क्या उग्र हिन्दुत्व के दबदबे के सामने किसानों-मजदूरों की लामबंदी का विस चुनावों पर पड़ेगा असर?
भाजपा असम में अपनी सत्ता बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रही है, जबकि पश्चिम बंगाल में टीएमसी के खिलाफ प्रयास करने और उससे सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रही है। असम में एनआरसी लागू होने के बाद पहली बार चुनाव हो रहा है। राज्य में बड़ी संख्या में हिंदुओं और मुसलमानों को बांग्लादेशियों के अलावा बड़ी पीड़ाओं से गुजरना पड़ा है....
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण
फर्जी राष्ट्रवाद और उग्र हिन्दुत्व के सहारे भाजपा ने पूरे देश में जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का वातावरण तैयार कर दिया है, उसके सामने आम लोगों के जीवन मरण से जुड़े हुए गंभीर मुद्दे भी अब गौण हो चुके हैं। मंहगाई और बेरोजगारी अथवा कारपोरेट की गुलामी अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर बन रहा है और मुस्लिम भय के साये में जीने के लिए मजबूर हो गए हैं- बस यही उपलब्धि नागरिक से भक्त बन चुके लोगों को आह्लादित कर रही है। विपक्ष लुंजपुंज होकर रेंगता दिखाई दे रहा है। कारपोरेट गुलामी के खिलाफ लामबंदी कर रहे किसानों और मजदूरों के आक्रोश का कोई असर असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुचेरी और केरल में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है।
किसान संघ और 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियन पिछले तीन महीनों से लगातार तीन कृषि कानूनों और चार श्रम संहिताओं के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, जिन्हें किसानों और श्रमिकों के भविष्य के लिए अत्यधिक हानिकारक माना जाता है। किसानों का आंदोलन औपचारिक रूप से और बड़े राजनीतिक रूप से रहा है। दिनों दिन यह एक राजनीतिक आयाम प्राप्त कर रहा है। पंजाब में नाराज किसानों ने हाल ही में स्थानीय शहरी निकायों के चुनाव के दौरान भाजपा के खिलाफ मतदान किया है, जहां भाजपा उम्मीदवारों को अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा। लेकिन भाजपा को इस हार से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह धर्म के कार्ड से बहुमत जुटाने की रणनीति पर विश्वास करती है। पंजाब में हारकर भी वह बहुमत को कायम रख सकती है।
हालांकि, संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले किसान यूनियनों ने 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के साथ मिलकर भाजपा के खिलाफ संयुक्त अभियान चलाने का फैसला किया है। मजदूरों के गुस्से ने पंजाब के बाजार और औद्योगिक शहरों के स्थानीय निकायों के चुनावों में भी अपनी भूमिका निभाई है, जिससे भाजपा और उसके पूर्व गठबंधन सहयोगी एसएडी दोनों के लिए अपमानजनक हार हुई।
कहा जा रहा है कि पंजाब के स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा और एसएडी की अपमानजनक हार ने किसानों और श्रमिकों का मनोबल काफी बढ़ा दिया है और वे आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को इसी तरह अपमानित करना चाहते हैं। इसलिए फार्म और ट्रेड यूनियनों ने न केवल आगामी हफ्तों में विस चुनाव वाले सभी पांच राज्यों में भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त राजनीतिक अभियान शुरू करने पर सहमति व्यक्त की है, बल्कि अपनी मांगों के संयोजन और सामान्य कार्यों की योजना बनाने पर भी फैसला किया है।
इस उद्देश्य के लिए आयोजित किसानों और ट्रेड यूनियनों की संयुक्त बैठक ने पाँच सामान्य मांगों के साथ - तीन किसानों की ओर से और दो ट्रेड यूनियनों की ओर से-- संयुक्त अभियान शुरू करने का फैसला किया है। किसानों की मांगों में कृषि सुधार कानूनों को निरस्त करना, संसद द्वारा पारित किए जाने वाले बिजली बिल को वापस लेना और एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी शामिल है। श्रमिकों की ओर से दो मांगों में चार श्रम संहिता को वापस लेना और सरकार के निजीकरण अभियान को रोकना शामिल है।
प्रारंभ में किसानों ने केवल कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन चलाया और उनका आंदोलन अराजनीतिक था। हालांकि समय बीतने के साथ वे महसूस कर रहे हैं कि तीन कृषि कानून भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के व्यापक एजेंडे का एक हिस्सा हैं। चार श्रम कोड पारित करने और देश में सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े पैमाने पर निजीकरण को भी इसके हिस्से के रूप में देखा जाता है। बैठक में सुझाव दिया गया कि किसान और ट्रेड यूनियन 15 मार्च को 'निजीकरण विरोधी दिवस' के रूप में मनाने सहित कई आंदोलन कार्यक्रम शुरू करेंगे। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस को भी 23 मार्च को मनाया जाने की योजना है।
एआईटीयूसी ने संयुक्त बैठक के आयोजन में अग्रणी भूमिका निभाई। इसकी महासचिव अमरजीत कौर ने कहा कि किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधियों ने कुछ कार्यक्रमों का सुझाव दिया है, जिसमें 15 मार्च को 'निजीकरण विरोधी दिवस' के रूप में मनाया जाना है। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम निजीकरण के अपने कार्यक्रम के साथ बेरहमी से आगे बढ़ रहे हैं। किसान और श्रमिक दोनों इस कदम को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। यूनियनें अब संयुक्त रूप से सरकार के इस कदम से लड़ने के लिए दृढ़ हैं।
भाजपा असम में अपनी सत्ता बरकरार रखने की पूरी कोशिश कर रही है, जबकि पश्चिम बंगाल में टीएमसी के खिलाफ प्रयास करने और उससे सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रही है। असम में एनआरसी लागू होने के बाद पहली बार चुनाव हो रहा है। राज्य में बड़ी संख्या में हिंदुओं और मुसलमानों को बांग्लादेशियों के अलावा बड़ी पीड़ाओं से गुजरना पड़ा है, जिनको अपने देश से निर्वासित किया जा सकता है। सांप्रदायिक आधार पर तीव्र ध्रुवीकरण है। भाजपा के प्रमुख सहयोगियों में से एक ने इसे छोड़ दिया और विपक्षी गठबंधन में शामिल हो गया। सांप्रदायिकता के इस माहौल पर किसान आंदोलन का कोई प्रभाव जमीन पर दिखाई नहीं दे रहा है।
पश्चिम बंगाल में राजनीतिक परिदृश्य कमोबेश असम जैसा ही है। भाजपा को सांप्रदायिक उन्माद के सहारे बढ़त हासिल करने की उम्मीद कर रही है। वह जमीनी स्तर पर नफरत का जहर फैलाकर फसल काटने के लिए बेताब दिखाई दे रही है। बिखरे हुए विपक्ष को मात देकर जीत हासिल करना उसे आसान लक्ष्य नजर आ रहा है। भले ही राज्य में किसानों और श्रमिकों की काफी आबादी है लेकिन उनको भी फर्जी राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का अफीम चटाया जा चुका है।
भाजपा के पास केरल और तमिलनाडु में बहुत अधिक हिस्सेदारी नहीं है, लेकिन वह अपनी जगह बनाने की उम्मीद कर रही है। पुडुचेरी में भाजपा के पास लगभग कोई राजनीतिक आधार नहीं है, हालांकि यह हालिया राजनीतिक उथल-पुथल का लाभ पाने की उम्मीद रखती है। इन राज्यों के चुनाव पर संयुक्त किसान और श्रमिक आंदोलन का कोई प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई नहीं देता।