Communal Violence In Five States : धार्मिक जुलूस पर साम्प्रदायिकता का वह पहला पत्थर किसका था?

Communal Violence In Five States : धार्मिक जुलूस पर साम्प्रदायिकता का पहला पत्थर 1970 में ही पड़ चुका था, जब शिवाजी जयंती के उपलक्ष्य में जुलूस को भिवंडी के मुस्लिम बहुल इलाके निजामपुरा से होकर निकाला गया....

Update: 2022-04-13 13:33 GMT

Communal Violence In Five States : धार्मिक जुलूस पर साम्प्रदायिकता का वह पहला पत्थर किसका था?

सौमित्र रॉय की टिप्पणी

Communal Violence In Five States : रामनवमी के मौके पर देश के 5 राज्यों मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, गुजरात और कर्नाटक में साम्प्रदायिक हिंसा (Communal Violence) भड़काने के लिए मुस्लिम समुदाय पर उंगली उठाना ऐसे मौकों पर देश में भड़के दंगों और उनकी जांच के लिए गठित आयोगों के निष्कर्षों के बिल्कुल खिलाफ है।

देश की 1947 में आजादी के बाद भड़की साम्प्रदायिक हिंसा (Communal Violence) की जांच के इन निष्कर्षों को फ्रांस की पेरिस इंस्टिट्यूट ऑफ पोलिटिकल साइंस (Paris Institute Of Political Science) ने तैयार किया है। इस अध्ययन के पहले हिस्से में 1947 से 1986 तक हिन्दू उत्सवों पर भड़के दंगों और 1986 से 2011 तक इन्हीं मौकों पर हुई साम्प्रदायिक हिंसा की जांच के लिए गठित आयोगों की रिपोर्ट को दूसरे हिस्से में रखा गया है।

अध्ययन कहता है कि 1986 तक धार्मिक जुलूसों (Religious Procession) के बाद दंगे भड़कने की घटनाएं 1960 के दशक के अंत में शुरू हुईं, क्योंकि अध्ययनकर्ताओं- वॉयलेट ग्राफ और जूलियट गलोनियर के मुताबिक आरएसएस (RSS) किसी सरकारी प्रतिक्रिया के डर से शांत था।

लेकिन बाद के दशकों में ऐसे जुलूस के धार्मिक और राजनीतिक प्रयोजनों के बीच की लक्ष्मण रेखा लगातार धुंधली पड़ती रही। मिसाल के लिए 1992-93 के मुम्बई दंगों की जांच करने वाले बीएन श्रीकृष्ण आयोग ने कहा कि बाबरी ढांचे को गिराये जाने की जीत के उल्लास में भीड़ ने मुस्लिमों को उकसाने के लिए इतनी गंदी गालियां दीं कि उनका उल्लेख नहीं किया जा सकता। कहना न होगा कि यह उकसावा एक गैर धार्मिक आयोजन पर साम्प्रदायिकता का पहला पत्थर था।

लेकिन धार्मिक जुलूस पर साम्प्रदायिकता का पहला पत्थर तो उससे भी पहले 1970 में ही पड़ चुका था, जब शिवाजी जयंती के उपलक्ष्य में जुलूस को भिवंडी के मुस्लिम बहुल इलाके निजामपुरा से होकर निकाला गया। यह इसलिए हुआ, क्योंकि आयोजन समिति के 19 सदस्यों ने अलग होकर राष्ट्रीय उत्सव मंडल बना लिया था और आयोजनकर्ताओं में इनका ही दबदबा था। इसमें 15 सदस्य या तो जनसंघ के थे, या उनके समर्थक थे। भिवंडी दंगों की जांच करने वाले जस्टिस डीपी मदन आयोग ने खुद अपनी रिपोर्ट में यह बात कही है।

राष्ट्रीय उत्सव मंडल की जिद थी कि जुलूस निजामपुरा से होकर ही जायेगा। वहां मुस्लिमों के खिलाफ आपत्तिजनक, भड़काऊ नारे लगे और प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे समुदाय से मिले पत्थर। दंगा भड़का और जलगांव, महाड तक भड़का। मारे गए 164 लोगों में से 142 मुस्लिम थे।

रामनवमी की बात करें तो 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने जिद की कि जुलूस अपने पुराने रास्ते के बजाय जामा मस्जिद से होकर गुजरेगा। विहिप ने दबाव बनाने के लिए प्रदर्शन तक किया। प्रशासन झुका और 16 अप्रैल को जुलूस के रास्ते में बम फटा। दंगे भड़के और एक अनुमान के मुताबिक 100 बेकसूरों की जान गई।

उसी साल राजस्थान का कोटा शहर भी 14 सितंबर को गणेश विसर्जन के जुलूस में मुस्लिम विरोधी नारों के कारण दंगों की आग में सुलग उठा। जुलूस पर घंटाघर चौराहे की मस्जिद के पास पत्थर बरसे। दंगों में 16 से 26 जानें गईं।


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1989 के आखिर में राम जन्मभूमि का शिलान्यास समारोह समूचे उत्तर भारत को तनाव में डालने वाली घटना थी। उसी बीच बिहार के भागलपुर में हिन्दू समूहों ने राम शिलान्यास के जुलूस की अनुमति प्रशासन से मांगी। जुलूस को शहर के मुस्लिम बहुल इलाके तातारपुर से होकर ले जाने की जिद थी। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के निर्देशों की अवहेलना करते हुए जुलूस निकालने की अनुमति दी गई।

फिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था। मुस्लिम विरोधी भड़काऊ नारों के बीच 24 अक्टूबर को जुलूस पर एक मुस्लिम स्कूल से बम फेंका गया। पुलिस ने गोली चला दी और 20 मुस्लिम छात्र मारे गए। इसके बाद जो हुआ, वह बेहद खौफनाक था। ट्रेनों से मुस्लिम यात्रियों को उतारकर उनकी हत्या की गई। लुगाइन गांव पर हमले हुए और रामानंदन जांच आयोग के मुताबिक 9 घंटे तक सम्प्रदायिकता का बर्बर खेल चलता रहा और 200 लोगों की हत्या की गई। भागलपुर दंगों की जांच करने वाले असगर अली इंजीनियर के मुताबिक 896 मुसलमान और 50 हिन्दू इन दंगों की भेंट चढ़ गए। भागलपुर दंगों के बाद मुस्लिमों ने कांग्रेस का राजनीतिक बहिष्कार कर दिया।

अध्ययन में 2011 तक के दंगों का पूरा हिसाब इस एक बात पर आकर ठहरता है कि धार्मिक आयोजनों का सियासी फायदा उठाने में बीजेपी और आरएसएस दो कदम आगे रही है, लेकिन इसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ा है। यह बॉलीवुड की किसी सी-ग्रेड फिल्म की कहानी जरूर लगती है, लेकिन इस रामनवमी पर पांच राज्यों में दंगों ने फिर यही साबित कर दिया है कि रील और रियल में उतना ही फर्क है, जितना सत्ता और कुर्सी के बीच है।

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