यूपी उपचुनाव : देवरिया सीट बनी सबसे हॉट, किस त्रिपाठी के सिर पर बंधेगा जीत का सेहरा

देवरिया विधानसभा सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या लगभग 50000 है, लिहाजा सभी ने ब्राह्मण वोट बैंक साधने के लिए ब्राह्मणों पर ही दांव लगाया है...

Update: 2020-10-31 12:44 GMT

चक्रपाणि ओझा की टिप्पणी

जनज्वार। उत्तर प्रदेश की 7 सीटों पर विधानसभा उपचुनाव होने हैं, जिसके लिए सभी दलों ने जोर-शोर से चुनाव प्रचार की कमान थाम रखी है। इनमें सर्वाधिक चर्चित सीट देवरिया सदर की है। यहां से भाजपा विधायक जन्मेजय सिंह के आकस्मिक निधन से यह सीट रिक्त हो गई थी।

इस सीट पर हो रहे उपचुनाव में खास बात यह है कि यहां पर सभी प्रमुख दलों ने अपनी-अपनी राजनीतिक लाइन से अलग हटकर सिर्फ ब्राह्मण ताल्लुक रखने वाले उम्मीदवारों को टिकट दिया है। प्रमुख सत्ताधारी दल भाजपा ने स्वर्गीय जन्मेजय सिंह की सीट पर ब्राह्मण प्रत्याशी डॉ सत्यप्रकाश मणि त्रिपाठी को उतारा है, तो प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने मुकुंद भास्कर मणि को अपना उम्मीदवार बनाया है, वहीं सपा ने पूर्व मंत्री ब्रह्मा शंकर त्रिपाठी तथा बसपा ने अभय नाथ त्रिपाठी को अपना प्रत्याशी घोषित किया है।

इसके अलावा कई अन्य छोटे दलों के और निर्दलीय प्रत्याशी भी मैदान में हैं। कई जमीनी स्थानीय नेताओं का पर्चा खारिज हो जाने से बाहर हो गए हैं तथा सत्ता विरोधी खेमे में शामिल होकर प्रचार प्रसार में सक्रिय हैं। देवरिया में यह तस्वीर उभर कर सामने आई है, जिसकी संभावना शायद आम चुनाव में नहीं की जाती रही है। कहा तो यह जा रहा है कि इस सीट पर लगभग ढाई दशक बाद स्थिति बन सकती है कि कोई ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधानसभा में जाएगा।

चौंकाने वाली बात यह है कि जो सत्ताधारी दल भाजपा अब तक गैर ब्राह्मण को इस सीट से अपना उम्मीदवार बनाती रही है, उसने अचानक ब्राह्मण प्रत्याशी को मैदान में क्यों उतार दिया? हालांकि यहां से सांसद दो बार से ब्राह्मण ही रहे हैं, लेकिन विधानसभा उपचुनाव की यह तस्वीर कई सवाल खड़ी करती है। वहीं कांग्रेस,सपा और दलित पक्षधर कहलाने वाली बहुजन समाज पार्टी ने भी किसी गैर ब्राह्मण को अपना उम्मीदवार क्यों नहीं बनाया, यह विचारणीय प्रश्न हर मतदाता और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए महत्वपूर्ण है।

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आंकड़ों पर गौर करें तो इस विधानसभा सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या लगभग 50000 है, लिहाजा सभी ने ब्राह्मण वोट बैंक साधने के लिए ब्राह्मणों पर ही दांव लगाया है। देखना यह है कि जनता किस दल के ब्राह्मण को अपना नेता चुनती है। सवाल यह है कि क्या ये सभी प्रत्याशी महज ब्राह्मणों की वोट से ही चुनाव जीत जाएंगे? क्या दलित पिछड़े अल्पसंख्यकों के वोट की जरूरत इन दलों को नहीं है? पिछड़ों, दलितों की राजनीति करने वाली सपा,बसपा ने भी ब्राह्मणों पर ही भरोसा किया है।

बसपा जो कि दलित वोट बैंक के आधार पर सभी चुनाव लड़ती है वह भी ब्राह्मण मतदाताओं के वोट को हासिल करने के लिए ब्राह्मण उम्मीदवार के सहारे चुनावी समर में है। वैसे बसपा आमतौर पर उपचुनाव से दूर रहने वाली पार्टी मानी जाती रही है, लेकिन इस बार पूरी तैयारी से वह मैदान में दिखाई दे रही है।

इस पूरे चुनाव से अगर कोई बाहर है तो, वह हैं देवरिया की राजनीति में जमीनी स्तर पर काम करने वाले वामपंथी दल। सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल) व अन्य जनवादी संगठनों के उम्मीदवार इस चुनाव में शामिल नहीं हैं। हालांकि अगर जनता के मुद्दों पर सड़क पर उतरकर संघर्ष करने वालों की बात करें तो वामपंथी संगठनों के कार्यकर्ता व नेता पहली कतार में दिखाई देते हैं। अपेक्षाकृत अन्य दलों के नेताओं के बावजूद इसके उपचुनाव में वामपंथी दलों की अनुपस्थिति विश्लेषण का विषय है।

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देवरिया में हो रहे उपचुनाव में वैसे तो कोई मुद्दा नहीं है,सभी दल जातीय आधार पर चुनाव जीतने की जुगत में हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महंगाई ,उद्योग धंधे, बंद चीनी मिलें, समान शिक्षा, निजीकरण जैसे सवाल इस चुनाव में नहीं दिखाई दे रहे हैं। यूं कहा जा सकता है कि यह चुनाव पूरी तरह मुद्दाविहीन हो रहा है, जब सत्ताधारी दल अपने विकास कार्यों के नाम पर वोट की अपील कर रहा है तो वहीं विपक्षी दलों को भी पड़ोसी बिहार राज्य की मुख्य विपक्षी महागठबंधन की तरह रोजगार व जनता के बुनियादी सवालों के मुद्दे पर वोट मांगना चाहिए था, लेकिन ऐसा वे नहीं कर पा रहे हैं।

राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं, दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में जनता को जातीय समीकरण के आधार पर लामबंद करने की कोशिश सभी राजनीतिक दल करते हुए यहां दिखाई दे रहे हैं, जो विचारणीय व चिंतनीय प्रश्न है। फिलहाल देखना यह है कि आगामी 3 नवंबर को जब देवरिया विधानसभा क्षेत्र के 3 लाख 36 हजार 565 मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे तो वे आखिर इस बार किस पर भरोसा करते हैं।

इतना तो तय दिख रहा है कि इस बार के चुनाव में भी देवरिया की जनता के मुद्दे शायद पीछे छूट जाएंगे और राजनीतिक दलों के जातीय समीकरण आगे निकल जाएंगे।

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