दुनिया के सबसे बड़े कोरोना टीकाकरण से भागते फ्रंटलाइन वर्कर्स, वैज्ञानिकों ने क्यों साधी चुप्पी
वैज्ञानिक चुप हैं, शासन-प्रशासन कोरोना टीकाकरण के आंकड़े बढाने और संक्रमण के आंकड़े घटाने में व्यस्त, मगर फ्रंटलाइन वर्कर्स को नहीं टीके पर भरोसा...
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय का विश्लेषण
जनज्वार। दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन कर रहे किसानों ने सरकार से 10 राउंड की वार्ता के बाद भी बार-बार कहा है कि उन्हें सरकार पर भरोसा नहीं है। पर, केवल किसान ही सरकार पर भरोसा नहीं कर रहे हों ऐसा भी नहीं है, अब तो कोविड 19 के टीकाकरण के लिए पंजीकृत फ्रंटलाइन वर्कर्स भी टीके पर तमाम सरकारी दावों के बाद भी सरकार पर भरोसा नहीं कर रहे हैं। बड़े तामझाम से प्रधानमंत्री ने लगभग एक सप्ताह पहले तथाकथित दुनिया के सबसे बड़े कोविड 19 टीकाकरण का शुभारम्भ किया था। इस पूरे कार्यक्रम में दुनिया के सबसे बड़े कार्यक्रम पर खूब जोर दिया गया, टीके पर उठते सवालों पर कोई वैज्ञानिक जवाब नहीं दिया गया।
सरकारी उत्साह का आलम यह था कि ऑक्सफ़ोर्ड-ऐस्त्रोजेनिका की वैक्सीन कोवीशील्ड को भी पूरी तरीके से स्वदेशी बता दिया गया। सवाल उठाने वालों को भारतीय वैज्ञानिकों की दुहाई दी गई, पर आज तक एक भी भारतीय वैज्ञानिक का नाम नहीं बताया गया है, जिसने वैक्सीन पर अनुसंधान किया हो। इस जल्दीबाजी में वैक्सीन परीक्षण के अंतर्राष्ट्रीय मानकों को भी भुला दिया गया। 1 जनवरी के बाद से अनावश्यक सरकारी तत्परता, उतावलापन और प्रचार ने इस टीकाकरण अभियान को ही संदेह के घेरे में ला दिया।
अब बहुचर्चित टीकाकरण अभियान का आलम यह है कि दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान संस्थान में एक दिन में 100 पंजीकृत फ्रंटलाइन वर्कर्स के बदले 8-9 व्यक्ति ही पहुँच रहे हैं। लगभग एक सप्ताह बाद देश में कुल पंजीकृत व्यक्तियों में से महज 64 प्रतिशत ही वैक्सीन लेने पहुंचे। तमिलनाडु के लिए आंकड़े महज 22 प्रतिशत और पंजाब के लिए 23 प्रतिशत ही हैं।
टीकाकरण अभियान से लोगों के नहीं जुड़ने का सबसे बड़ा कारण सुरक्षा और टीके के प्रभाव से सम्बंधित सरकारी दावों पर अविश्वास, कुछ भ्रामक प्रचार और इससे सम्बंधित ऐप में गड़बड़ी है। वैसे भी जब से सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप के बारे में यह बताया था कि इसे किसने बनाया सरकार को पता ही नहीं, तब से कोविड 19 से सम्बंधित किसी भी सरकारी ऐप पर से लोगों का भरोसा कम हो गया है।
सरकार ने देश में टीकाकरण का प्रतिदिन दस लाख लोगों का लक्ष्य रखा है, पर वास्तविक आकड़ों के अनुसार प्रतिदिन 2 लाख से 6 लाख व्यक्ति ही इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। सरकारी दावों के अनुसार अगस्त तक लगभग 30 करोड़ लोगों को टीका दिया जाने का लक्ष्य है, पर वास्तविक दर के अनुसार इस आंकड़े तक पहुँच पाना असंभव होगा। दिल्ली में भी केवल 44 प्रतिशत पंजीकृत फ्रंटलाइन वर्कर्स टीका लेने पहुंचे। मुंबई के लिए ये आंकड़े 48 प्रतिशत और कर्नाटक के लिए महज 47 प्रतिशत ही हैं।
टीकाकरण अभियान के पहले कोवीशील्ड की दक्षता 75 प्रतिशत बताई जा रही थी, पर इस अभियान के बाद अब इसे महज 62 प्रतिशत ही बताया जा रहा है। दूसरी तरफ भारत बायोटेक की कोवैक्सीन की तरफ से टीकाकरण अभियान शुरू होने के तीन दिनों बाद बताया गया कि कुछ रोगों से ग्रस्त व्यक्ति इस टीके को न लें। इससे जाहिर है टीके के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है। कोवैक्सीन की दक्षता के बारे में आज तक कोई भी जानकारी नहीं दी गई है, बस यह बताया जा रहा है कि यह प्रभावी और सुरक्षित है।
अब तक टीका लेने वाले 5 व्यक्तियों की मृत्यु भी हो चुकी है, जिसे सरकार बिना जांच के ही टीके के असर से परे बता रही है। जाहिर है फ्रंटलाइन वर्कर्स टीके पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं, और दूसरी तरफ सरकार तांडव, पश्चिम बंगाल चुनाव और अर्नब गोस्वामी को बचाने में व्यस्त है।
इस बीच यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैंब्रिज में किये गए एक अनुसंधान के अनुसार कोरोना संक्रमित व्यक्ति के बोलने से खांसने की अपेक्षा अधिक वायरस हवा में फैलते हैं। इस अध्ययन के अनुसार खांसने से हवा में बड़ी बूंदें पहुँचती हैं, जो भारी होने के कारण जल्दी ही जमीन पर पहुँच जाती हैं और दूर तक नहीं फैलतीं, पर बोलने के दौरान महीन बूंदें हवा में फैलती हैं और हल्केपन के कारण हवा में देर तक रहती हैं।
इन वैज्ञानिकों के अनुसार किसी कोरोना संक्रमित व्यक्ति के 30 सेकंड तक बोलने के एक घंटे बाद हवा में वायरस की मौजूदगी एक बार खांसने के एक घंटे बाद की अपेक्षा अधिक रहती है। जरा सोचिये हमारे सभी नेता बिना मास्क के ही जनता के बीच बस बोलते ही रहते हैं, यदि विश्वास नहीं होता तो पश्चिम बंगाल चुनाव से सम्बंधित किसी भी वीडियो फुटेज को फिर से देख लीजिये।
हाल में ही एक नए अध्ययन से यह खुलासा भी हुआ है कि पश्चिम बंगाल के सुंदरबन क्षेत्र में वर्ष 2020 में स्थानीय निवासियों के जंगली जानवरों से भिडंत के मामले अधिक आये हैं। वर्ष 2020 में कुल 21 लोगों ने बाघ के हमले में जान गवाई, जबकि इससे पहले के वर्षों के लिए यह आंकड़ा 10 से 12 मौतों का ही था। दरअसल सुंदरवन में रहने वाले अधिकतर पुरुष रोजगार के लिए बड़े शहरों में चले जाते हैं, पर लॉकडाउन के कारण जब रोजगार के अवसर ख़त्म हो गए तब उन्हें लौटना पड़ा। इस इलाके में मछली पकड़कर ही उन्हें अपना गुजारा करना पड़ा, जिससे अधिक व्यक्ति घने जंगलों में पहुँचाने लगे और बाघों का शिकार बन गए।
कोविड 19 के केवल टीकाकरण से सम्बन्धित सवाल ही नहीं हैं, बल्कि इसके तो हरेक मामले पर सवाल ही सवाल हैं – जिनका उत्तर सरकार ने कभी नहीं दिया है। वैज्ञानिक चुप हैं और प्रशासन टीकाकरण के आंकड़े बढाने और संक्रमण के आंकड़े घटाने में व्यस्त है। ऐसे में यदि फ्रंटलाइन वर्कर्स को ही टीके पर भरोसा नहीं है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।