डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट की पहली पुण्यतिथि 22 सितंबर पर विशेष
जब पहाड़ का पढ़ा-लिखा तबका वहां से पलायन कर अच्छी नौकरियों को तरजीह दे रहा था, उस समय शमशेर सिंह बिष्ट ने वहां के समाज को जागरुक कर उनके जल-जंगल-जमीन के सवालों समेत तमाम अन्य जनांदोलनों में अग्रणीय भूमिका निभायी और ताउम्र पहाड़ के तमाम सवालों के लिए लड़ते रहे...
पहली पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं अंकित गोयल
जनज्वार। उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और राज्य आंदोलनकारी रहे डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट की कल 22 सितंबर को पहली पुण्यतिथि है। पिछले साल अपने अल्मोड़ा स्थित आवास पर लंबी बीमारी के बाद 71 साल की उम्र में उनका निधन हो गया था।
शमशेर सिंह बिष्ट की पहली पुण्यतिथि पर उनके शहर अल्मोड़ा में एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, जिसमें उनके कार्यों व विचारों पर चर्चा करते हुए वर्तमान चुनौतियों और हालातों पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है। दो सत्रों में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में देशभर से सैकड़ों इस कार्यक्रम में देशभर से 200 से अधिक प्रगतिशील विचारक, पत्रकार और बुद्धिजीवी हिस्सेदारी कर रहे हैं।
पहाड़ के ख्यात पत्रकारों और बुद्धिजीवियों में शुमार रहे डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट का जन्म 4 फरवरी 1947 में अल्मोड़ा जिले में स्याल्दे क्षेत्र के खटल गांव में हुआ था। उनके दादा फर्स्ट जीआर में नायक सूबेदार रहे। उनके पिता गोविन्द सिंह कचहरी में क्लर्क रहे। शमशेर सिंह बिष्ट का शुरुआती जीवन अभावों में बीता। जब वे सातवीं कक्षा में थे, अंगीठी जलाते वक्त दुर्घटनाग्रस्त हो गये थे। अंगीठी जलाते वक्त मिट्टी का तेल उन पर भी पड़ गया था, जिससे वो गंभीर रूप से जल गये। तब वे छह महीने तक अस्पताल रहे। बाद में उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा जारी रखी।
उन्होंने छात्र जीवन से ही पहाड़ को जानने, समझने का प्रयास किया और आम जनता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। अल्मोड़ा इण्टर कॉलेज से 12वीं करने के बाद अल्मोड़ा डिग्री कॉलेज में प्रवेश लेते ही उन्होंने छात्रों के बीच विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया।
जब वे कॉलेज में थे तब फुटबॉल खेल में शहर के लड़कों का दबदबा रहता था। वे गांव के लड़को को खेलने नहीं देते थे, मगर तब शमशेर सिंह बिष्ट हस्तक्षेप करते और ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों को भी खेल का अवसर दिलवाते। यानी किसी के हक-हकूकों के लिए लड़ने का जज्बा उनमें बचपन से ही था।
उनका राजनीतिक सफर 1972 में अल्मोड़ा कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष के तौर पर शुरू हुआ। उस समय छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के लिए छात्र पूरा सिनेमा हॉल बुक कर छात्रों को फिल्म दिखाते थे। तब शमशेर सिंह बिष्ट 50 रुपये खर्च कर छात्रसंघ अध्यक्ष बने थे। छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के बाद इसके बाद स्व. बिष्ट विश्वविद्यालय आंदोलन से जुड़े और इसके बाद ही कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये थे।
उनके बारे में एक और दिलचस्प बात यह है कि जब लोग पहाड़ से पलायन कर अच्छी नौकरियों को तरजीह दे रहे थे, उस समय शमशेर सिंह बिष्ट ने ने वहां के समाज को जागरुक कर उनके जल—जंगल—जमीन के सवालों समेत तमाम अन्य जनांदोलनों में अग्रणीय भूमिका निभायी और ताउम्र पहाड़ के तमाम सवालों के लिए लड़ते रहे। वर्ष 1982 में बिष्ट देश के तमाम आंदोलनों और जन संगठनों के इंडियन पीपल्स फ्रंट (IPF) के संस्थापक सदस्य और उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे। बाद में वे IPF के सक्रिय राजनीति में शामिल होने के निर्णय के बाद उससे अलग हो गये थे।
डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट सामाजिक कार्यकर्ता के साथ साथ जनपक्षधर पत्रकार के तौर पर भी खासे प्रसिद्ध थे। उन्होंने जनसत्ता, तीसरी दुनिया, नैनीताल समाचार और अनेक पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखा। उनकी ज्यादातर रिपोर्टें ग्रासरूट की होती थीं। किसी भी दुर्घटना के बाद वहां के अधिकारियों से बात करने की बजाय वहां के स्थानीय लोगों की तकलीफों को जानकर वह खबर के तथ्य तक पहुंचते थे।
1978 की भागीरथी की भीषण बाढ़ से उत्तरकाशी और उस इलाके में भारी तबाही की खबर पाकर शमशेर सिंह बिष्ट ख्यात कवि और सामाजिक कार्यकर्ता रहे गिरीश तिवारी गिर्दा के साथ फौरन घटनास्थल पर पहुंच गये। वहां की तबाही का मूल कारण पहाड़ टूटने से भागीरथी में बनी एक झील थी। भारी तबाही के बीच जहां रास्ता नहीं था। वो दोनों बड़ी मुश्किलों से झील तक पहुँचे थे। यह उन्हीं की रिपोर्ट थी, जिसने सच सामने रखा था कि ज्योति और डांग्ला के बीच पूरा ढोकरयानी पहाड़ टूटकर भागीरथी के प्रवाह को रोके हुए था। आधी झील पहले टूटकर तबाही मचा चुकी थी।
डांगला की चोटी से जब वे उस झील को देख रहे थे तो वह दोबारा खतरे का संकेत दे रही थी। दोनों अपनी जान की परवाह न कर नीचे भागे थे, ताकि प्रशासन और जनता को सावधान किया जा सके। एक जगह ऊपर से गिरते एक भारी पत्थर से गिर्दा बाल-बाल बचे थे। उनकी यह रिपोर्ट ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित हुई थी, जिसे युवा पत्रकारों को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।
पौड़ी में शराब माफिया के खिलाफ लिखने वाले युवा पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद आवाज बुलंद कर उसे आंदोलन के रूप में बदल देने वालों में शमशेर सिंह बिष्ट पहले सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार थे। गौरतलब है कि उस समय में पौड़ी से लेकर राजधानी दिल्ली तक शराब माफिया मनमोहन सिंह नेगी के खिलाफ बोलने की हिम्मत कोई भी नहीं कर पाता था। शराब माफिया के खिलाफ चले इस आंदोलन के बाद ही शासन-प्रशासन इस मामले में सक्रिय हुआ और इसकी शमशेर और उनके साथियों के आंदोलन के बाद ही इस मामले की उच्च स्तरीय जांच हुई।
पृथक उत्तराखण्ड राज्य के लिए चले आंदोलन में शमशेर सिंह बिष्ट ने सर्वदलीय संघर्ष समिति के बैनर तले सभी राजनीतिक धाराओं को एक मंच पर लाने का भी महत्वपूर्ण काम काम किया था। इस जुझारू सामाजिक—राजनीतिक कार्यकर्ता को हेमवंती नंदन बहुगुणा और केसी पंत जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने कांग्रेस में लाने की काफी कोशिश की थी, मगर उन्होंने सक्रिय राजनीति में शामिल होने के बजाय सामाजिक आंदोलनों को अपना मिशन बनाया।
उन्हें याद करते हुए उत्तराखंड के जनसरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार चारु तिवारी कहते हैं, ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन जब मेरे क्षेत्र गगास घाटी में सबसे प्रभावी तरीके से चला तो मुझे शमशेर सिंह जी को बहुत नजदीक से देखने, सुनने और जानने का मौका मिला। उन दिनों इन युवाओं को देखना-सुनना हमारे लिये किसी कौतूहल से कम नहीं था। हम लोग ग्रामीण क्षेत्र के रहने वाले थे। हमें लगता था कि ये लड़के इतनी जानकारी कहां से जुटाते हैं। एक से एक प्रखर वक्ता। लड़ने की जिजीविषा से परिपूर्ण। तब पता चला कि शमशेर कौन हैं।'
चारु तिवारी आगे कहते हैं, 'उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। आखिरी समय तक वे गैरसैंण राजधानी के आंदोलन का मार्गदर्शन करते रहे। देश-दुनिया की कोई भी हलचल ऐसी नहीं थी जिससे डाॅ. बिष्ट अछूते रहे। वे देश के हर कोने में जाकर जनता की आवाज को ताकत देते रहे। उनका देश के हर आंदोलन से रिश्ता था। पहाड़ ही नहीं देश के हर हिस्से के आंदोलनकारी शमशेर जी का सम्मान करते थे। एक पत्रकार के रूप में उन्होंने जनता के सवालों को बहुत प्रखरता के साथ रखा।'
वे विश्वविद्यालय आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन, चिपको आंदोलन और उत्तराखंड राज्य आंदोलन में अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शुमार थे।
डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट ने जीवन पर्यंत साधारण जीवन जिया। उनमें नेतृत्व की क्षमता गजब की थी। आमतौर पर वह बहुत विनम्र और संयमी थे, मगर जरूरत पड़ने पर किसी को भी ललकार सकते थे। स्थानीय आंदोलनों में उन्होंने कई बार जिला प्रशासन और पुलिस से डटकर मोर्चा लिया। आंदोलनों में वह जनता से शांतिपूर्ण भागीदारी की अपील करते नजर आते थे। किसी कार्यक्रम में अगर उन्हें लगता कि बहुमत उचित नहीं है तो वह अपनी असहमति रखने में भी पीछे नहीं हटते थे।
शमशेर सिंह बिष्ट कुमाऊं-गढ़वाल एकता और इस पूरे हिमालयी क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर को समझने के लिए शुरू की गई अस्कोट-आराकोट यात्रा को शुरू करने वाले प्रमुख लोगों में से एक थे। अस्कोट-आराकोट यात्रा उन्होंने इतिहासकार शेखर पाठक के साथ 1974 में शुरू की थी। उनकी चिंताओं में हमेशा उत्तराखण्ड का समाज रहा। यहां के प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, सरकार की गलत शिक्षा नीति, लोगों के जल-जंगल-जमीन के अधिकारों के लिए वे हमेशा लड़ते रहे।