विश्व हाथी दिवस पर विशेष : इन्वायरॉन्मेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट को सरल बनाने से और असुरक्षित हो जाएंगे हाथी
हाथियों के मानव जनित कारणों से मौत के मामले लगातार बढ रहे हैं। इस पशु के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं है, ऐसे में इसके महत्व को लेकर जागरूकता बढाना आवश्यक है...
वरिष्ठ पत्रकार अभिलाष खांडेकर का विशेष आलेख
विश्व हाथी दिवस १२ अगस्त मनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य इस विशालकाय स्तनपायी जानवर के संरक्षण को लेकर देशभर में जागरूकता बढ़ाना है। चूँकि गजराज भारत के कुछ ही राज्यों में पाए जाते हैं, इसलिए इस बढ़िया जंगली जानवर की उपयोगिता, उसका वन संरक्षण में दिया जाने वाला योगदान या हाथियों के सम्मुख खड़ी अस्तित्व की चुनौतियों आदि के बारे में आमजन में अधिक जानकारी नहीं हैं। हाँ, हाथियों के बारे में रुचि और उत्सुकता लगभग हर उम्र के लोगों में हमेशा पाई जाती रहीं हैं।
जैसे 'अंतराष्ट्रीय बाघ दिवस' हमारे यहाँ धूमधाम से मनाया जाता हैं उसी तर्ज़ पर 'विश्व हाथी दिवस' मनाने की शुरुआत वर्ष २०१२ से प्रारंभ हुईं। वैसे इस विशालकाय प्रजाति का इतिहास क़रीब साढ़े पाँच करोड़ वर्ष पूर्व का है, जबसे हाथी पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों पर पाया जाता रहा है। पुराणों में ऐरावत हाथी का ज़िक्र मिलता है जो इंद्र भगवान का हाथी था और जिसे ऐश्वर्य का प्रतीक माना गया है। हिंदू धर्म में भगवान श्री गणेश को हाथी का प्रतिरूप माना गया हैं। गणेशोत्सव भारत में काफ़ी भक्तिभाव से भव्य स्तर पर मनाया जाता है। इतिहास में काफ़ी वर्णन इस बात के भी मिलते हैं जिसमें राजा-महाराजाओं की हस्ती, शक्ति और वैभव का आकलन उनके पास पाले हुए हाथियों की संख्या से भी होता था। आज भी दक्षिण राज्यों के धनी मंदिरों के ट्रस्ट्स के पास कई पालतू हाथी रखे हुए हैं।
ख़ैर, भारत में बाघ जैसे ही जंगली हाथियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मँडरा रहे हैं, पिछले कुछ दशकों से। इसी के चलते प्रोजेक्ट टाइग जैसी प्रोजेक्ट एलिफ़ण्ट परियोजना शुरू हुईं। बाघ परियोजना १९७३ में प्रारंभ की गईं और क़रीब दो दशकों के बाद, १९९२ में हाथी संरक्षण परियोजना भारत सरकार द्वारा शुरू की गईं क्योंकि हाथी विशेषज्ञों द्वारा वन और पर्यावरण मंत्रालय को लगातार चेताया जा रहा था कि इस संकटग्रस्त प्रजाति को बचाना अत्यंत आवश्यक हैं। प्रो डीके लाहीरी चौधरी, प्रो सुकुमार जैसे जानकारों ने सरकार पर दबाव बनाया था। विनोद ऋषि और किशोर राव प्रारम्भ में परियोजना संचालक रहे। परियोजना प्रारंभ तो हो गई परंतु कम बजट, वैज्ञानिक तरीक़े से गज़ गणना का अभाव, अवैध शिकार को रोकने में राज्य सरकारों की असफलता के कारण उस समय पूरे देश में सिर्फ़ १५, ००० हाथी पाए जाने का अन्दाज़ लग सका था।
हाथियों की गणना उस समय भी आसान नहीं थी, ना आज है। बाघ गणना में कैमरे के उपयोग से गिनती संभव होती है, किंतु वही पद्धति हाथियों के मामले में कई कारणों से अनुपयोगी मानी गई। वर्ष २०१७ की पर्यावरण मंत्रालय की आखिरी गणना के अनुसार आज देश में भारतीय हाथी, जो एशियन हाथी की उप प्रजाति हैं, की संख्या २९, ९६४ मानी जाती हैं, अर्थात लगभग ३०, ०००। किंतु लगातार कटते हमारे वन, रेल दुर्घटनाओं, अवैध शिकार और मनुष्य-हाथी संघर्ष के चलते हाथियों पर चल रहा संक्रमण थमा नहीं है। पाठकों को निश्चित ही पिछले दिनों की वह दुःखद तस्वीर याद होगी जब एक गर्भवती हथिनी केरल की वेल्लियर नदी के पानी में निश्चल खड़ी रहीं, अपनी मौत का इंतज़ार करते हुए।
असल में अनानास के फल में लपेटे हुए एक बम जैसी विस्फोटक सामग्री को खाने से उसकी अकाल मौत हुई थी। सोशल मीडिया पर जारी हुई उस तस्वीर ने जनमानस को हिला कर रख दिया था। ऐसे अनैतिक और अवैध तरीक़ों का उपयोग हाथियों के शिकार के लिए आज भी धड़ल्ले से जारी है। चुुनौतिया खत्म नहीं हुई हैं।
ब्रिटिश शासन काल में, एलेफ़ण्ट प्रटेक्शन ऐक्ट १८७९ बनाया गया था किंतु भारत स्वतंत्र होने के कईं वर्षों के पश्चात भी हाथियों के संरक्षण का मुद्दा सरकार की प्राथमिकताओं में शुमार नहीं रहा। कोई क़ानून अलग से नहीं बना इस भव्य गजराज के लिए। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में १९७२ जब वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम बना तो उससे चिंता थोड़ी कम हुईं। किंतु १९७७ में जाकर उसी अधिनियम की अनुसूची एक में हाथी को सम्मिलित कर उसके संरक्षण की दिशा में पहला ठोस क़दम उठाया गया।
आज भारत में असम, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और थोड़े हाथी छत्तीसगढ़ के वनों में पाए जाते हैं। कर्नाटक में सर्वाधिक ६००० से अधिक, फिर असम में और केरल में हाथियों की बहुतायत हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अब जंगली हाथी नहीं मिलते हैं। नर्मदा नदी में कईं बरस पहले मॅॅॅमथ के कंकाल मिले थे। अब कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ में हाथियों का प्रवेश हुआ है, जबसे झारखंड में अनियंत्रित खनन का काम ज़ोरों से शुरू हुआ और वनों पर मानवीय दबाव बढ़ते गया। हालिया समय में इसी छत्तीसगढ़ से कुछ झुंड बान्धवगढ़, मध्य प्रदेश में भी प्रविष्ट हुए हैं।
हाथी एक सामाजिक प्राणी है और अक्सर झुंडों में पाया जाता है और दिन भर में काफ़ी दूर-दूर तक और तेज़ी से चलता है। दिन में क़रीब १०० लीटर पानी इसे चाहिये। खाने को भी ख़ूब पशु आहार लगता है। इसी कारण, घने व बड़े वनक्षेत्र इनका अधिवास होते हैं। सरकारी आँकड़े कुछ भी कहें, देश में वन तो तेजी से कम हो ही रहे हैं और इसी कारण हाथियों के चलने के जो पारम्परिक मार्ग काॅरिडोर हैं वह विलुप्त होते जा रहे हैं।
हाथी विशेषज्ञ विवेक मेनन कहते हैं कि उनके वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया ने दो वर्ष पूर्व देश के क़रीब १०१ उन कॉरिडोर को चिह्नित किया है जिन्हें तुरंत बचाना आवश्यक है। ये वे मार्ग हैं जिनसे हाथी सैकड़ों सालों से खाते-पीते गुजरते रहे हैं। इस जानवर की यह विशेषता है कि उसकी याददाश्त बहुत अच्छी होती है। पीढ़ियों पूर्व के अधिवास और चलने के सैकड़ों किलोमीटर के मार्ग उन्हें मालूम रहते हैं, याद रहते हैं। यही कारण है कि उन मार्गों पर सड़कें, रेल मार्ग, होटेल या अन्य ऐसे ही बड़े निर्माण कार्यों को सख़्ती से व क़ानूनन रोका जाय। यह बड़ी चुनौती है।
हाथियों के तेज़ चलती रेलगाड़ियों की टक्कर से मारे जाने के मामले भी आम बात हैं। रेल मंत्रालय ने यह सुझाव कुछ हद तक माना भी था कि हाथियों के इलाक़ों से रात को तेज़ चलने वाली गाड़ियों की गती को हर हालत में कम से कम रखा जाय। किंतु दर्दनाक हादसे रेल मार्गों पर होते रहते हैं। आँकड़े बताते हैं कि रेल हादसे असम में कम हुए तो ओडिशा में बढ़ गये। इलेक्ट्रिक शॉक से गत तीन वर्षों में १९० हाथियों की जान गई और अवैध शिकार से भी क़रीब २०० हाथी मारे गए, २०१७-२०१९ की अवधि में।
डॉक्टर मनमोहन सिंह सरकार ने हाथियों के संरक्षण से जुड़ी चुनौतियों को समझने और सुलझाने के लिए एक टास्क फ़ोर्स २०१० में बनाया था। महेश रंगराजन उसके प्रमुख थे। उसने कई महत्वपूर्ण सुझाव सरकार को दिए जिसमें हाथी को विरासत का जानवर ( Heritage Animal) का दर्जा देकर संरक्षण की कार्ययोजना भी शामिल थी।
हाथी विशेषज्ञ अब कॉरिडर्ज़ बचाने की रणनीति पर काम कर रहें हैं। देश के ३० एलेफ़ण्ट रिज़र्व में भी हाथियों को सुरक्षित रखने का काम प्रोजेक्ट एलेफ़ण्ट कर रहा है। किंतु जिस तरह केंद्र सरकार इन्वायरॉन्मेंट इम्पैक्ट असेस्मेंट ( EIA) की प्रक्रिया को और अधिक सरल बना रही बड़े अधोसंरचना प्रकल्पों के लिए, उसके चलते वनों पर गाज गिरना तय है। हाथी और बाघ दोनों पर ख़तरा और बढ़ेगा। सरकार को यह समझना ही होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, संपादक व संरक्षित पशु मामलों को अध्येता व विशेषज्ञ हैं।)