सोशल मीडिया से वैज्ञानिक दूर, मगर विज्ञान के नाम पर फेक न्यूज फैलाने वालों की भरमार

हमारे देश में वैज्ञानिकों को जनता के बीच आने और अपने काम को बताने की आजादी नहीं है, पर विदेशों के वैज्ञानिक अब यह करने लगे हैं....

Update: 2022-12-09 11:34 GMT

प्रतीकात्मक फोटो

महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Outreach programs for scientists, defined as communications with groups beyond scientific community, benefits society and science too : जर्मनी में ब्रौन्स्च में स्थित टेक्निकल यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक डॉ फ्रेडेरिके हेंड्रिक्स और यूनिवर्सिटी ऑफ़ मुंस्टर के मनोवैज्ञानिक रिनेर ब्रोम्मे ने वैज्ञानिकों पर किये गए अनुसंधान के दौरान यह पाया कि जो वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं से समय निकालकर जनता से सीधा संवाद करते हैं, वे केवल समाज का ही नहीं बल्कि विज्ञान का भी भला करते हैं। यूरोप और अमेरिका में अनेक विश्वविद्यालय और शोध संस्थान वैज्ञानिकों को जनता से सीधे संवाद के लिए प्रशिक्षण दे रहे हैं और अपने यहाँ के वैज्ञानिकों को संवाद के लिए समय और आर्थिक सहायता भी दे रहे हैं।

इस अनुसंधान के लिए जर्मनी के यूनिवर्सिटी ऑफ़ मुंस्टर के विज्ञान से जुड़े संभी विभागों में कार्यरत वैज्ञानिकों और शोधार्थियों के अनुसंधान का और उनके जनता से सीधा संवाद का गहन अध्ययन किया गया। जनता से संवाद का मतलब है, वैज्ञानिक समुदाय से बाहर निकलकर आम जनता से, विद्यार्थियों से और दूसरे विषयों के विशेषज्ञों से संवाद।

आमतौर पर वैज्ञानिक समुदाय समाज से परे एक बिलकुल अलग दुनिया होती है। वैज्ञानिक अपने अनुसंधानों को जर्नल में प्रकाशित करते हैं और इन जर्नलों को केवल वैज्ञानिक समुदाय ही पढ़ता है। इसमें प्रकाशित शोधपत्रों की जटिल वैज्ञानिक भाषा आम जनता की समझ से परे होती है। वैज्ञानिक जब व्याख्यान भी देते हैं तब भी मंच पर और श्रोता केवल वैज्ञानिक ही होते हैं, पर अब यूरोप और अमेरिका में वैज्ञानिक छात्रों और सामान्य जनता के बीच पहुंचकर अपने अनुसंधान को रखने लगे हैं।

यूनिवर्सिटी ऑफ़ मुंस्टर के अध्ययन से अनेक रोचक तथ्य उभरकर सामने आये हैं। जब वैज्ञानिक जनता के बीच अपने अनुसंधान के साथ पहुंचते हैं तब वे सरल भाषा में विज्ञान को प्रस्तुत करते हैं, और इस क्रम में वैज्ञानिकों की सोच का दायरा और अनुसंधान का दायरा भी बढ़ जाता है।

सामान्य लोगों से वार्ता करने के बाद किसी विषय पर अनुसंधान के अनेक नए आयाम सामने आते हैं। सामान्य जनता के बीच अनेक बार दूसरे विषयों के विशेषज्ञ भी बैठे होते हैं, जिनके साथ वैज्ञानिक दूसरे विषयों को भी अपने अनुसंधान में शामिल करते हैं। इससे जनता को भी फायदा होता है – उनका वैज्ञानिक ज्ञान बढ़ता है और समाज में वैज्ञानिक चेतना का विकास होता है।

वैज्ञानिकों की अपनी दुनिया होती है, और वे अपनी दुनिया और काम में ही सीमित रहते हैं, पर जब हम समाज में वैज्ञानिक सोच की बात करते हैं तब इतना तो निश्चित है कि इसमें वैज्ञानिकों की बड़ी भूमिका कई और उन्हें अपने दायरे से बाहर आने की जरूरत है। हमारे देश में वैज्ञानिकों को जनता के बीच आने और अपने काम को बताने की आजादी नहीं है, पर विदेशों के वैज्ञानिक अब यह करने लगे हैं।

दरअसल विज्ञान की विडम्बना यह है कि सामान्य लेखक (भले ही पृष्ठभूमि विज्ञान की नहीं हो) ही विज्ञान को सामान्य जन तक पहुंचा रहे हैं। वैज्ञानिक तो अपनी बात रिसर्च पेपर्स के माध्यम से केवल दूसरे वैज्ञानिकों तक ही पहुंचा रहे हैं। हमारे देश में विज्ञान को सामान्य जन तक पहुंचाने का काम प्रोफेसर यशपाल ने बखूबी निभाया, पर यह परंपरा भी उनके साथ ही ख़त्म हो गयी।

विदेशों में कुछ बड़े वैज्ञानिकों ने, जिनमे थॉमस हक्सले और लुईस अगासिज प्रमुख हैं, ने सामान्य जनता के बीच भाषण देने की शुरुआत की, जिसे बाद में समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाता था। चार्ल्स डार्विन ने अपने विकासवाद के सिद्धांत को लोगों तक पहुंचाने के लिए सामान्य भाषा में स्वयं पुस्तक लिखी। वाटसन और क्रिक ने भी डीएनए की खोज के बाद "द डबल हेलिक्स" नामक पुस्तक लिखी। विज्ञान की पृष्ठभूमि के साथ रशेल कार्सन ने "साइलेंट स्प्रिंग" लिखी और पूरी दुनिया में पर्यावरण संरक्षण के लिए लोगों को जागरूक किया, पर विज्ञान की अंतहीन दुनिया में ये सारे प्रयास बहुत छोटे साबित हो रहे हैं।

वर्तमान समय सोशल मीडिया का है। सोशल मीडिया के जरिये कम समय में एक बड़ी आबादी तक पहुंचा जा सकता है। ऐसे में, इसका फायदा वैज्ञानिक जागरूकता के लिए आसानी से उठाया जा सकता है, पर इस क्षेत्र में वैज्ञानिक बहुत पीछे हैं। वर्ष 2014 में दुनियाभर के 3500 वैज्ञानिकों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि कुल 13 प्रतिशत वैज्ञानिक ही सोशल मीडिया का प्रयोग वैज्ञानिक जानकारी के लिए कर रहे हैं। अनुमान है कि वर्तमान में 40 प्रतिशत वैज्ञानिक अपनी वैज्ञानिक जानकारी के साथ सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।

सोशल मीडिया पर वैज्ञानिकों का सक्रिय होने क्यों जरूरी है, यह समझने के लिए हमारे देश के सत्ताधारी दल के मंत्रियों, प्रधानमंत्री और नेताओं के विज्ञान से सम्बंधित हास्यास्पद कथनों को याद करना जरूरी है। किसी ने कहा, गाय सांस लेने के समय ऑक्सीजन लेती है और सांस छोड़ने के समय भी ऑक्सीजन ही निकालती है, तो किसी ने कहा शंकर प्लास्टिक सर्जरी के जन्मदाता हैं। वायुयान तो हजारों साल से भारत में बनाए जा रहे हैं और दूसरे ग्रहों पर जाने वाले रॉकेट भी।

हजारों साल पहले परमाणु हथियार बना लिए गए थे। कोविड 19 का इलाज गौमूत्र और गोबर से होता है। ऐसे हरेक कथन सोशल मीडिया पर खूब चर्चित हुए और बीजेपी समर्थकों ने अपने तरफ से ऐसे सभी कथनों को सही साबित करने का प्रयास किया। जाहिर है, समाज का एक बड़ा वर्ग ऐसे कथनों को सही मानता है।

अमेरिका में हाल में ही एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि सत्ता पक्ष कितना भी बड़ा झूठ बोले, अधिकतर जनता उस पर भरोसा करती है। हालांकि, यह अध्ययन तापमान वृद्धि से जुड़े कथनों पर किया गया था, पर बाद में कोविड 19 के दौर ने बता दिया कि विज्ञान के हरेक क्षेत्र में जनता के सामने झूठ ही परोसा जाता है। इसे सभी मामलों में सही मान सकते हैं, कम से कम हमारे देश में तो यही हो रहा है।

एक तरफ जहाँ वैज्ञानिक सोशल मीडिया से अपनी दूरी बनाए हुए हैं, दूसरी तरफ विज्ञान के फेक न्यूज़ फैलाने वाले वर्ग इस पर बहुत सक्रिय हैं। सबसे अधिक सक्रियता तो तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के विरोधियों की है। तापमान वृद्धि के तथ्यों से सबसे अधिक प्रभावित जीवाष्म ईंधन उद्योग है, इसीलिये ये इसके विरोध में बहुत सारे झूठी खबरें फैलाता है। हाल में ही अमेरिका के मार्क मोरानो का मामला सामने आया था, जिन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से - तापमान वृद्धि एक झूठ है, से सम्बंधित विडियो को 50 लाख लोगों तक पहुंचाने में कामयाबी पाई थी। मार्क मोरानो अनेक जीवाष्म इंधन उद्योगों के प्रचार से जुड़े हैं, साइबरकास्ट न्यूज़ सर्विस से जुड़े हैं और कुछ रिपब्लिकन सीनेटर के मीडिया प्रभारी भी थे।

वर्तमान में पूरे विश्व में चर्चा हो रही है कि वैज्ञानिकों को सोशल मीडिया पर आना चाहिए, पर वैज्ञानिकों की दुविधा यह है कि अपने अनुसंधान को वैज्ञानिक जगत में वे रिसर्च पेपर्स के माध्यम से पहुंचते ही हैं, ऐसे में सोशल मीडिया का क्या लाभ है? सामान्य जनता क्या वैज्ञानिकों के काम में दिलचस्पी लेगी? इसका जवाब तीन वर्ष पहले "फेसेट्स" नामक जर्नल में प्रकाशित एक अनुसंधान के माध्यम से इसाबेल कोटे और एमिली डार्लिंग ने दिया है।

इस अनुसंधान के अनुसार जब तक किसी वैज्ञानिक के सोशल मीडिया पर एक हजार से कम फॉलोवर्स रहते हैं तब इनमें लगभग 65 प्रतिशत तक वैज्ञानिक ही होते हैं और शेष, यानी महज़ 35 प्रतिशत, सामान्य जनता, मीडिया और वैज्ञानिक संस्थान फॉलो करते हैं। पर यदि वैज्ञानिक लम्बे समय तक सोशल मीडिया पर रहते हुए एक हजार से अधिक लोगों तक पहुँच बनाने में कामयाब होते हैं तब जनता और मीडिया का प्रतिशत 54 प्रतिशत तक पहुँच जाता है।

सामान्य जनता और मीडिया तब अधिक पहुँच का सीधा सा मतलब है, आपकी बात तेजी से अधिक लोगों तक पहुँच जाती है क्योंकि वैज्ञानिकों की तुलना में सामान्य जनता के फॉलोवर्स अधिक होते हैं। इस अध्ययन में 10 से अधिक देशों के कुल 110 वैज्ञानिकों के सोशल मीडिया पर सक्रियता की समीक्षा की गयी थी, जिसमें महिला और पुरुष दोनों वैज्ञानिक शामिल थे।

अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ कि यदि किसी वैज्ञानिक ने अपने किसी रिसर्च पेपर का हवाला प्रकाशित होने के पहले सप्ताह में ही सोशल मीडिया पर दिया तब उस रिसर्च पेपर को अधिक वैज्ञानिकों ने उधृत किया, यानि यह ज्यादा चर्चित रहा।

इस अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है, सोशल मीडिया वैज्ञानिकों को अपने तथ्य एक बड़ी जनसंख्या तक पहुँचाने का आसान मौका देता है और वैज्ञानिक समुदाय में चर्चित भी बनाता है।

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