60 साल में सांसदों की सैलरी बढ़ी 1250 गुना, लेकिन प्रति 1 हजार की आबादी पर आज भी अस्पताल में एक बेड नहीं नसीब
हमारे देश में सालाना प्रति व्यक्ति आय को अगर देखें तो वो करीब 1 लाख रुपये है। यानी औसतन हर भारतीय साल में 1 लाख रुपए कमा लेता है, लेकिन क्या हमारे द्वारा चुने गए नेताजी के तनख्वाह के बारे में आप जानते हैं?
सुनील मौर्या की स्पेशल रिपोर्ट
कभी सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा भारत देश...कोरोना काल में कैसे बेबस और लाचार बन चुका है, अब ये किसी से छुपा नहीं है। देश में लोगों की आमदनी तो बढ़ी लेकिन पैसे रहते हुए भी हम इलाज को तरस जा रहे हैं। ऑक्सीजन के बिना दम तोड़ रहे हैं। आजादी के 74 साल बाद हम कहां खड़े हैं... कोरोना महामारी ने हम सभी को ये महसूस करा दिया है। अंदर तक झकझोर दिया है। क्या गरीब और क्या अमीर? हर कोई कोरोना से जंग लड़ रहा है। ऐसी जंग जिसमें दुश्मन के हाथ में तो आधुनिक हथियार है और हम पूरी तरह से निहत्थे। असहाय...। वो बार-बार आक्रमण कर रहा है और हम मौत की गिनती गिन रहे हैं।
हाथ में पैसे हैं लेकिन अस्पताल में बेड नहीं। हाथ में पैसे हैं लेकिन सांसों के लिए ऑक्सीजन नहीं। यहां तक की मरने के बाद बहुत से लोगों को ना ही कफन नसीब हो रहा और ना ही अत्योष्टि के लिए 2 गज जमीन मिल पा रही। हर घर में कोरोना का कहर है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि इस महामारी में भी हमें अस्पतालों में एक बेड भी आखिर क्यों नहीं मिल पा रहा है। दरअसल, हमारे देश में 1 हजार की आबादी के लिए सिर्फ आधा बेड ही उपलब्ध है। ये स्थिति कुछ सालों से नहीं बल्कि पिछले 60 सालों से बनी हुई है। क्योंकि हमने पिछले 60 वर्षों में देश में स्वास्थ्य को लेकर कभी सवाल नहीं उठाए।
ये सवाल ना ही हमने अपने नेताओं से पूछा और ना ही अपने अधिकारियों से। हमने सिर्फ मंदिर और मस्जिद की बात की। यही वजह है कि हमारे देश में 1 हजार लोगों पर हॉस्पिटल का एक बेड भी उपलब्ध भी नहीं है। चौंकिए नहीं....वर्ष 1960 में भी हमारे देश में प्रति एक हजार आबादी पर 0.4 हॉस्पिटल बेड ही उपलब्ध थे। यानी उस समय भी आधे से भी कम बेड पर ही गुजारा करना पड़ता था और आज भी। तो फिर हमारे देश में तरक्की क्या हुई? तरक्की शायद सिर्फ नेताओं और बड़े उद्योगपतियों की ही हुई। आज भी हमारा देश स्वास्थ्य सेवाओं में सदियों पुराना है।
कभी आपने सोचा है कि जिस सरकारी अस्पताल में आम जनता का इलाज किया जाता है उसी अस्पताल के अधिकारी कभी अपना इलाज उसमें क्यों नहीं कराते? जिस जिले का सबसे बड़ा स्वास्थ्य अधिकारी यानी सीएमओ के बारे में कभी सुना है कि बीमार होने पर वो सरकारी अस्पताल में इलाज कराया हो? कभी सुना है कि किसी जिले का मुखिया यानी डीएम बीमार होने पर किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती हुआ है? नहीं सुना होगा। क्योंकि हमारे देश का स्वास्थ्य सिस्टम हमेशा से बदतर हालात में रहे हैं। और आगे भी रहेंगे। क्योंकि हमने कभी इस पर सवाल ही नहीं उठाया है। इसलिए आज की ये विशेष रिपोर्ट देखिए।
कोरोना महामारी में आपने देखा होगा कि कैसे लोग अस्पताल में एक-एक बेड पाने के लिए तरस जा रहे हैं। कई गुना पैसे देने को तैयार हैं लेकिन अस्पताल में एक बेड मिलना मुश्किल है। ऐसा क्यों हो रहा है ? क्या आपने सोचा है। अगर नहीं सोचा है। तो अब सोचिए। क्योंकि अभी नहीं जागे तो हमेशा सोते ही रह जाएंगे।
सबसे पहले इन आंकड़ों पर गौर फरमाइए। वर्ष 1960 में हमारे देश की आबादी करीब 45 करोड़ थी। वर्ल्ड डेटा बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, 1960 में हमारे देश में प्रति 1 हजार आबादी पर हॉस्पिटल बेड की उपलब्धता 0.4 थी। यानी आधे बेड से भी कम बेड 1 हजार लोगों पर था। ये भी कह सकते हैं ढाई हजार की आबादी पर एक बेड उपलब्ध था। अब 60 साल बीत चुके हैं। क्या इतने सालों में कितनी सरकारें बनीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने नए भारत का सपना दिखाया था। कहा था दुनिया में भारत की नई पहचान बनेगी। वाकई नई पहचान बनी है। जरा इन आंकड़ों को भी देख लीजिए।
पूरी दुनिया में प्रति एक हजार की आबादी पर हॉस्पिटल में औसतन 2.9 बेड उपलब्ध हैं। लेकिन भारत एक ऐसा देश है जहां पिछले 60 साल में कोई खास फर्क नहीं नजर आया। हाल में आई एक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि भारत में अभी भी प्रति एक हजार 0.5 बेड ही उपलब्ध है। यानी दो हजार आबादी पर सिर्फ एक बेड उपलब्ध है। जबकि दुनिया में औसतन एक हजार पर 3 बेड उपलब्ध हैं।
अब तुलना जरा अपने पड़ोसी देश से भी कर लें तो हमारे भारत के हुक्मुरान को शायद थोड़ी शर्म आ जाए। जिस पाकिस्तान पर हमारे देश की गोदी मीडिया रोजाना शोर मचाती है वहां भी प्रति एक हजार लोगों पर हमारे देश से बेहतर हॉस्पिटल बेड हैं। पाकिस्तान में 0.6 बेड उपलब्ध हैं जबकि श्रीलंका में प्रति एक हजार लोगों पर 4.2 बेड हैं। अफ्रीका के गरीब देश केन्या में 1.4 बेड और जिम्बाबवे में 1.7 बेड उपलब्ध हैं। वहीं, पूरी दुनिया की बात करें तो सबसे ज्यादा स्वास्थ्य में सक्षम जापान है। यहां प्रति एक हजार की आबादी पर अस्पतालों में 13 से ज्यादा बेड उपलब्ध हैं। अमेरिका में ये बेड 2.9, ब्रिटेन में 2.5 और मंगोलिया में 8.0 बेड हैं।
लेकिन अब जरा अपने देश में हमारी भलाई का दावा करने वाले सांसदों की सैलरी पर एक नजर डालते हैं। क्या आप जानते हैं कि इतने वर्षों में जिन्हें वोट देकर हम अपने देश का सांसद चुनते हैं उनकी सैलरी में कितनी बढोतरी हुई है। अगर आपको याद नहीं है तो हम आपको याद दिला देते हैं।
सांसदों की सैलरी 36 बार बढ़ाई जा चुकी है। इनकी सैलरी 1250 गुना से भी ज्यादा बढ़ चुकी है। रुकिए...शायद आपको लग रहा होगा कि मैंने गलत बोल दिया। 1250 गुना। ये बिल्कुल सही सुना है आपने। जो सांसद पहले जहां कुछ सौ रुपये और फिर 10 से 15 हजार रुपये पाते थे अब वो महीने में करीब 3 लाख रुपये पाते हैं। ये स्थिति तब है जब औसतन सभी सांसदों के पास 21 करोड़ की संपत्ति है।
हमारे देश में सालाना प्रति व्यक्ति आय को अगर देखें तो वो करीब 1 लाख रुपये है। यानी औसतन हर भारतीय साल में 1 लाख रुपए कमा लेता है, लेकिन क्या हमारे द्वारा चुने गए नेताजी के तनख्वाह के बारे में आप जानते हैं? अगर नहीं, तो ये जानकारी आपको हैरान कर देगी। इन जनप्रतिनिधियों को सैलरी के अलावा इतना भत्ता मिलता है जिसकी आप और हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
एक सांसद को हर माह 1 लाख 40 हजार रुपए फिक्स मिलता है जिसके ऊपर इससे ज्यादा भत्ता दिया जाता है। एक सांसद को सैलरी के अलावा करीब 1 लाख 51 हजार 833 रुपए प्रतिमाह यानी 18 लाख 22 हजार रुपए सालाना भत्ता दिया जाता है। यानी एक सांसद को एक महीने में करीब 3 लाख रुपए वेतन पाता है। यानी देश को एक सांसद सालाना 35 लाख रुपए का पड़ता है।
इससे अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे देश ने 60 साल में आखिर क्या पाया? सांसदों की 1250 गुना ज्यादा सैलरी बढ़ाई लेकिन जिन अस्पतालों और बेड की जरूरत थी वो आज भी 1 हजार पर आधे बेड तक ही सीमित है। अब फैसला आपके हाथ में है कि आप हमेशा नेता ही चुनते रहेंगे या भाग्यविधाता।