यह एक सांझी शहादत थी 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के इस बाग में बहे खून में हर जाति, मजहब, वर्ग के हिन्दुस्तानी का खून शामिल था. शहादत की इसी विरासत को आज फिर से याद करना जरूरी है. जरूरी है कि जालियांवाला बाग की घटना सिर्फ किताबों और लाइब्रेरियों तक ही सीमित न रह जाए...
बलविंदर कौर 'नंदनी' का विश्लेषण
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग में बेगुनाह भारतीयों की शहादत भारत के लिए एक कभी न भुलाया जा सकने वाला गम है. लेकिन यह घटना स्वतंत्रता संघर्ष के लिए एक अमर प्रतीक बन गई. एक त्रासदी जिसने भारत की आजादी की लड़ाई को हमेशा के लिए बदल के रख दिया. इस घटना से पैदा हुआ जनाक्रोश फिर नहीं थमा और 28 साल बाद 15 अगस्त 1947 को भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य हमेशा के अस्त हो गया.
यह एक सांझी शहादत थी 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के इस बाग में बहे खून में हर जाति, मजहब, वर्ग के हिन्दुस्तानी का खून शामिल था. शहादत की इसी विरासत को आज फिर से याद करना जरूरी है. जरूरी है कि जालियांवाला बाग की घटना सिर्फ किताबों और लाइब्रेरियों तक ही सीमित न रह जाए. सोशल मीडिया के दौर में जब फेसबुक, ट्विटर सांप्रदायिक प्रचार से भरे हुए हैं ऐसे में जालियांवाला बाग की विरासत ही इस जहरीले प्रचार का सही जवाब हो सकती है.
आज जरूरी है फिर से इस घटना की एक-एक जानकारी को लोगों तक पहुंचाना.
क्यों हुआ था जलियांवाला हत्याकांड
अंग्रेज सरकार के काले कानून रोलेट एक्ट, दमनकारी नीतियों और दो नेताओं सत्यापल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के विरोध में 13 अप्रैल, 1919 को लोग जलियांवाला बाग में लोग जमा हुए थे. उस दिन बैसाखी का त्योहार था और पंजाब में इस त्योहार पर मेले लगा करते हैं.
यही वजह है कि अमृतसर शहर में सख्त नाकाबंदी होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोग मेले में पहुंचे थे. मेले में जाने वाले लोग जलियांवाले बाग भी पहुंच रहे थे. अंग्रेज हुकुमत ने लोगों के जमा होते इस सैलाब को अपने खिलाफ बगावत समझ लिया.
ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर 90 ब्रिटिश सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग पहुंच गया। डायर के आदेश पर सैनिकों ने बिना कोई चेतावनी दिए निहत्थे लोगों पर गोलियां चला दीं.
ब्रिटिश सैनिकों ने 1650 राउंड फायरिंग की. सेना की गोलियों से बचने के लिए कई लोग बाग में बने एक कुंए में कूद गए. यह कुआं आज भी बाग में स्थित है और इसे शहीदी कुएं के तौर पर जाना जाता है.
अंग्रेज सरकार ने की हत्याकांड को छुपाने की कोशिश
इस हत्याकांड में कितने निर्दोष मारे गए यह कभी साफ नहीं हुआ. आधिकारिक आंकडे 381 शहीदों के बारे में बताते हैं जबकि अनाधिकारिक रूप से कहा जाता है कि यह आंकड़ा कहीं ज्यादा था.
अंग्रेज सरकार ने इस हत्याकाडं की जांच के लिए हंटर आयोग का गठन किया था जिसके मुताबिक 381 लोग मारे गए. लेकिन हंटर आयोग की रिपोर्ट को भारतीयों ने नहीं स्वीकारा और बाद में इतिहासकारों ने हंटर आयोग की रिपोर्ट पर संशय जताया.
अंग्रेज सरकार ने पूरा जोर लगा दिया कि इस हत्याकांड की सही जानकारी कभी दुनिया के सामने न आ पाए.
इतिहासकार शम्सुल इस्लाम के मुताबिक, ‘भारत सरकार के गृह विभाग की जून 1919 की एक रिपोर्ट, जिसमें पंजाब में मारे गए लोगों के आंकड़े दिये गये हैं, को देखकर यह साफ पता लगता है कि किस तरह अंग्रेज शासकों ने पंजाब में किए गए कत्लेआम पर पर्दा डालने की कोशिश की। मृतक अंग्रेजों का ब्यौरा तो उपलब्ध है, लेकिन मारे गए भारतीयों के बारे में साफ लिखा गया है कि उनकी संख्या कभी भी पता नहीं की जा सकेगी। इस रिपोर्ट में गृह सचिव की यह टिप्पणी कि अगर मृतक भारतीयों के बारे में हम कोई भी संख्या दें तो वो मानी नहीं जाएगी, अंग्रेज शासकों के नैतिक पतन की छवि को ही रेखांकित करती है।‘
सांझी शहादत
शम्सुल इस्लाम बताते हैं – शहीदों की सूची से यह सच बहुत साफ होकर सामने आता है कि बाग में हिंदू, सिख और मुसलमान बड़ी तदाद में मौजूद थे. 381 शहीदों में से 222 हिंदू, 96 सिख और 63 मुसलमान थे. इस सूची की खास बात यह थी कि वहां मौजूद जनसमूह हर तरह की जातियों और पेशों से जुड़ा था.
उनका कहना है कि – यह तथ्य इस गौरवशाली सच को रेखांकित करता है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष एक सांझा आंदोलन था और अभी मुस्लिम राष्ट्र और हिंदू राष्ट्र के झंडाबरदार हाशियों पर पड़े थे.
इस हत्याकांड से जुड़े साहित्य पर भी अंग्रेज सरकार ने बैन लगा दिया था. यह साहित्य देश की हर भाषा में लिखा गया था जैसे- ‘बा बाग़े जलियां’(रामस्वरूप गुप्ता द्वारा हिंदी में लिखित संगीतात्मक नाटक), ‘जालियांवाला बाग़’ (फिरोजुद्दीन शर्फ द्वारा गुरमुखी में एक लंबी कविता), ‘पंजाब का हत्याकांड’ (उर्दू में लम्बा नाटक) और ‘जालियांवाला बाग़’ (एक लम्बा गुजराती नाटक)
दो अफसर जो इस हत्याकांड के लिए जिम्मेदार थे उनका क्या हुआ
इस घटना के बाद रेगीनाल्ड डायर (जिसने गोलियां चलवाईं) का डिमोशन कर उसे कर्नल बना दिया गया. डायर को ब्रिटेन वापस भेज दिया गया. जहां 1927 में उसकी मृत्यू हो गई.
उस समय पंजाब के गर्वनर रहे माईकल ओ डायर को भी इस घटना के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इस घटना के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को लंदन में माईकल ओ डायर की हत्या कर उधम सिंह ने जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला ले लिया.
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि उधम सिंह ने अदालत में अपना नाम 'राम मोहम्मद सिंह आजाद' बताया था जो दिखाता है कि आजादी की लड़ाई के मूल्य सांझे थे.