प्रतीकों पर कब्जे की लड़ाई से अखिलेश लड़ रहे हैं चुनावी महाभारत में मनोवैज्ञानिक युद्ध

UP Election 2022। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार की उत्तर प्रदेश की सत्ता से विदाई की पटकथा लिखने को आतुर समाजवादी धीरे-धीरे प्रतीकों को आधार बनाकर भारतीय जनता पार्टी को उसकी ही पिच पर घेरने में जुट गई है।

Update: 2021-12-18 11:24 GMT

अखिलेश यादव ने BJP पर कसा तंज

UP Election 2022। योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार की उत्तर प्रदेश की सत्ता से विदाई की पटकथा लिखने को आतुर समाजवादी धीरे-धीरे प्रतीकों को आधार बनाकर भारतीय जनता पार्टी को उसकी ही पिच पर घेरने में जुट गई है। रायबरेली में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को कृष्णावतार के रूप में चित्रित तस्वीर इसका ताजा उदाहरण है। हालांकि इस तस्वीर को लेकर अभी भाजपा की तरफ से शोर-शराबे का होना बाकी है। लेकिन धर्म और राजनीति का मिक्स कॉकटेल गटक रही भाजपा का यह शोर-शराबा उसकी बौखलाहट से अधिक कुछ नहीं होगा।

जनज्वार के पाठकों को बता दें कि सपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शुक्रवार से दो दिन के दौरे पर रायबरेली में हैं। दो दिवसीय दौरे पर अखिलेश कल बछरांवा विधानसभा पहुंचे थे। जहां उन्होंने बछरांवा, हरचंदपुर और सरेनी विधानसभाओं में ताबड़तोड़ तीन जनसभाएं की थी। आज शनिवार को भी उनकी जनसभाएं हैं। मगर इसी बीच इन इलाकों के शहर में लगी कुछ होर्डिंगों ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचना शुरू कर दिया है। इन होर्डिंगों में अखिलेश यादव को कृष्ण के अवतार में दिखाया गया है। होर्डिंग में अखिलेश के चित्र के साथ ही लिखा है "कृष्ण है-विनायक है, धर्म ध्वजा के नायक है-अब ढोंगियों का नाश है, अधर्मियों का संहार है-क्योंकि अखिलेश जी अवतार हैं"। इस होर्डिंग में एक स्थानीय युवा नेता की फोटो भी लगी है।

यह होर्डिंग लोगों की दिलचस्पी की वजह बना हुआ है तो सपा कार्यकर्ताओं को बेतहाशा ऊर्जा भी दे रहा है। गांधी परिवार की राजनैतिक जमीन पर सपा की जनसभाओं को सपा-कांग्रेस के बिगड़ते रिश्ते के तौर पर देखने वालों के लिए यह सोचना शायद हैरानी भरा हो सकता है कि सपा प्रतीकों का महत्त्व समझते हुए राजनीति में भाजपा के समकक्ष लकीर खींचने की ओर बढ़ रही है।

राजनीति अगर संघर्षों के पथ पर बढ़ता रथ है तो प्रतीक उसे आंतरिक ऊर्जा देने वाले तत्व। अनायास ही नहीं, स्वतंत्रता आंदोलन के सभी सकारात्मक प्रतीकों पर कांग्रेस का एकछत्र कब्जा है तो तो धुर दक्षिणपंथी राजनीति करने वाली भाजपा के भी अपने सांस्कृतिक प्रतीक हैं। बसपा बुद्ध-अम्बेडकर की बौद्धिक विरासत पर जब तक ईमानदारी से चलती रही, तब तक वह राजनीति में टिकी रही। जैसे ही उसने हाथी को गणेश के रूप में स्वीकार किया वैसे ही उसकी उल्टी गिनती शुरू हो गयी, क्योंकि राजनैतिक बाजार में इस खेल के मास्टर खिलाड़ी के रूप में भाजपा पहले ही मौजूद थी। वैसे सपा के नाम में भले ही समाजवादी शब्द लगा हो, लेकिन वास्तविक समाजवाद से इसका कोई लेना-देना नहीं था। पिछली सरकार से मिले राजनैतिक अनुभव के बाद अखिलेश को समझ आने लगा है कि भाजपा ने भारतीय राजनीति को जिस मोड पर खड़ा कर दिया है, वहां विकास की बात करके सत्ता पाना दूर की कौड़ी है। अपने प्रतीकों पर गर्व करने वाले कम से कम उत्तर भारतीय समाज के लिए विकास का मुद्दा उसके प्रतीकों के मान-सम्मान के बाद आता है। ऐसे में अखिलेश के कोर समझे जाने वाले वोटर के लिए कृष्ण से बड़ा प्रतीक और क्या हो सकता है ?

भारतीय जनमानस में कृष्ण की अलग-अलग जितनी छवियां हैं, प्रतीकों के रूप में उसका प्रयोग उतना ही आसान है। इसीलिए रायबरेली का अखिलेश को कृष्ण के रूप में चित्रित करता यह होर्डिंग महज एक होर्डिंग न होकर धर्म की आड़ लेकर अधर्म की राजनीति करने वालों के खिलाफ अखिलेश का वह मनोवैज्ञानिक युद्ध है। जो एक तरफ तो भाजपा के मथुरा मुद्दे पर उसका एकाधिकार समाप्त करने को कोशिश करता है तो दूसरी तरफ आक्रामक भाजपाई हमलों का मुकाबला करने के लिए सपा कार्यकर्ताओं को नैतिक साहस भी मुहैया कराता है।

चार वर्ष पूर्व अखिलेश यादव के गृह नगर सैफई में कांसे की बनी भगवान कृष्‍ण की 50 फुट ऊंची रथ का पहिया उठाने वाली मुद्रा में बनी व यादव बहुल इलाके में लगी प्रतिमा हो या तीन साल पहले गोवर्धन पूजा में शामिल होने वाराणसी पहुंचे अखिलेश के समय उनके स्वागत में लगे कृष्णावतार वाले पोस्टर हो, सबका निहितार्थ यही है।

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