Ram Manohar Lohia 54th Death Anniversary : देवों ने हमें नहीं, करोड़ों हिंदुस्तानियों ने राम-कृष्ण-शिव को बनाया -डॉ. लोहिया

Ram Manohar Lohia 54th Death Anniversary : राम-कृष्‍ण के मुकाबले शिव में लोहिया यह खूबी पाते हैं कि उनके हर काम का औचित्‍य खुद सिद्ध होता चलता है, उनका हरेक किस्‍सा अपने आप में उचित है, उनकी अधिकांश किंवदंतियां आदमी की छाती चौड़ी करने वाली हैं...

Update: 2021-10-12 04:53 GMT

राम, कृष्‍ण और शिव लोहिया की नजर में (photo : social media)

वरिष्ठ लेखक और कवि कुमार मुकुल की टिप्पणी

Ram Manohar Lohia 54th Death Anniversary, जनज्वार। तीन भारतीय देवताओं राम, कृष्‍ण और शिव पर लोहिया ने अपने कई लेखों में विचार किया है। वे कहते हैं कि यह बहस फिजूल है कि वे ऐतिहासिक थे या नहीं, महत्‍वपूर्ण यह है कि उनमें ऐसा क्‍या है कि बुद्ध और अशोक जैसे ऐतिहासिक लोगों की बनिस्पत भारतीय जनता इनकी कथाएं ज्‍यादा याद रखती है। इनमें शिव तो किंवदंती ही हैं, कुछ लोग उन्हें इंजीनियर मानते हैं जो गंगा को मैदानों में ले आए। ऐसी ही किंवदंतियां राम-कृष्‍ण को लेकर भी हैं।

लोहिया कहते हैं कि -'किसी भी देश की हंसी और सपने ऐसी महान किंवदंतियों में खुदे रहते हैं। हंसी और सपने, इन दो से और कोई बड़ी चीज दुनिया में हुआ नहीं करती है। जब कोई राष्‍ट्र हंसा करता है तो वह खुश होता है, उसका दिल चौड़ा होता है और जब कोई राष्ट्र सपने देखता है, तो वह अपने आदर्शों में रंग भरकर किस्‍से बना लिया करता है।'

लोहिया कहते हैं कि आम तौर पर हम समझते हैं कि इन देवों ने हमें बनाया है लेकिन ज्‍यादा सही यह है कि करोड़ों हिंदुस्तानियों ने हजारों सालों में 'राम, कृष्‍ण और शिव को बनाया।' लोहिया कहते हैं कि हो सकता है कि इन देवों का सारा किस्‍सा बेमतलब का हो, जितना बेमतलब का होगा उतना ही वह अच्‍छा होगा, 'क्‍योंकि हंसी और सपने बेमतलब हुआ करते हैं'। सवाल है कि इसका असर कितना होता है और उन्‍हें याद कर लोगों की छाती कितनी चौड़ी होती है, यही मूल बात है।

अब राम को ही लीजिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है, वे जो मन आए सो नहीं कर सकते, उनका एक दायरा बंधा है। इसीलिए उनमें आठ ही कला मानी गयी है पर कृष्‍ण में सोलह कलाएं मानी गयी हैं। कृष्‍ण ज्‍यादा संपूर्ण हैं] पर कृष्‍ण झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, धोखा देते हैं। अन्याय अधर्म के सारे काम करते हैं। कृष्‍ण बिना मर्यादा के अवतार हैं। 'लेकिन इसके यह मानी नहीं कि जो कोई झूठ बोले और धोखा करे वही कृष्‍ण हो सकता है।'

लो‍हिया कहते हैं कि राम शब्‍द बहुत अच्‍छा है। इसमें एक राग है। गांधी को एक मर्यादित नायक चाहिए था तो वह राम का नाम लिया करते थे। लोहिया को शायद ध्‍यान नहीं था कि गांधी दशरथ के पुत्र राम को नहीं बल्कि कबीर की परंपरा से चले आ रहे निर्गुण राम को मानते थे। वे लिखते हैं कि कृष्‍ण अपनी बोली की बुनियाद बदल देते थे, पर राम नहीं बदलते थे। यहां लगे हाथ वे गांधी जी का भी विश्‍लेषण कर डालते हैं कि वे नाम तो राम का लेते थे, पर उनकी बोली भी कृष्‍ण की तरह बदल जाया करती थी ऐसा उन्‍होंने गांधीजी के लेखन को ध्‍यान में रख कर लिखा है कि अखबारों में आने वाले उनके लेखों में इन बदलावों को देखा जा सकता है।

वे लिखते हैं कि 'जिस चीज को आज अहिंसा कहा, उसी को दो-तीन महीने बाद हिंसा कह डाला...।' फिर वे सफाई देते हैं कि इसका यह मतलब नहीं कि गांधी मेरी नजरों में गिर गये, बोली बदलने के कारण अगर कृष्‍ण मेरी नजर में नहीं गिरे तो गांधी क्‍यों गिर जाएंगे। यहां वे गांधी जी के एक झूठ का याद करते हैं कि लोगों को प्रभावित करने के लिए एक बार भूकंप के बाद उन्‍होंने कह दिया कि यह अछूत प्रथा के पाप का फल है। राम-कृष्‍ण के मुकाबले लोहिया शिव की किंवदंती पर कम नहीं रीझते। कि शिव का तो न आगा है न पीछा, असीम हैं वे। राम-कृष्‍ण के मुकाबले शिव में वे यह खूबी पाते हैं कि उनके हर काम का औचित्‍य खुद सिद्व होता चलता है,उनका हरेक किस्‍सा अपने आप में उचित है,उनकी अधिकांश किंवदंतियां आदमी की छाती चौडी करने वाली हैं।

राम-कृष्‍ण-शिव की विवेचना करते एक मजेदार निष्‍कर्ष निकालते हैं लोहिया। वे इसका आकलन करते हैं कि भारत के किन हिस्‍सों में किनका प्रभाव है। कहां राम चलता है, कहां कृष्‍ण चलता है और कहां शिव चलता है। इन त्रिदेवों की बीबियों को वे उनके साथ चलता गिनते हैं। राम के साथ सीता और हनुमान को खुद चलता मान लिया जाना चाहिए। आगे और मजेदार निष्‍कर्ष निकालते वे कहते हैं कि जिन इलाकों में शिव का नाम चलता है उनमें कम्‍युनिस्‍टों का आधार है और राम का इलाका सोशलिस्‍टों का है और बाकी जनसंघियों के इलाके में कृष्‍ण की चलती है।

आगे कम्‍युनिस्‍टों के यहां शिव की बढ़त की व्याख्या करते वे कहते हैं कि शिव की पलटन में लूले-लंगडे-भूखे और भूत-प्रेत हैं, इसके मानी हुआ, 'गरीबों का आदमी।' वे अपने तई राम-कृष्‍ण-शिव की एका की बात करते हैं और देखते हैं कि बड़े लेखकों ने ऐसा किया भी है। ऐसे एका कराने वाले बड़े लेखकों को वे 'मामूली आदमी' नहीं 'बहुत बड़ा आदमी' कहते हैं। इस संदर्भ में हम देखें तो लोहिया की यह एका की क‍ोशिश आगे एक आंशिक रूप से पूरी भी हुयी, चाहे छोटे समय के लिए ही पर वीपी सिंह के समय वाम-दक्षिण ने उनके साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ सरकार बनायी थी।

इस सरकार के बाद ही लालू, मुलायम आदि लोहियावादियों को बढत मिली और कम्‍युनिस्‍ट भी पहली बार गृहमंत्री बना और उनके हाथ प्रधानमंत्री का पद भी आते आते रह गया या उन्‍होंने उसे ठुकरा दिया। तो कुल मिलाकर लोहिया की इन कथा वार्ताओं का मतलब लोगों के बीच के चले आ रहे सांस्‍कृतिक विभेदों को कम कर उन्‍हें जोड़ना है। आगे वे लिखते भी हैं कि इन तीन किंवदं‍तियों को सामने रखने का उनका मकसद था कि लोगों की 'तबियत कुछ खुश हो, आप कुछ हंसें और कुछ सपने देखें।'

इन कथाओं को और उसके दर्शन को गीत-कविता के माध्‍यम से जिंदा रखने की भारतीय लोगों की तकनीक को भी लोहिया सराहते हैं और गीता की सराहना इस रूप में करते हैं कि लडाई के मैदान में अपने दर्शन को इस तरह गीतों के माध्‍यम से रखने की हमारी मिसाल अकेली है कि ऐसी कोशिशें दुनिया में और भी हुयी हैं, पर उन्‍हें ऐसी सफलता नहीं मिली।

(यह लेख कुमार मुकुल की पुस्तक 'डॉ. राममनोहर लोहिया और उनका जीवन दर्शन' से)

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