बेमौसम बारिश ने तेंदू पत्ता बेच गुजारा कर रहे आदिवासियों की बढ़ाई मुश्किलें, आई भूखों मरने की नौबत

अनिता और उनके परिवार के सदस्य रोजाना करीब 400 से 500 पोला (बंडल) जिसे वे संग्रहित कर बेचते थे जिससे उन्हें लगभग 600 से लेकर 700 रूपये की आमदनी हो जाती थी। लेकिन बेमौसम बारिश से यह रोजगार भी अचानक बन्द हो गई है, जिससे इन लोगों में भूख की चिंता सताने लगी है।

Update: 2020-06-09 03:30 GMT

विशद कुमार की रिपोर्ट

जनज्वार ब्यूरो। झारखंड के गढ़वा जिला अन्तर्गत रमकंडा प्रखण्ड का होमिया दादर गाँव की रहने वाली अनिता देवी की चिंता अपने पारिवारिक खर्चों को लेकर दूर हो गई थीं। कारण स्पष्ट था कि जब इस वक्त देश में बेरोजगारी एक भयावह मोड़ पर खड़ी हो, ऐसे में परिवार के लोग पिछले एक सप्ताह से प्रतिदिन 600 रूपये कमा ले रहे थे। वह भी इतनी सहजता के साथ जिसका अंदाजा किसी को नहीं होगा। वे लोग सुबह वगैर नाश्ते के पास के जंगलों में निकल जाते और वहाँ बीड़ी पत्तों को चुन-चुन कर जमा करते।

फिर दिन के 11 से 12 बजे के बीच वापस घर आकर मुँह धोते और खाना खाकर संग्रहित किये गये पत्तियों को पूरे दोपहर में 50-50 पत्तियाँ गिनकर बंडल बाँधते। शाम को धूप कम होने पर उसे गाँव में ही खरीददारों को बेच देते। उसके बदले उन्हें तुरन्त नगद भुगतान मिल जाती। अनिता और उनके परिवार के सदस्य रोजाना करीब 400 से 500 पोला (बंडल) जिसे वे संग्रहित कर बेचते थे जिससे उन्हें लगभग 600 से लेकर 700 रूपये की आमदनी हो जाती थी। लेकिन बेमौसम बारिश से यह रोजगार भी अचानक बन्द हो गई है, जिससे इन लोगों में भूख की चिंता सताने लगी है।

स बावत इस गांव की 27 वर्षीया अंजना कोरवा कहती हैं कि 'एक तो लॉकडाउन के कारण हमारी स्थिति पहले से खराब थी, लेकिन 30 मई को तेंदू पत्ता के खरीददारों ने आकर हमसे तेंदू पत्ते की मांग की, तो हमारी जान में जान आई कि चलो रोटी का अब जुगाड़ हो जाएगा। हमलोग जंगल जाकर तेंदू पत्ता तोड़ कर खरीददारों को देने लगे, हमारी कमाई होने लगी लेकिन चार—पांच दिन बाद अचानक बर्षा शुरू हो गई और हमारा काम यानी जंगल जाना बंद हो गया।' अंजना कोरवा अविवाहित है और वह अपने दो भाई, दो भाभी व दो भतीजों के साथ रहती है।

सा नहीं है कि इन हालातों का शिकार सिर्फ अंजना कोरवा या अनिता देवी का परिवार है, बल्कि राज्य के अधिकाँश वन आच्छादित इलाकों में निवासरत लाखों ग्रामीण परिवार इन हालातों का शिकार हैं। बता दें कि इन क्षेत्रों में प्रत्येक वर्ष मई के अंतिम सप्ताह से 15 जून तक बीड़ी पत्ता तोड़ने और इसकी खरीददारी का कारोबार होता है। इस कारोबार से लाखों आदिवासी और दलित परिवारों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार मिलता है।


सके साथ ही सरकार को करोड़ों रूपये राजस्व की प्राप्ति भी होती है। ग्रामीण परिवार इसके माध्यम से 5 से 15 हजार रूपए तक मासिक कमा लेते हैं। इन पैसों से ये ग्रामीण खेती के लिए बीज, हल—बैल, बरसात में होने वाली बीमारी के दरम्यान दवाईयां और दूसरी तरह की जरूरतों के लिए नगद सुरक्षित रखते हैं।

झारखण्ड नरेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेंज कहते हैं कि ''एक साथ 15 नवंबर 2000 को पुनर्गठित राज्य छत्तीसगढ़ की तुलना में झारखण्ड वनोपज के संग्रहण और इसके व्यवसाय में काफी पीछे है। यहाँ अपने राज्य में जहाँ 100 पोला पत्ती की झारखण्ड राज्य वन विकास निगम द्वारा निर्धारित कीमत महज 120 रूपये दी जा रही है। वहीं बगल के राज्य छत्तीसगढ़ में इतनी ही पत्ती की निर्धारित कीमत 500 रूपये है। ऊपर से बोनस की राशि अलग से भुगतान की जाती है। यही कारण है कि गढ़वा जिला के सीमावर्ती गाँवों के बीड़ी पत्ती तोड़ने वाले परिवार अपना पत्ती छत्तीसगढ़ के फड़ों में बेचते हैं।''

वे आगे कहते हैं, 'छत्तीसगढ़ के परिवारों ने यह भी बताया है कि यदि बीड़ी पत्ता तोड़ने के लिए 5 किमी से ज्यादा दूर जाते हैं तो ग्राम पंचायतों द्वारा ट्रैक्टर अथवा छोटे ट्रक मुहैया कराया जाता है। यहाँ झारखण्ड में वैसे आरक्षित वन क्षेत्र जिन्हें विभिन्न वन्य प्राणी संरक्षण परियोजनाओं हेतु अधिसूचित किये गये हैं, उन इलाके के गाँवों के लोगों को तो वनोपज संग्रहण के अधिकार भी उनसे सरकारों ने छीन ली है। अकेले पलामू व्याघ्र परियोजना के अन्तर्गत 199 गाँव हैं, जहाँ बाघ संरक्षण के नाम पर बीड़ी पत्ता तोड़ने सहित अन्य वनोत्पाद संग्रहण की सरकारी मनाही है। यह जनविरोधी नीति उन इलाके में निवास करने वाले परिवारों के जीविकोपार्जन पर सीधा-सीधा हमला है। जबकि वनक्षेत्र में रहने वाले आदिवासी तथा दलितों के जीविकोपार्जन का मुख्य आधार वनोत्पाद ही हैं।'

हीं छत्तीसगढ़ में वन अधिकार के मुद्दे पर कार्य करने वाले गंगा राम पैकरा बताते हैं, 'यहाँ काँग्रेस के सत्ता में आने की मुख्य वजह वन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए जनपक्षीय नीतियों की घोषणा रही है। यहाँ वनोपज के संग्रहण एवं खरीद-विक्री के लिए पूरे वैधानिक ढाँचे विकसित किये गये हैं। विभिन्न तरह की वनोपजों का कारोबार सहकारी समितियों के माध्यम से की जाती हैं। प्रत्येक रेंज में 2 से 3 सहकारी समितियाँ निबंधित हैं। इन समितियों पर प्रशासनिक नियंत्रण के लिए वन विभाग अपने कर्मियों में से ही खरीदी मैनेजर नियुक्त करता है।'

गंगा राम पैकरा आगे कहते हैं, 'जिले के अन्दर सभी सहकारी समितियों का एक जिला स्तरीय फेडेरेशन गठित है। जिले भर के लिए लोकतंत्रिक ढंग से नीतिगत निर्णय इसी फेडरेशन में लिये जाते हैं। यहाँ पूरे जिले भर में सहकारी समितियों के माध्यम से किये जाने वाले गतिविधियों और आय-व्यय का व्यौरा रखा जाता है। बीड़ी पत्ते के मामले में जहाँ-जहाँ फड़ खुलता है, वहाँ ग्राम सभा और सहयोग समिति के सदस्य मिलकर फड़ मुन्शी की नियुक्ति करते हैं। इसी फड़ में बीड़ी पत्ते की खरीदी की जाती है।'

न्होंने यह भी बताया कि शाल का फल, पियार का फल व दाना सहित अन्य वनोपज भी इन्हीं समितियों के लोग खरीदी करते हैं। वहाँ शाल के फल बेचने वालों को भी मुनाफे पर बोनस देने की व्यवस्था है। इससे वनोत्पाद संग्रहण से जुडे़ परिवारों के हितों की रक्षा भी हो रही है और वैसे मुनाफाखोरों को किनारा करने में मदद मिली है जो बीच में लाभुकों से औने-पौने दामों में वनोत्पाद खरीदकर बाजार में ऊँचे मूल्य पर बेचकर बेतहाशा मुनाफा कमाते थे। इस पर रेगा वाच के संयोजक जेम्स हेरेंज का कहना है, 'झारखण्ड सरकार को भी इस दिशा में समुचित पहल करनी चाहिए।'

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