विश्वभर में आत्महत्या करने वाली महिलाओं में से 35 प्रतिशत से अधिक भारतीय
आत्महत्या के सबसे कम मामले सामने आते हैं कुवैत, अंटीगुआ और बारबुडा, ओमान, सऊदी अरबिया, सीरिया, तुनिशिया, इंडोनेशिया, पेरू, बहमास और जॉर्डन में, जबकि आत्महत्या के सबसे अधिक मामले 51.1 फीसदी दर्ज किए जाते हैं ग्रीनलैंड में...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
आत्महत्या पूरे विश्व में एक गंभीर समस्या है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हरेक वर्ष इससे लगभग 8 लाख लोग मरते हैं। इतने लोग युद्ध और हत्या को मिलाकर भी नहीं मरते। जानकारों के अनुसार मानव इतिहास के हरेक चरण में आत्महत्या मौजूद रहा है और यह सभी संस्कृतियों और सभी धर्मों में व्याप्त है।
आत्महत्या के आंकड़े प्रति एक लाख जनसंख्या में प्रतिवर्ष मृत्यु के आधार पर निकाले जाते हैं। भारत में यह दर 15.6 है, और वर्ष-दर-वर्ष कम हो रही है। फिर भी दुनियाभर में जितनी महिलायें आत्महत्या करती हैं, उनमें से 35 प्रतिशत से अधिक भारतीय होती हैं।
भारत के पड़ोसी देशों में केवल श्रीलंका में आत्महत्या की दर (19.8) भारत से अधिक है। चीन, भूटान, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान और बांग्लादेश में यह दर क्रमशः 7.2, 5.7, 5.04, 8.37, 4.4 और 6.03 है। आत्महत्या के सबसे अधिक मामले ग्रीनलैंड में दर्ज किये जाते हैं और वहां इसकी दर 51.1 है। इसके बाद क्रम से जो देश हैं, उनके नाम हैं – लोसेथो (31.7), लिथुआनिया (28), ज़िम्बाब्वे (26.4), किरबाती (26।4), गुयाना (26.1), यूक्रेन (25.6), रूस (25।1), सूरीनाम (24.8) और पापुआ न्यू गिनिया (23.1)।
आत्महत्या के सबसे कम मामले कुवैत, अंटीगुआ और बारबुडा, ओमान, सऊदी अरबिया, सीरिया, तुनिशिया, इंडोनेशिया, पेरू, बहमास और जॉर्डन में दर्ज किये जाते हैं। इन देशों में आत्महत्या की दर क्रमशः 2.5, 2.7, 2.9, 3, 3.1, 3.1, 3.1, 3.1, 3.2 और 3.2 है। ऑस्ट्रेलिया में आत्महत्या की दर 11.04 है, साउथ अफ्रीका में 11.15, इंग्लैंड में 7.35, ब्राज़ील में 6.1 और अमेरिका में 14 है।
दुनिया के कुछ देशों में आत्महत्या की दर कम हो रही है, जबकि कुछ देशों में यह बढ़ रही है। ग्रीनलैंड में सबसे अधिक लोग आत्महत्या करते हैं, पर यह दर अब कम हो रही है, अमेरिका में यह दर वर्ष-दर-वर्ष बढ़ती जा रही है। मेक्सिको में आत्महत्या कम लोग करते हैं, पर धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। दुनियाभर में पुरुषों की अपेक्षा महिलायें आत्महत्या कम करती हैं। आयु वर्ग 10 से 14 वर्ष में सबसे अधिक आत्महत्या के मामले कजाखिस्तान, सूरीनाम, रूस और उक्रेन में सामने आते हैं।
चार्ल्स डार्विन ने अपनी पुस्तक, “ओन द ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीज” में लिखा था कि कोई भी प्रजाति अपने स्वाभाविक विकास के दौरान ऐसा कुछ पनपने नहीं देगा जो उसके लिए ही नुकसानदायक हो। पर आत्महत्या तो एक तरीके से इस सिद्धांत के ठीक विपरीत है। आत्महत्या मानव विकास के हरेक क्रम में रहा है। जब मनुष्य शिकारी जीवन व्यतीत करता था, तब भी आत्महत्या करता था और अब जब महानगरों में रहने लगा है तब भी आत्महत्या कर रहा है।
अब तक चिकित्सा विज्ञान और मनोविज्ञान में लगभग एक मत से माना जाता रहा है कि आत्महत्या का कारण मानसिक विकार या मानसिक रोग है, पर कुछ नए सिद्धांत आजकल चर्चा में हैं और इन सिद्धांतों पर दुनियाभर में बहस चल रही है। फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक थॉमस जॉइनर के अनुसार आत्महत्या मनुष्य की परोपकारी और त्याग की प्रवृत्ति का एक स्वरूप है। इनके अनुसार आत्महत्या करने वाले लोग अपने सगे-सम्बन्धियों और दुनिया को खुश देखना चाहते हैं, और अपने आप को इस खुशी में एक बाधा समझते हैं।
सबसे अधिक चर्चा जिस सिद्धांत की हो रही है, उसे लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के मनोवैज्ञानिक निकोलस हम्फ्रे और लिस्बन के मनोवैज्ञानिक क्लिफोर्ड सोपार ने प्रतिपादित किया है। इनके अनुसार यह मनुष्य के जटिल और बड़े मस्तिष्क का एक दुखद पहलू है। आत्महत्या मनुष्य के बुद्धि का एक स्वरुप है जिसने सोच और संस्कृतियों को बदला है।
इस सिद्धांत के अनुसार मानव के विकास के क्रम में आत्महत्या से बचाव के लिए कई स्वाभाविक तरीके ईजाद किये हैं और धर्म उनमें से सबसे प्रमुख है। दुनिया का कोई भी धर्म आत्महत्या करने की बात नहीं करता। आत्महत्या से बचाव के दावे में निकोलस हम्फ्रे बताते हैं कि जितने लोग आत्महत्या करते हैं उससे 200 गुना अधिक लोग इसके बारे में सोचते हैं, पर आत्महत्या करते नहीं। यह सब उस सुरक्षा कवच के कारण होता है, जिसे मनुष्य ने विकास के दौरान धीरे-धीरे विकसित किया है।
ओकलैंड यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक टॉड एल्फोर्ड के अनुसार यह सिद्धांत संभव है पूरी तरीके से गलत हो, पर इससे आत्महत्या के मनिविज्ञान को एक नयी दिशा मिली है और पूरे विश्व में इसकी चर्चा है।