किसान आंदोलन को कमजोर करने के लिए खालिस्तान कहकर दुष्प्रचारित करता गोदी मीडिया-भाजपा गठजोड़

मोदी के पिछले 6 साल के कार्यकाल में ये बात आम हो गयी है कि सरकार से असहमत लोगों को देश के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और सरकार और भाजपा उससे उसी रूप में निपटने की कोशिश करती है...

Update: 2020-12-07 10:23 GMT

किसान आंदोलन में लगे थे गोदी मीडिया विरोधी ये पोस्टर (file photo)

सलमान अरशद की टिप्पणी

जनज्वार। किसान आन्दोलन की अगुवाई करते पंजाब के किसान न सिर्फ़ अलग-थलग किये जा रहे हैं, बल्कि उन्हें खालिस्तानी कह कर संबोधित किया जा रहा है, सत्ताधारी पार्टी हालांकि अलगाववादी सियासत की सिरमौर है, लेकिन पंजाब के किसानों को खालिस्तानी कहकर क्या एक मिट चुके अलगाववादी आंदोलन को हवा नहीं दी जा रही है?

समाज को टुकड़ों में बाँटने की सियासत के कुछ छोटे राजनीतिक लाभ हैं तो बड़े नुकसान भी हैं, तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए दूरगामी नुकसान पर अक्सर राजनीतिक पार्टियाँ ध्यान नहीं देती हमारे देश में दर्जनों अलगाववादी आन्दोलन आज भी चल रहे हैं, किसी आन्दोलन की लौ मद्धम हो गयी है तो कोई अभी जलनी शुरू हुई है। कुछ की बुझ भी गयी है, लेकिन इन सभी आंदोलनों में एक बात कॉमन है कि कुछ राजनीतिक संगठनों ने अपने राजनीतिक स्वार्थों के कारण इन आंदोलनों को हवा दी।

इस देश को ये समझना पड़ेगा कि सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक, नस्लीय और धार्मिक विभिन्नता वाले इस देश में उदारता को एक मूल्य के तौर पर स्वीकार न किया गया तो पूरा देश अलगाववादी आंदोलनों की बाढ़ में बह जायेगा।

धर्म और जाति आधारित सियासत इस वक्त भले ही निर्णायक लग रही हो, लेकिन इस सियासत के नतीजे में इस देश के दो टुकड़े हो चुके हैं। खालिस्तानी आन्दोलन भी धर्म आधारित आन्दोलन था, जिसने एक अलग देश बनाने की कोशिश की थी। इस आन्दोलन ने हजारों लोगों का खून बहाया और बड़ी लम्बी कोशिशों के बाद इसे ख़त्म किया जा सका।

भारतीय जनता पार्टी, जो हिन्दू धर्म को सियासी टूल के रूप में इस्तेमाल करती है, अगर किसानों को खालिस्तानी कहती है और मीडिया इसे प्रचारित करती है तो इसके कुछ तात्कालिक ख़तरे तुरन्त हो सकते हैं। जैसे पंजाब का किसान जो अपने जोश और जज़्बे की वजह से अपनी एक अलग पहचान रखता है, देश की केन्द्रीय सत्ता पर विश्वास करना छोड़ देगा, और इस अविश्वास का परिणाम पंजाब और देश के अन्य इलाकों के लिए भी घातक हो सकता है।


भारत एक बड़ा मुल्क है, इससे भी ज़्यादा अहम् बात ये है कि ये देश सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक, नस्लीय और धार्मिक आधारों पर बहुत बंटा हुआ है। इतनी विविधता वाले देश में एकता की बुनियाद उदारता एवं बंधुता ही हो सकती है, जिसे भारतीय जनता पार्टी तेज़ी से मिटाने की कोशिश कर रही है।

जैसे जैसे किसान आन्दोलन तेज़ी से फ़ैल रहा है, देशभर से आन्दोलन को समर्थन मिल रहा है उसी क्रम में आन्दोलन के खिलाफ़ कुत्सा प्रचार भी बढ़ता जा रहा है। कल्पना करें, अगर सत्ताधारी पार्टी की साजिश कामयाब हो जाती है, पंजाब के किसानों को खालिस्तानी कहकर बदनाम कर दिया जाता है, देशभर से मिल रहा समर्थन रुक जाता है और ये आन्दोलन किसान आन्दोलन के बजाय खालिस्तानियों का आन्दोलन मान लिया जाता है, ऐसी सूरत में क्या खालिस्तान आन्दोलन जो कि पूरी तरह ख़त्म हो चुका है, दुबारा शुरू नहीं हो जायेगा?

हो सकता है कि इससे सरकार तात्कालिक राहत महसूस करे, लेकिन तुच्छ  स्वार्थों को पूरा करने में, कुछ पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाने में क्या देश के सामने एक नया ख़तरा नहीं खड़ा कर दिया जायेगा?  हो सकता है कि बहुत से लोगों को ये बात कपोल कल्पना लगे, लेकिन हमारे सामने मुसलमानों का उदाहरण मौजूद है।

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देश की लगभग 15 प्रतिशत आबादी वाला ये धार्मिक समूह राजनीतिक रूप से पूरी तरह अलग थलग कर दिया गया है और अब इस समूह के आर्थिक बहिष्कार की अपीलें हो रही हैं, सांस्कृतिक हमले तो कब से हो रहे हैं। अगर ऐसा ही कुछ पंजाब के किसानों के साथ होता है तो इसकी कीमत पूरे देश को चुकानी पड़ सकती है। ऐसा इसलिए भी कि पंजाबी समुदाय शैक्षिक, आर्थिक और राजनितिक रूप से बेहद मज़बूत है। अभी से किसान आंदोलन को जो समर्थन यूरोप और अमेरिका से मिल रहा है वो इस समुदाय की वहां पर मौजूदगी, सम्पन्नता और प्रभाव का ही परिणाम है।

किसी आन्दोलन को जनमानस में सकारात्मक या नकारात्मक रूप में स्थापित किया जा सकता है, ये काम मीडिया के ज़रिये होता है और अगर मीडिया पर किसी एक पार्टी या व्यक्ति का एकाधिकार हो तो किसी भी आन्दोलन को जनमानस में बदनाम किया जा सकता है, लेकिन ज़रूरी है कि आन्दोलन को उसके पृष्ठिभूमि में समझने की कोशिश की जाये उसके बाद ही उस पर कोई राय बनाई जाए।

किसान आन्दोलन सरकार द्वारा बनाये गये तीन कानूनों के खिलाफ़ है, जिसे किसान खेती-किसानी के लिए घातक मानते हैं. ये आन्दोलन अभी तक न किसी सियासी पार्टी के खिलाफ़ है, न किसी जातीय, नस्लीय या धार्मिक समुदाय के खिलाफ़ है और न ही सरकार के खिलाफ़ है। ऐसे में किसानों को खलनायक या देश के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करना हर हाल में अनुचित है।

भारतीय जनता पार्टी के पिछले 6 साल के कार्यकाल में ये बात आम हो गयी है कि सरकार से असहमत लोगों को देश के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और सरकार व भारतीय जनता पार्टी उससे उसी रूप में निपटने की कोशिश करती है। एक लोकतान्त्रिक देश में इस प्रवृत्ति को स्वीकार नही किया जा सकता। किसानों के प्रति सरकार और मीडिया का जो रवैया है, उससे बहुत मुमकिन है कि ये आन्दोलन अपनी वर्तमान सीमाओं को तोड़ दे।

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कोई भी राजनीतिक दल हो, उसकी असली ताकत जनता होती है। इस देश के लोगों को ये तय करना है कि वो किसानों की मांगों को समर्थन दें या सरकार के प्रचार को सही माने। किसान देश में बहुसंख्यक हैं इसलिए उम्मीद किया जाना चाहिए कि इस देश का किसान पंजाब के किसानों के साथ खड़ा होगा, उन्हें अपना साथी समझेगा खालिस्तानी नहीं, और जिस तरह आन्दोलन तेज़ी से देश में फ़ैल रहा है ऐसा होता हुआ नज़र भी आ रहा है।

देखना ये है कि सरकार CAA और NRC मुख़ालिफ़ आन्दोलन की तरह अड़ियल रवैया अख्तियार करती है या किसानों के साथ मिलकर समाधान का रास्ता निकालने का प्रयास करती है। सरकार के रवैये से ही तय होगा कि कॉर्पोरेटपरस्त नीतियाँ ही आगे बढाई जाती रहेंगी या देश के मजदूर और किसान भी इस सरकार से कोई उम्मीद कर सकते हैं।

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