हम सरपट दौड़ते चलेंगे मुंडेरों से खेतों से, गेहूँ की फलियों से हांफते हुए भर लेंगे ताज़ी हवा फेफड़ों में

Update: 2025-06-25 10:57 GMT

युवा कवि शशांक शेखर की कविता 'गाँव के बच्चे'

हम गाँव के बच्चे

इस कोशिश में थे

हम सरपट दौड़ते चलेंगे

मुंडेरों से खेतों से

गेहूँ की फलियों से

हाफते हुए भर लेंगे

ताज़ी हवा फेफड़ों में

फिर गुब्बारों से हम

हल्के हो उड़ते चलेंगे

या यूँ कहें

टिड्डों से अनायास ही

फसल के ऊपर से

हैरतअंगेज़ ढंग से

नाचते फिरेंगे

हम मायूस तालाबों पर

पत्थर फेंक उसे मजबूर करेंगे

वो लहर बन बहना शुरू करे

चलायमान रहे ज़िन्दगी की तरह

गति को ही अपना

हम मुस्तकबिल कहेंगे

पास झुरमुट के पीछे से झाँकती हुई ट्रेन

जब गोधूली को चीरती हुई

नज़दीक के गुमनाम स्टेशन से गुज़रेगी

और उसे हैरत से झाँक कर देखेंगे

हम मनायेंगे अपने ईश्वर से

बेसाख़्ता गाँव के बातूनी बुजुर्गों

के व्यर्थ झगड़ों को रौंदती हुई

ये ट्रेन हमे दी गई नसीहतों के

परखच्चे उड़ा दे

और हम इसे आज़ादी कहेंगे

हम मिलकर गीत गायेंगे

नदी नाले पर्वत झरनों के

घुटने हमारे मिट्टी में सने होंगे

बाल धूसर गुच्छों से

पुआल लगेंगे

धूप से दिन भर

सिके बदन

उपलों से ..

माँ हलाकान

पुकारती रहेगी

गाँव के बच्चे हम

बवाल लगेंगे ।

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