बहुत कुछ है बदल देने को इस मुश्किल ज़िंदगी में, पर ना जाने क्यों फिर भी एक जिजीविषा जो थमती नहीं

अकेली होते हुए भी वह अकेली नहीं,कितना कुछ जम कर काँसा हो गया है उसके भीतर, गंदे बर्तन और उनकी बदबू, कूड़े से निकलती सड़ांध, झाड़ू पोछा लोटा बर्तन....

Update: 2025-07-22 16:34 GMT

युवा कवि शशांक शेखर की कविता 'मेड'

एक सुस्त

नवनिर्मित इमारत के तलघर की

उमस भरी धुंधलाई से

एक महिला निकलती है

जो एक गंदी अधखुली

बेढंगी साड़ी की गिरफ़्त में

हिरनी सी फुदकती

चली जा रही है यहाँ से वहाँ

कुछ बुदबुदाती कुछ याद करती

अपने बचे हुए कर्तव्यों

की माला जपती

और उस मंजिल

उस घर को याद करने की कोशिश करती है

जिसे उसे साफ करना है

अकेली होते हुए भी वह अकेली नहीं

कितना कुछ जम कर काँसा

हो गया है उसके भीतर

गंदे बर्तन और उनकी बदबू

कूड़े से निकलती सड़ांध

झाड़ू पोछा लोटा बर्तन

चिलचिलाती प्रचंड धूप में

ठोकर मारने को आतुर

आमदोरफ़्त ई-रिक्शे की घंटियाँ

सुस्त बहेतू कुत्तों की लार

तुनक मिज़ाज मालकिनों के

ढेरों सवाल और नुक़्ताचीनी

मालिकों के धूप सेंकते अंतरंग कपड़े

शैतान बच्चों के हर दम बिखरे खिलौने

और ना जाने क्या क्या

उसके साथ साथ लिफ्ट पर

सफ़र करता है समूचा

मक़्तल-ए-शहर

लिफ्ट की उदास मद्धिम रोशनी

सांघातिक मशीन का

चुंबकीय खिंचाव

शीशे से झांकते अंक गणित

वातानुकूलित चेंबर में पसीने की

एक लहर सोखती हवा

सुदूर प्रांत से आयी यह आदिवासी स्त्री

और इसकी कोहनी पर लगी चोट जिसे

वह कुरेद रही है, दांतों से पपड़ाए होंठ दबाए

बहुत कुछ है बदल देने को इस मुश्किल ज़िंदगी में

पर ना जाने क्यों फिर भी एक जिजीविषा

जो थमती नहीं

एक तरंग

एक अल्हड़्पन

उसकी अंतरंगताओं के साथ साँस ले रहा है

एक हंसी उसके पल्लू से बंधी है

और वो एक -दो- तीन सिलसिलेवार

तमाम मंज़िलों

को पार होता देख रही है

लिफ्ट में भर भर रहा है प्याज़ और चाक़ू का रस

मजूरी का पसीना और भरे हुए गर्भ का बल

टूटी हुई देह का कराहना सुस्ताने की अथक छह

सघन हो रहा है मांसपेशियों में दौड़ता रक्त

वह एक इमारत से दूसरी इमारत में सरकते हुई जाती है

उसकी जवानी और उसकी नादानी

एक दिन

ये अकेलापन पुराने बर्तनों और जारों में रखा जाएगा

संजो कर

अमीर लोगों के मॉड्यूलर किचन से झांकने के लिए

वो दिखती ही है ओझल होने के लिए

ऐसा देखा मैंने

एक जवान दिन आँखें खोले सर्दियों की धूप

सेकने निकल पड़ा था और शाम उसके पीछे -पीछे

मतवाले आशिक़ की तरह उसे छेड़ती चली आयी

किसी ऐसे दिन और ऐसे पहर में देखा उसे

हथेलियों पर चंद्रमा तंबाकू में पीस कर

घोंट लिया था उसने

गेट 1 के लापरवाह गार्डों के साथ

विक्षुब्ध ज़िंदगी की तलहटी से

रोज़ अनायास खड़ी होकर एक एक तल

ऊपर की ओर जाती रसातल से

स्वर्गीय कल्पनाओं की ओर अग्रसर

वाई रखती है

कुटीले लोहे के सख़्त सरिये जंग खाये

सीमेंट का भार रोज़ वक्ष से बांधे हुए

फिर नीचे आ जाती है धड़ाम से

और नित यही कर्म

गिरने के लिए जाती है रोज़ रोज़ ऊपर

एक दिन देखा उसे कोहरीले जाड़े की

संवलायी शाम में देह की ठिठुरन को

हथेलियों में भींचे खड़ी थी

बिल्डिंग के अंधेर पाषाणी कोने में

जहां लोग मास्क ओढ़े घरों में क़ैद थे

नोएडा शहर के ऐसे कठोर

दूषित पर वातानुकूलित मौसम को

बीड़ी में खोसकर पी गई थी वो एक कश में।

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