
जब उसके माता-पिता रिटायर हो गए तब सतीश ने कानन देवन हिल्स बाग़ान में काम करना शुरू कर दिया।
तमिल उच्चारण से प्रभावित धारदार मलयालम में बोलते हुए सतीश कहता है,"जब लोग रिटायर होते हैं तो अगर परिवार में दूसरा कोई बागान में काम नहीं कर रहा होता है तो मकान खाली करना पड़ता है। ऐसा होने पर ही कंपनी प्रोविडेंट फंड और ग्रैच्युटी जैसे भत्तों का भुगतान करती है। चूंकि मेरे केस में नौकरी करने वाला कोई दूसरा व्यक्ति नहीं था इसलिए मुझे कोची में मोटी पगार वाली नौकरी छोड़ कर यहां आना पड़ा।" वायनाड में भी कामगारों के इसी तरह के अनुभव रहे हैं।
कामगारों में कुछ ऐसे भाग्यशाली भी हैं जिनके पास अपनी ज़मीन है, वो भी तमिलनाडु में। इसके चलते रिटायरमेंट के तुरंत बाद वे कम्पनी द्वारा दिए गए मकान खाली कर देते हैं। कुछ लोग अपने पी एफ और ग्रैच्युटी का इस्तेमाल कर ज़मीन खरीद लेते हैं लेकिन ज़्यादातर लोगों को रिहाइश की जगह ढूंढ़ने का संघर्ष करना पड़ता है।
ज़्यादातर कामगारों का कहना है कि रिटायरमेंट राशि कभी भी 2 लाख रुपयों से ज़्यादा नहीं होती है। ये राशि भी इस बात पर निर्भर है कि अपनी नौकरी के दौरान किसी व्यक्ति ने कितने दिन काम किया है।
वायनाड ज़िले की मीप्पाडी पंचायत में चेम्ब्रा हिल्स के पास रहने वाली 36 वर्षीय शहरबन कहती है, "पहली बात तो तय पगार नहीं होती है। मेरा शौहर 350 रुपये रोज की मज़दूरी पर काम करता है। यह मज़दूरी उसे महीने के आखिर में मिलती है और वो भी महीने में जितने दिन काम किया उसी के हिसाब से।"
वो आगे कहती है कि अगर वो पूरे महीने भी काम करता है तब भी बिजली का बिल, कंपनी से लिए क़र्ज़ की मासिक किश्त और पीएफ जैसी दूसरी कटौतियों के बाद हाथ में 7000 रुपये ही आते हैं।
वो कहती है,"इतनी कम रकम से ही हमें महीने भर के पारिवारिक खर्चों के साथ-साथ बच्चों की शिक्षा के खर्चों को भी उठाना पड़ता है।" उसका शौहर 42 वर्षीय जमालुद्दीन एवीटी के इलायची के बाग़ान में काम करता है।
हालाँकि उसके शौहर के रिटायरमेंट में अभी 10 साल बाकी हैं लेकिन शहरबन को लगातार यही चिंता सताए जा रही है कि रिटायरमेंट के बाद क्या होगा? वो कहती है,"मेरी बेटी अभी 12वीं कक्षा में है। मेरे शौहर के रिटायर होने तक हमें उसका निकाह कर देना है। लेकिन उसके बाद हमारे पास ज़मीन खरीदने के लिए कुछ पैसा भी नहीं बचेगा। हमारे आस-पास रह रहे दूसरे परिवारों का भी यही हाल है।"
हालाँकि रिटायर होने वालों और उनके परिवार वालों के पास ज़्यादा विकल्प नहीं होते हैं फिर भी वे अस्थायी व्यवस्था के माध्यम से बेघर होने के मुद्दे से तुरंत निपटते हैं।
अस्थायी व्यवस्थाएं
सतीश कहता है,"जो रिक्त स्थान होते हैं उन्हें अक्सर रिटायर हुए लोग वापिस आ कर भर देते हैं। वे बिना भत्तों के ही अस्थायी रूप में काम करने लगते हैं। उन्हें सिर्फ रोज़ाना की मज़दूरी का ही भुगतान किया जाता है। इस तरह से वो लयमा में रहना जारी रख सकते हैं। लेकिन यह कोई आम स्थिति नहीं है।"
लेकिन साथ ही ना इस्तेमाल किये जा रहे कम्पनी के मकानों को किराये पर उठाने का भी प्रचलन है। वायनाड के एक बाग़ान में कर्मचारी अज़ीस बताते हैं,"उदाहरण के लिए मैं अभी मलाप्पुरम ज़िले में एक ऐसे मकान में रहता हूँ जो मुझे मेरे माँ-बाप से विरासत में मिला है। इसलिए मेरे नाम पर पंजीकृत मकान में कोई दूसरा परिवार रहता है। इसके बदले वो परिवार मुझे किराये के रूप में एक छोटी रकम देता है लेकिन बिजली बिल जैसे दूसरे खर्चे उन्ही को वहां करने होंगे।
'युवा शिक्षित हैं, बेहतर रोज़गार चाहते हैं'
हालाँकि बाग़ान कामगारों के मौलिक हालात में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है,टूटे-फूटे घर या बेघर होने की असमंजस अभी भी कायम हैं लेकिन इन परिवारों के युवक-युवतियां ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं।
मीप्पाडी पंचायत अध्यक्ष के के सहद ने द न्यूज़ मिनट से कहा,"पहले इन परिवारों के युवाओं के लिए ज़्यादा मौके उपलब्ध नहीं थे। प्राथमिक शिक्षा पूरी होते ही वे तुरंत बाग़ानों में काम करना शुरू कर देते थे। बाग़ानों में काम करने के इच्छुक युवाओं की भीड़ रहती थी। लेकिन अब बदलाव आ गया है। अब भीड़ नहीं होती। युवा अब बेहतर रोज़गार का सपना पाल रहे हैं।अगर वे घर की समस्या का समाधान कर सकें तो वे अपनी शैक्षिक योग्यता के अनुसार नौकरी ढूंढ लेंगे।"
बाग़ान कामगारों के परिवार से आने वाला 37 वर्षीय सहाद मात्र 14 वर्ष की आयु में बाग़ान में काम शुरू कर देने वाली अपनी माँ से जुडी कहानियों को याद करता है। खुद भी बाग़ान में काम करने वाले सहाद ने इलाक़े में बहुतों को प्रेरणा दी है। 2015 में सीपीएम प्रत्याशी के रूप में स्थानीय चुनाव जीतने के बाद उसे पंचायत अध्यक्ष चुना गया। इसके चलते उसे बाग़ान से पांच साल की छुट्टी लेनी पड़ी।
सतीश कहता है कि मुन्नार इलाके में भी युवा कम पैसों में बाग़ान में नापसंद काम करते रहना नहीं चाहते हैं। वो कहता है,"युवाओं की वर्तमान पीढ़ी पढ़ी-लिखी है, इनमें ज़्यादातर स्नातक हैं। उनके भीतर बेहतर ज़िंदगी जीने की ललक है। एकमात्र समस्या जो उनके सामने आती है वो है अपने परिवार के लिए अपना एक घर। अगर कुछ है जो युवाओं को यहां से नहीं निकलने दे रहा है तो वो मकान का मुद्दा ही है।"
सरकारी आवास योजनाएं
समय-समय पर राज्य में शासन करने वाली विभिन्न सरकारें भूमिहीन एवं आवास विहीन बाग़ान कामगारों की समस्याओं को सुलझाने के लिए योजनाएं ले कर आयी हैं लेकिन ये बहुत छोटे स्तर पर ही हुआ है। साथ ही लोगों और अधिकारियों का भी कहना है कि ये परियोजनाएं प्रभावी ढंग से लागू नहीं की गई हैं।
2009 में अच्युतानंदन के नेतृत्व वाली वाम सरकार ने भूमिहीन बाग़ान कामगारों के लिए एक परियोजना शुरू की। 3000 परिवारों को देने के लिए इदुक्की ज़िले में देवीकुलम ग्राम पंचायत की कुट्टियार घाटी में सैकड़ों एकड़ ज़मीन चिन्हित की गई थी।
देवीकुलम पंचायत अध्यक्ष गोविन्था सामी कहते हैं,"वी एस अच्युतानंदन के शासन काल में लॉटरी के माध्यम से 3000 लोगों की सूची बनाई गई थी। आधिकारिक रूप से 700 लोगों को ज़मीन आवंटित की गई थी -170 लोगों को मुन्नार पंचायत की और बाकियों को देवीकुलम पंचायत से।"
लेकिन वायदा खिलाफी कर बाकी बचे लोगों को ज़मीन आवंटित नहीं की गई। सरकारी अधिकारियों का कहना था कि समस्या इसलिए पैदा हुई क्योंकि भूमि दलालों ने प्रार्थी बन कर सरकार और वहां के निवासियों को धोखा दिया था।
गोविन्था सामी कहते है,"अभी 6 महीने पहले ही ये परियोजना पुनर्जीवित की गई थी। सरकार ने एक बार फिर 2,500 आवेदकों की सूची बनाई। लेकिन जब दोबारा सर्वेक्षण किया गया तो यह पाया गया कि वास्तव में इतनी ज़मीन भी नहीं है कि हर परिवार को 10 सेंट (1 सेंट यानी 435.6 वर्ग फुट) ज़मीन दी जा सके। लिहाजा वर्तमान सरकार द्वारा इसे घटा कर 5 सेंट कर दिया गया। जगह का दौरा किये बिना ही 2009 का सर्वेक्षण कर लिया गया था।"
उनका कहना है कि जिन 400 लोगों को ज़मीन दी गई है वो ज़मीन भी समस्या ग्रस्त है क्योंकि ज़्यादातर ज़मीनें दलदली हैं। वो आगे बताते हैं,"इन परिवारों के लिए दूसरी ज़मीन की तलाश चल ही रही थी जब पेट्टिमुड़ी में भू-स्खलन घटित हो गया। तब से तहसीलदार और दूसरे अधिकारी व्यस्त हो गए हैं।"
गोविन्था सामी बाम गठबंधन सरकार के घटक दल सीपीआई का भी सदस्य है। गोविन्था सामी का कहना है कि 2,500 लोगों को आधिकारिक रूप से ज़मीन आवंटित कर दी गई है लेकिन वहीं विपक्षी कांग्रेस पार्टी के सदस्य और मुन्नार पंचायत अध्यक्ष आर करुप्पुसामी द न्यूज़ मिनट को बताते हैं कि अभी दस्तावेज़ तैयार हो रहे हैं और सभी को ज़मीन आवंटित नहीं हुई है।
करुप्पुसामी ज़मीन के बंटवारे में मुन्नार और देवीकुलम के निवासियों के बीच हुए भेदभाव की भी आलोचना करते हैं क्योंकि कुट्टियार घाटी परियोजना दोनों ही पंचायतों के लोगों के लिए थी।
वो कहते हैं,"मुन्नार के लोगों को 10 फीसदी ज़मीन ही मिली है। जब 700 लोगों को 10 सेंट ज़मीन दी गई थी तो मुन्नार पंचायत से केवल 170 परिवारों को ही ज़मीन मिल सकी। और अब वर्तमान सरकार द्वारा छापी गई सूची में जो 2,500 लोगों के नाम हैं उनमें से केवल 385 ही मुन्नार से हैं। बाकी लोग देवीकुलम से हैं। इस परेशानी को लेकर हमने राज्य सरकार को एक खत लिखा था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला है।"
सहाद बताता है की वायनाड में सरकार की लाइफ मिशन परियोजना के तहत पिछले 4 वर्षों में 900 बाग़ान कामगारों के लिए मकान बनाये गए। इन ९०० परिवारों के पास अपनी ज़मीन थी और इन्हें मकान बनवाने के लिए सहायता दी जानी थी। हालाँकि वो बताते हैं कि सहायता मिलना अभी शुरू नहीं हुई है।
'हमारे सरोकारों को महत्व नहीं दिया जाता'
भविष्य की ओर इशारा करते हुए इलाक़े के लोग और कार्यकर्ता भी यह कहते हैं कि बाग़ानों के कामगारों का भविष्य आशावान नहीं दिखाई देता है।
देवीकुलम ब्लॉक पंचायत की सदस्य गोमथी द न्यूज़ मिनट को बताती हैं कि निरंतर बदलती सरकारों द्वारा बाग़ान कामगारों के सरोकारों को उचित महत्व नहीं दिया गया है।
गोमथी कहती है,"पेट्टिमुड़ी में हुए भू-स्खलन से प्रभावित परिवारों में से 19 ऐसे थे जो बाग़ान में काम नहीं कर रहे थे। वो रिटायर हो चुके थे लेकिन फिर भी वहीं रह रहे थे क्योंकि इनके पास रहने का कोई और ठिकाना नहीं था। बर्बाद हुए स्थल का दौरा करने में मुख्यमंत्री पिनरई विजयन को एक हफ्ते का समय लग गया। लेकिन उसी दिन जब करीपुर में हवाई हादसा हुआ तो वो अपने मंत्रियों समेत तुरंत वहां पहुँच गए। ये सब कुछ लोग देख रहे हैं।"
वो आवासीय परियोजना में बड़े स्तर पर हुई धांधली पर भी उंगली उठाती है। वो कहती है,"ज़मीन आवंटित किये गए लोगों की सूची देखने से साफ़ पता लगता है कि वे सभी यहाँ के कुछ राजनेताओं के निकट सहायक, रिश्तेदार या परिचित हैं। आम आदमी को तो ठेंगा दिखा दिया गया है।"
"पिछले अनेक सालों से मैं ज़मीन का मुद्दा और बेघर लोगों का मुद्दा लगातार उठा रही हूँ लेकिन वो (सरकारी अधिकारी) आरोप लगाते हैं कि मेरे माओवादियों से रिश्ते हैं। वो ऐसा क्यों कहते हैं? क्या इसलिए कि मैं ज़मीन की मांग उठा रही हूँ?"
गोमथी खुद भी बाग़ान मज़दूर है और जिस कंपनी के लिए वो काम करती है उसे उसने लिख कर दे दिया है कि उसका बेटा ही वो सगा रिश्तेदार होगा जो उसके बाद उसके हिस्से का बाग़ान का काम देखेगा।
वो कहती है,"यहाँ का यही हाल है, हमारे बच्चे ऐसे हालात में धकेल दिए जाते हैं,एक बेहतर ज़िंदगी जीने से उन्हें महरूम रखा जाता है।"
(नीतू जोसेफ़ की यह रिपोर्ट पहले मूल रूप से अंग्रेजी में द न्यूज़ मिनट में प्रकाशित, जनज्वार ने इसे हिंदी में अनूदित किया है।)