राहत इंदौरी ऐसे शायर थे जिनकी आंखों में पानी और होंठों पर चिंगारी थी : मंगलेश डबराल

उर्दू में वे इस समय में शायद अकेले शायर थे जो बहुत बेबाक, बेधड़क और प्रत्यक्ष रूप से अपने समय के सत्ताधारियों को चुनौती देते थे, उनको ललकारते थे...

Update: 2020-08-11 15:26 GMT

मंगलेश डबराल, वरिष्ठ साहित्यकार

जनज्वार। राहत इंदौरी साहब का यूं जाना बहुत बड़ा आघात है। सिर्फ इसलिए नहीं कि वे उर्दू के इस समय के शायद सबसे लोकप्रिय शायर थे, बल्कि इसलिए भी कि उनकी शायरी में एक सियासी आवाज और अपने वक्त की सियासत को, अपने वक्त के ताकतवर लोगों को चुनौती देने का माद्दा रखते थे।

उर्दू में वे इस समय में शायद अकेले शायर थे जो बहुत बेबाक, बेधड़क और प्रत्यक्ष रूप से अपने समय के सत्ताधारियों को चुनौती देते थे, उनको ललकारते थे। तभी तो वो मंच से दहाड़ते हैं...

सभी का खून है शामिल यहां कि मिट्टी में

किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है

यह उनका बेहद लोकप्रिय शेर है। इस गजल का एक और शेर है

जो आज साहिबे मसनद है, कल नहीं होंगे।

किरायेदार है, जाती मकान थोड़ी है।

यह जो सत्ताधारियों को आइना दिखाने की राहत इंदौरी ने हर क्षण कोशिश की, उसके कारण वे बहुत लोकप्रिय हुए। उन्होंने फिल्मों के लिए भी लिखा। वे खुद उर्दू के प्रोफेसर रहे। एक तरह से उन्होंने गंभीर व लोकप्रिय शायरी के बीच की दूरियों को पाटने का भी काम किया। यह खूबी हमारे बहुत कम शायरों में रही है।

उनकी शायरी को एक वाक्य में कहें, अगर उनके गजल के मिसरा में ही कहें तो 'आंख में पानी रखो, ओठों पर चिंगारी रखो' वे एक ऐसे शायर थे जिनके आंख में पानी था और होंठों पर चिंगारी थी।

राहत इंदौरी हिंदी के पाठकों में भी बहुत लोकप्रिय रहे। पिछले दिनों उनका एक संग्रह 'मौजूद' आया है, शायद 'नाराज' भी हिंदी में आया है। उनका 'मौजूद' मैंने हिंदी में पढ़ा था। 'मौजूद' हिंदी में काफी लोकप्रिय हुआ। जुबान का उनका इस्तेमाल ऐसा था कि वह हिंदी के पाठकों को भी उतना ही पसंद आता था, जितना उर्दू के पाठकों को।

मसलन, 'लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़े ही है...'

राहत साहब ने एक नए बिम्ब, एक नई इमेजनरी हिंदी शायरी में दी। नए ढंग से अपनी बात कही। नए ढंग से हिंदी में कई लोगों ने अपनी बात कही है, चाहे वे निदा फाजली हों या शहरयार हों।

राहत साहब की एक शायरी है, 'काॅलेज के सब बच्चे चुप हैं, कागज की एक नाव लिए, चारों तरफ दरिया की सूरत फैली हुई बेकारी है।'

बेकारी को दरिया की तरह देखना और काॅलेज के जितने छात्र हैं, उनके पास कागज की एक नाव है, यह एक नए तरह की बिम्ब देने की योजना है।

उनका एक शेर है, 'हम से पहले मुसाफिर कई गुजरे होंगे, कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते' एक और है, 'हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं, मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं।'

यह मोहब्बत की मिट्टी ही उनकी शायरी की बुनियाद है। इस मोहब्बत की मिट्टी से हिंदुस्तानियत पैदा हुई है और यही उनकी शायरी की जान है। वे कहते हैं कि किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है, यह सब लोगों का है।

जिसको गंगा जमुनी तहजीब कहते हैं, जिसको सामासिक संस्कृति कहते हैं, राहत इंदौरी साहब उसके बड़े नुमाइंदे थे, इसलिए हमारे आज के जो सत्ताधारी हैं, जो इस देश का सामाजिक ताना-बाना तोड़ने का काम कर रहे हैं, उनकी कड़ी आलोचना है। उनके बरक्स एक मोहब्बत की मिट्टी को जो हिंदू, मुस्लिम, ईसाई सारे लोगों से मिलकर बना है, उस हिंदुस्तान का परचम उठाए रखने का ताप है उनमें।

उनकी एक और शायरी है, 'मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे, मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू रख ले।' यह जो आज अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राम मंदिर का शिलान्यास, उसके पहले जमीन का बंटवारा और बाबरी मस्जिद के लिए कहीं और जमीन देना, उस पूरे विवाद को ध्यान में रखकर इस शेर को देखें। यह जो जज्बा है यह राहत साहब में मिलता है।

उनकी एक और जो खूबी है, वह यह कि राहत इंदौरी ने ग़जलों में जो प्रयोग किए हैं, उनमें अनौपचारिक लहजा है, जैसे, 'कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते, चारों तरफ दरिया की सूरत फैली बेकारी है।' यह जो इनफॉर्मल लहजा है, यह बहुत कम शायरों में मिलता है। यह जो बिल्कुल बातचीत का उनका लहजा है, यह बहुत कम शायरों में मिलता है।

'तूफानों से आंख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो, मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर कर दरिया पार करो' यह अनौपचारिक लहजा ही है, जिसके कारण वे बेहद लोकप्रिय रहे।

उनका पाॅपुलर शेर है, 'मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को, समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे। इस तरह का जो प्रयोग है, यह राहत साहब ने बहुत किया है।

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राहत साहब की शायरी अजीम भले न रही हो, साहित्यिक पैमाने पर जो रवायत है, उस अनुसार हो सकता है, कुछ कमतर रही हो, लेकिन उसने अपने समय में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इसलिए उनका जाना खलता है।

70 साल के वे थे, यह कम उम्र है। वे जोश से भरपूर थे। उनको और भी तकलीफें थीं, उनको कोरोना होना और फिर दिल का दौरा पड़ना। उनसे अभी और उम्मीद थीं, सत्ता के सामने घुटने न टेकना। और, हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के लिए यह बड़ा नुकसान है। उनकी कविता में अभी और प्रतिरोध की सत्ता के आगे घुटने न टेकने की जो हिम्मत है वह और भी ज्यादा अभिव्यक्त होगा। यह हम सबका, हिंदी-उर्दू दोनों का बड़ा नुकसान है।

वे जिंदगी भर तूफानों से हाथ मिलाते रहे और मल्लाहों का चक्कर छोड़कर तैर कर दरिया पार करते रहे।

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