मी लॉर्ड! प्रशांत भूषण के ट्वीट से न्यायिक प्रशासन कैसे हुआ बदनाम?
इंग्लैण्ड जैसे देश ने, जिससे हमने अपना न्यायशास्त्र उधार लिया है, अवमानना के अधिकार को ख़त्म कर दिया है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ है....
जी एस वासू की टिप्पणी
माय लॉर्ड्स, यह याचिका प्रति वादियों (भारत के हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट) के खिलाफ दायर की जा रही है। याचिका संविधान की अवमानना के कारण दाखिल की जा रही है। यह अवमानना उनके द्वारा उन मूलभूत अधिकारों की अलग-अलग व्याख्या करने से हुयी है जिसकी गारंटी हम भारत के नागरिकों द्वारा पवित्र मानी जाने वाली पुस्तक में हमें दी गयी है। यह पुस्तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हमारा ऐसा आला दर्ज़े का अधिकार मानती है जो सर्वोपरि है। माननीय न्यायाधीशों का समय व्यर्थ न करते हुए हम मुद्दे पर आते हैं।
हमारा लोकतंत्र जिस तरह काम करता है उसमें एक कमज़ोरी अंतर्निहित है। कमज़ोरी यह है कि किसी भी मुद्दे को अहमियत देना या उस पर प्रतिक्रिया दिखाना इस बात पर निर्भर करता है कि किस व्यक्ति ने यह मुद्दा उठाया है, या उसका राजनीतिक नज़रिया क्या है और सत्ता में बैठी पार्टी के नज़रिये से मेल खाता है या नहीं।
कुछ दिनों पहले एक बार ऐसा फिर हुआ जब वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने दो ट्वीट किये। एक ट्वीट बहुत हद तक तथ्यों पर आधारित था और दूसरा सुप्रीम कोर्ट के पिछले चार मुख्य न्यायधीशों पर टिप्पणी था। दूसरे ट्वीट को लेकर वो ग़लत हो सकते हैं लेकिन ये न्यायपालिका के हालात पर एक नागरिक की अवधारणा थी। फिर भी अवमानना को इस आधार पर तरजीह दी गई कि उनकी टिप्पणी से न्यायिक प्रशासन बदनाम हुआ है। चलिए प्रशांत भूषण को इस परिदृश्य से हटा दिया जाये और उपस्थित हुए मुद्दे की पड़ताल की जाए।
ट्वीट्स में जिन चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों की बात कही गयी है उनमें से दो इस कोर्ट के ही तत्कालीन उन न्यायाधीशों में शामिल थे, जिन्होंने जनवरी 2018 में एक चर्चित प्रेस कॉन्फ़्रेंस की थी। ये न्यायाधीश थे : जस्टिस जे चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकूर और जस्टिस कूरियन जोसेफ़।
तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को उनके द्वारा लिखा गया शिकायत पत्र कुछ इस तरह शुरू होता था : "अत्यंत पीड़ा के साथ हमें कहना पड़ रहा है कि इस कोर्ट के द्वारा पास किये गए कतिपय उन न्यायिक आदेशों को रेखांकित करना हमने ज़रूरी समझा जिन्होंने न्याय मिलने की व्यवस्था के कामकाज को हानिकारक रूप में प्रभावित किया है।
साथ ही मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय के प्रशासनिक कामकाज को भी प्रभावित किया है..... " दूरगामी असर रखने वाले केसों को मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपनी पसंद के हिसाब से आवंटित करने के सन्दर्भ में उन्होंने कहा, ".... इस तरह के विचलन पहले ही कुछ हद तक इस संस्था की छवि को नुकसान पहुंचा चुके हैं।" जब मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग चलाने की सांसदों की दलील राज्यसभा अध्यक्ष ने ख़ारिज कर दी थी तब एक जनहित याचिका दायर की गई थी और जस्टिस मिश्रा ने खुद उस पर निर्णय ले उसे ख़ारिज कर दिया था।
जहाँ तक गोगोई का सवाल है तो वे बाद में उसी पद पर आसीन हुए और अब राज्य सभा के शासक दल द्वारा नामांकित सदस्य हैं। तो क्या ये चारों न्यायाधीश कोर्ट की अवमानना के दोषी हैं, जबकि ये स्वीकार किया जाना चाहिए कि प्रेस कॉन्फ़्रेंस करते वक़्त उनका झुकाव न्याय की ओर था?
"मतभेद का गला नहीं घोंटा जा सकता" जैसी टिप्पणियां हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यक्त की जाती रहती हैं ताकि न्याय व्यवस्था से जनता का विश्वास ना उठ जाए। हमने अभी हाल में ये बात फिर सुनी जब राजस्थान कॉंग्रेस के कुछ विधायकों ने मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत छेड़ दी। अगर कोई यह तर्क भी देता है कि वर्तमान घटना में विधायक दलबदलू हैं जो नीलामी में खुद को बेचने को तैयार खड़े हैं (कांग्रेस द्वारा डाली गयी परंपरा जिसे वर्तमान शासकों द्वारा ज़्यादा उत्साह से आगे ले जाया जा रहा है।) फिर भी कोर्ट यह कहने में सही था कि उनके पास मतभेद का अधिकार है। अगर उसी तराजू में तौलें, तो माई लॉर्ड्स आपके आलोचक कैसे अवमानना के दोषी माने सकते हैं?
न्यायाधीश अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि उनके निर्णय क़ानून और कोर्ट की चहारदीवारी के भीतर दिए गए तर्कों पर आधारित होते हैं लेकिन अनुभव बताता है कि ये निर्णय न्यायाधीशों की विचारधारा, उनके मूल्यों, उनके नज़रिये और पक्षपात आदि से भी बहुत हद तक प्रभावित होते हैं। और यह बात कहीं ज़्यादा विकसित अमेरिका के संवैधानिक न्यायशास्त्र के बारे में भी सही है। इर्विन चेमेरीनेस्की,जिनकी क़ानूनी विलक्षणता पर कभी सवाल नहीं उठाया गया, ने यह कह कर अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय पर दोष लगाया था कि सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण क्षणों में यह असफल रहा है। उन्होंने कोर्ट को "मौलिक अधिकारों के ज़बरदस्त हनन" को चुपचाप देखते रहने, "हमेशा बहुमत, कारोबारियों और सत्ता में काबिज़ लोगों" के साथ चलने का दोषी बताया और इसे एक "वस्त्रविहीन सम्राट" के रूप में पेश किया। किसी ने भी उन पर अवमानना का आरोप लगाने का सोचा भी नहीं।
दिवंगत एचएम सीरवाई के रूप में हमारे पास अपने चेमेरीनेस्की रहे हैं। वे संविधान संबंधी कानून के संभवतः सबसे महान व्याख्याता रहे हैं और जिनकी लिखी किताबें हाई कोर्ट्स और सुप्रीम कोर्ट में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती हैं। 1965 में उत्तर प्रदेश विधान सभा के एक सदस्य पर लगे अवमानना के आरोप केस में फैसला देने वाले सुप्रीम कोर्ट के 7 न्यायाधीशों में से छह के खिलाफ सीरवाई द्वारा की गई तीखी टिप्पणियों को पढ़ना बार और बेंच दोनों जगह क़ानून का पेशा करने वालों के लिए उपयोगी साबित होगा।
सीरवाई ने न्यायधीशों गजेंद्रगड़कर (मुख्य न्यायाधीश), सुब्बा राव, वानछू, हिदायतउल्ला, जे सी शाह और राजगोपाला अय्यंगर पर "आँखें फेर लेने", "अपने दिमाग़ बंद कर लेने" और "पूर्वाग्रह से प्रभावित सोच के हिसाब से मुद्दे पर विचार करने" जैसे आरोप लगाए। सीरवाई के खिलाफ कोई कुछ नहीं बोल सका, क्योंकि अकसर खुद न्यायाधीश भी उनके द्वारा की गयी संविधान की व्याख्या पर निर्भर रहते थे।
जब 1987 में पूर्व केंद्रीय क़ानून मंत्री स्वर्गीय पी शिव शंकर ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट में मुख्यतः संभ्रांत वर्ग के लोग ही होते हैं और सुप्रीम कोर्ट "फेरा उल्लंघन करने वालों, बहुओं को जला डालने वालों और प्रतिक्रिया वादियों" के लिए स्वर्ग बन चुका है, तो सुप्रीम कोर्ट ने बस यही कहा था कि उन्हें इस तरह की कड़ी भाषा के इस्तेमाल से बचना चाहिए था। यह और बात है कि मशहूर मार्क्सवादी ई एम एस नम्बूदरीपाद न्यायालय को "दमन का एक हथियार" ही मानते थे।
माय लॉर्ड्स हमने खुद को एक लोकतांत्रिक देश घोषित किया है (क्या यह महज दिखावा है इस पर बड़ी बहस हो सकती है)। हमने खुद को एक संविधान से नवाजा है जो व्यक्तिगत आज़ादी को सुरक्षा प्रदान करता है और एक सुप्रीम कोर्ट दिया है यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारी आज़ादी से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों को लागू कराया जा सके।
जोर इस बात पर रहा है कि कभी भी बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कुचलने नहीं दिया जाना चाहिए फिर चाहे वो राजनीतिक अधिकार हों या समाजिक, नस्लीय अथवा आर्थिक अधिकार हों। आपात काल के दौरान राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया था। इनमें नक्सलियों से सहानुभूति रखने वालों से लेकर आरएसएस के स्वयंसेवक तक शामिल थे।
आज हम क्या देख रहे हैं कि उन लोगों को भी बेल नहीं दी जा रही है जिन्हें जेल में रखने का कोई औचित्य ही नहीं है। इनमें 60 साल से भी ज़्यादा उम्र वाली बौद्धिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज भी शामिल हैं, जबकि वे खून की कमी की बीमारी से भी ग्रस्त हैं। यह मौलिक अधिकारों का उसी तरह का हनन है जैसा पहले के शासनकाल में हुआ था जब एक इस्लामिक उपदेशक को बेल नहीं दी गयी थी और 9 साल जेल में रहने के बाद अंत में उसे बरी कर दिया गया था या एक मुठभेड़ के केस में दोषी करार दिए गए पुलिस अधिकारियों को बेल ना देकर सालोंसाल उन्हें विचाराधीन कैदियों के रूप में जेल में रखा गया था।
जो बात यहां भूलनी नहीं चाहिए वो यह है कि मौलिक अधिकार उनके भी होते हैं जो संविधान पर विश्वास का खुले आम दावा नहीं करते हैं। यह याद करना समय और स्थान की बर्बादी होगी कि आपात काल के दौरान हमारे अपने सुप्रीम कोर्ट ने किस तरह का व्यवहार किया था। अभी जो कुछ घटित हो रहा है वो आने वाले दिनों में अवश्य दर्ज़ किया जायेगा।
माय लॉर्ड्स न्यायपालिका या उसका संचालन करने वालों की आलोचना करने में व्यक्तिगत जैसा कुछ भी नहीं होता है। सीरवाई और चार पूर्व न्यायधीशों की तरह कुछ लोग महसूस करते हैं कि किसी बड़े हित की ख़ातिर आवाज़ उठाना, यहाँ तक कि व्यक्तिगत आलोचना करना भी उनका कर्तव्य है। ऐसा अदालती घोषणाओं में पाई जाने वाली असंगतियों में बढ़ोत्तरी के चलते हैं, खासकर कमज़ोर वर्गों और सरकार का विरोध करने वालों के खिलाफ दी जाने वाली घोषणाओं में। इसका समाधान अवमानना की धमकी में नहीं निहित है, बल्कि बहुत तेजी से तिरोहित हो रहे न्याय के सिद्धांत के प्रति सम्मान सुनिश्चित करने में है।
याद रखिये, इंग्लैण्ड जैसे देशों ने, जिससे हमने अपना न्यायशास्त्र उधार लिया है, अवमानना के अधिकार को ख़त्म कर दिया है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ है।
(जी एस वासू का यह लेख द न्यू इंडियन एक्सप्रेस से साभार।)