कश्मीर और CAA विरोधी आंदोलन की तरह किसान विद्रोह को निपटाने में क्यों विफल हो रही गोदी मीडिया

गोदी मीडिया ने जिस निर्ममता के साथ कश्मीर को खुली जेल बना देने की मोदी सरकार की साजिश को परिदृश्य से गायब कर दिया या जिस तरह पिछले साल CAA विरोधी आंदोलन को राष्ट्र विरोधी आंदोलन साबित कर दिया, उसी तरह वह अब किसान विद्रोह को निपटाने के लिए अपनी तरफ से पूरी ताकत झोंक रही है.....

Update: 2020-12-06 07:14 GMT

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार की टिप्पणी

जनज्वार। मोदी के बर्बर और दमनकारी राज को आगे बढ़ाने में गोदी मीडिया पेट्रोल की भूमिका निभाती रही है। ऐसा लगता है मानो नाजी जर्मनी के प्रचार मंत्री गोयबल्स की आत्मा गोदी मीडिया के संपादकों और एंकरों की देह में समा गई है और जो अपने ही देश को तहस-नहस करने की संघी परियोजना का कार्यान्वयन करने में जी जान से जुटे हुए हैं।

इस गोदी मीडिया ने जिस निर्ममता के साथ कश्मीर को खुली जेल बना देने की मोदी सरकार की साजिश को परिदृश्य से गायब कर दिया या जिस तरह पिछले साल सीएए विरोधी आंदोलन को राष्ट्र विरोधी आंदोलन साबित कर दिया, उसी तरह वह अब किसान विद्रोह को निपटाने के लिए अपनी तरफ से पूरी ताकत झोंक रही है। लेकिन किसानों ने गोदी मीडिया के जहर से निपटने की पूरी तैयारी कर रखी है और अब तक गोदी मीडिया को इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिल पा रही है।

दिल्ली में किसान विरोध प्रदर्शन के मद्देनजर जहां हजारों किसान इस साल सितंबर में पारित कृषि कानूनों के विरोध में एकत्र हुए हैं, किसानों ने गोदी मीडिया संगठनों पर "गलत" और "भ्रामक" तथ्यों को उजागर करने का आरोप लगाया है और गोदी मीडिया का बहिष्कार शुरू कर दिया है।

यह सब 26 नवंबर को शुरू हुआ, जब प्रदर्शनकारी किसान दिल्ली और हरियाणा के बीच सिंघू सीमा पर पहुंचे, उन्होंने अफसोस जताया, "राष्ट्रीय मीडिया हमारी ओर ध्यान क्यों नहीं दे रही है? क्या वह सड़क जाम नहीं देख रही है? क्या उसे किसानों की परवाह नहीं है?" इसके तुरंत बाद गोदी मीडिया ने किसानों के खिलाफ विषवमन का ऐसा अभियान शुरू कर दिया कि चार दिनों के बाद किसान नारे लगाने के लिए मजबूर हो गए, "गोदी मीडिया, वापस जाओ।"

"गोदी मीडिया" उन मीडिया संगठनों को संदर्भित करता है जो नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार के "लैपडॉग" हैं, और रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में किसानों से जुड़े तथ्यों को रिपोर्ट नहीं करते हुए उनके खिलाफ माहौल बनाने में जुटे हुए हैं।

गोदी मीडिया के खिलाफ किसानों ने अपने गुस्से का तब इजहार किया जब ज़ी पंजाबी के कैमरामैन के साथ एक रिपोर्टर 30 नवंबर को सिंघू सीमा पर विरोध प्रदर्शन की लाइव रिपोर्ट करने पहुंचा।

"दोपहर 1.30 बजे रिपोर्टर वासु मनचंदा लंगर या सामुदायिक भोजन परोसने के लिए तैयार किए गए एक मंच के पास खड़े थे। उन्होंने अपने आसपास जमा हुए कुछ बुजुर्ग किसानों का साक्षात्कार करना शुरू किया। किसान तुरंत चिल्लाए और मिनटों के भीतर उनको प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस बैरिकेड्स का पीछे पहुंचा दिया गया।"

मनचंदा का पीछा करने वाली भीड़ में शामिल एक किसान अर्शदीप सिंह ने कहा कि उन्होंने "गोदी मीडिया" के खिलाफ नारेबाजी करते हुए रिपोर्टर पर "पानी फेंक" दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया चूंकि मनचंदा ने बुजुर्ग किसानों से कृषि कानूनों के बारे में "तकनीकी सवाल" पूछने की कोशिश की थी।

"मीडिया चाहती क्या है?" अर्शदीप ने पूछा।

"आप कुछ बुजुर्ग और अशिक्षित लोगों को इकट्ठा कर उनसे किसान बिल के तकनीकी पहलुओं पर सवाल-जवाब करने की कोशिश कैसे कर सकते हैं? हमें पता है कि आप बाद में चीजों को विकृत करते हुए हमारे खिलाफ कहानी पेश करेंगे। हमने पिछले कुछ दिनों में यही सब देखा है।"

हालांकि मनचंदा ने आरोप लगाया कि किसानों ने उन पर "गर्म चाय" फेंकी। लेकिन अर्शदीप का तर्क है कि गोदी मीडिया के रवैये के चलते उसके खिलाफ किसानों में गुस्सा बढ़ता गया है। पोस्टरों और नारों के जरिये किसान इस गुस्से का इजहार कर रहे हैं और कुछ ख़ास चैनलों से बात करने से इनकार कर रहे हैं। इसकी शुरुआत तब हुई जब ज़ी न्यूज़ जैसे चैनलों ने दावा किया कि किसानों के आंदोलन के पीछे "खालिस्तानी एंगल" था।

किसान कहते हैं: "जो हमें खालिस्तानी कहते हैं वे वही हैं जो स्वयं भारतीय नहीं हैं।"

"हम अभी भी चाहते हैं कि मीडिया किसान आंदोलन को कवर करे। हम केवल यह कहना चाहते हैं कि आप जो देखते हैं वही रिपोर्ट करें। अपनी तरफ से मनगढ़ंत कहानी बनाने की कोशिश करना बंद कर दें।," विरोध प्रदर्शन कर रहे किसान करणदीप सिंह ने कहा।

संसद द्वारा तीन कृषि कानूनों को पारित किए जाने के बाद से सितंबर के महीने से ही केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बढ़ता गया है। पिछले कई दिनों से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के हजारों किसान नई दिल्ली की ओर मार्च करते हुए और सीमाओं को पार कर दिल्ली पहुंचे हैं।

अपने संबंधित राज्य सरकारों से समर्थन हासिल करने में विफल रहने के बाद किसानों ने मोदी सरकार पर दबाव बनाने का फैसला किया है, जिसके कारण वे दिल्ली पहुंचे हैं।

यूपी और हरियाणा में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारें किसानों को समझाने में विफल रही हैं। हालांकि, राजस्थान और पंजाब की सरकारों ने उनके आंदोलन को पूरा समर्थन दिया है।

किसान चाहते हैं कि मोदी सरकार तीन किसान क़ानूनों को वापस ले ले। हरियाणा के प्रदर्शनकारियों का नेतृत्व गुरनाम सिंह चादुनी कर रहे हैं। गुरनाम ने कुरुक्षेत्र जिले के लाडवा निर्वाचन क्षेत्र से 2019 का विधानसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन उन्हें केवल 1,307 वोट मिले थे। हालांकि वह किसानों के मुद्दों को उठाने में काफी सक्रिय थे और राज्य भर में कई विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया।

गुरनाम के अलावा कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कृषि यूनियनों, जिसमें कई नेता शामिल हैं, ने संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर के तहत हाथ मिलाया है।

क्या हैं तीन कृषि कानून?

1. किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक 2020: इसका उद्देश्य विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा गठित कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) द्वारा विनियमित मंडियों के बाहर कृषि उपज की बिक्री की अनुमति देना है। सरकार का कहना है कि किसान इस कानून के जरिये अब एपीएमसी मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे। निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे।

लेकिन, सरकार ने इस कानून के जरिये एपीएमसी मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है। एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी के स्वामित्व वाले अनाज बाजार (मंडियों) को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है। इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट दी गई है। बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं।

किसानों को यह भी डर है कि सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म कर सकती है, जिस पर सरकार किसानों से अनाज खरीदती है।

2. किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक: इस कानून का उद्देश्य अनुबंध खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की इजाजत देना है। आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा।

किसान इस कानून का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी।

3. आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक: यह कानून अनाज, दालों, आलू, प्याज और खाद्य तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण को विनियमित करता है। यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर करने का प्रावधान है। इसके बाद युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी।

किसानों का कहना है कि यह न सिर्फ उनके लिए बल्कि आम जन के लिए भी खतरनाक है। इसके चलते कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी। उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है?

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