पीड़ित ग्रामीणों का कहना है कई गांव वालों को पुलिसकर्मियों ने दौड़ा-दौड़ा कर मारा है, जिनमें गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं, पुलिस द्वारा घेरकर मारे गए सभी 15 लोग कामकाजी आदिवासी हैं। निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गईं…
सुशील मानव की रिपोर्ट
जनज्वार। छत्तीसगढ़-झारखंड-और महाराष्ट्र सरकारों द्वारा अपने राज्य के जंगलों को आदिवासी विहीन करने के अभियान में तीनों राज्य सरकारों के बीच फर्जी मुठभेड़ में आदिवासियों को मरवाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। कुछ समय पहले गढ़चिरौली महाराष्ट्र में इंद्रीवती नदी के पास राजाराम के जंगल में 43 लोगों की महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 कमांडो द्वारा हत्या कर दी गई थी, जिनमें अधिकांशतः लोग इटापल्ली और बोरीया गाँव के आदिवासी युवक—युवतियाँ थे। इनमें से 8 लोग तो इटापल्ली गाँव से एक शादी में शरीक होने आए थे, जबकि फरवरी 2018 में भी सुकमा में 20 आदिवासियों को मारकर नक्सली बता दिया गया था।
ताजा घटनाक्रम में विश्व आदिवासी दिवस से ठीक तीन रोज पहले यानी 6 अगस्त की सुबह छत्तीगढ़ पुलिस ने सुकमा में 15 आदिवासियों को घेरकर उनकी हत्यी कर दी। बस्तर के नुलकातोंग की स्थानीय महिलाओं के मुताबिक मारे गए 15 कथित नक्सलियों में छह नाबालिग थे, जिनकी उम्र 13 से 15 वर्ष के बीच थी।
ये सभी अपने खेतों में काम कर रहे थे जब पुलिस के गश्ती दल ने इन सबको घेरकर गोलियों से छलनी कर दिया। घटना के ठीक अगले दिन यानी 7 अगस्त को आम आदमी पार्टी के आदिवासी मोर्चे की अध्यक्ष सोनी सोरी, बस्तर लोकसभा अध्यक्ष रोहित सिंह आर्य, केंद्रीय पर्यवेक्षक भानु भारतीय और रामदेव बघेल शामिल थे, घटना वाले क्षेत्र में पीड़ित परिवारों से मिलने गए।
उनके मुताबिक मारे गए सभी 15 जन आदिवासी थे। इनमें से किसी का भी भी दूर दूर तक नक्सलियों से न तो कोई रिश्ता था न ही इनमें से किसी का नाम पुलिस के आपराधिक रिकार्ड में दर्ज था। जिला सुकमा के मेहता पंचायत के वो चार गांव और उनके निवासियों में नुलकातोग गाँव के सात आदिवासी नाबालिग किशोर शामिल थे जो पुलिस द्वारा खेत में घेरकर मार दिए गए।
उनके नाम हैं - हिड़मा मुचाकी/ लखमा, देवा मुचाकी/ मुका हुर्रा, मुका मुचाकी/ मुका, मड़कम हुंगा / हुंगा, मड़कम टींकू / लखमा, सोढ़ी प्रभू / भीमा और मड़कम आयता / सुक्का। परिजनों के मुताबिक इन सातों किशोरों की उम्र 13-16 वर्ष के बीच है।
गोमपाड़ गाँव के भी 6 लोगों की हत्या कर दी गई है। इनके नाम- मड़कम हुंगा / हुंगा, कड़ती हड़मा / देवा, सोयम सीता /रामा, मड़कम हुंगा / सुक्का, वंजाम गंगा / हुंगा और कवासी बामी / हड़मा है। वहीं ग्राम किनद्रमपाड़ गाँव के माड़वी हुंगा / हिंगा को भी मार दिया गया, जबकि वेलपोच्चा गाँव के वंजाम हुंगा / नंदा को पुलिस ने मुठभेड़ के नाम पर हत्या कर दी।
वहीं नुलकातोग से मड़कम बुधरी / रामा नाम की महिला को पैर में गोली लगी है, जबकि वेलपोच्चा से वंजाम हुंगा / नंदा को पुलिस ने पकड़ कर ले गई है और इनामी नक्सली बता रही है। संभव है और जैसा कि इन इलाकों में पुलिस बल का अब तक का पैटर्न भी रहा है, बलात्कार करने बाद वंजाम हुंगा भी हत्या कर दी जाए और फिर कुछ ही रोज में उसकी भी लाश कहीं किसी जंगल से बरामद करके मुठभेड़ दिखा दी जाए।
इनके अलावा और तीन युवकों को भी छत्तीसगढ़ पुलिस पकड़ कर ले गई है। कई गांव वालों को पुलिसकर्मियों ने दौड़ा-दौड़ा कर मारा है, जिनमें गर्भवती महिलाएं भी शामिल हैं। ये सारी जानकारी देते हुए पीड़ित परिजनों ने अपनी पूरी व्यथा सुनाई। ग्रामीणों का कहना है कि पुलिस द्वारा घेरकर मारे गए सभी 15 लोग कामकाजी आदिवासी लोग हैं कहीं कोई मुठभेड़ नहीं हुई है। गांव में कोई नक्सली था ही नहीं, पुलिस ने निहत्थे लोगों को बिना कुछ पूछे—ताछे उनपर अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं।
सुकमा जिले के एसपी अभिषेक मीणा, डी.एम. अवस्थी और ए.डी.जे. नक्सल ऑपरेशन को उनके कुकृत्य पर रमन सरकार बलाइयाँ ले रही हैं, जबकि पीड़ित परिजन अब अपने निर्दोष बच्चों की लाशों को प्रप्त करने के जद्दोजहद में लगे हुए हैं।
तमाम अख़बारों और न्यूज चैनलों की हेडलाइन थी, ‘सुकमा में बड़ी सफलता, 15 नक्सलियों को छत्तीसगढ़ पुलिस ने मार गिराया’ कितनी शर्म की बात है कि मीडिया राज्य पुलिस, अर्द्धसैनिक बल और कमांडों के हवाले से खबरों को ज्यों की त्यों उन्ही की भाषा में हेडलाइन बनाकर चला देती है। एक भी बार उस खबर की विश्वसनीयता पर संदेह किए बिना।
जबकि पिछले कई वर्षों में लगातार पुलिस बल के जवानों को परमोशन और इनाम का लोभ देकर क्रोनी-कैपिटलिज्म मुठभेड़ के नाम पर उनके हाथों आदिवासियों की सामूहिक हत्याएं करवाता आया है। खनिज संपदा वाले बस्तर, सुकमा और गढ़चिरौली जैसे आदिवासी क्षेत्रों में कई मुठभेड़ों के फर्जी होने और नक्सलियों के नाम पर निर्दोष आदिवासियों की सामूहिक हत्याएँ किए जाने के कई मामलों का पर्दाफाश हो चुका है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब 22-24 अप्रैल 2018 को गढ़चिरौली में हुए फर्जी मुठभेड़ को मीडिया के बड़े बड़े नामों ने ‘नक्सवाद के सफाये’ की हेडलाइन के साथ चलाया था, जबकि 5-6 दिन बीद ही उस मुठभेड़ के फर्जी होने के पुख्ता सबूत मिले थे। ये साबित हो जाने के बाद भी कि गढ़चिरौली में मार डाले गए 43 लोगों में 37 नक्सली नहीं निर्दोष आदिवासी थे, किसी भी मीडिया संस्थान ने अपनी फर्जी पत्रकारिता करने के लिए माफी तक नहीं माँगी।
ये कैसा लोकतंत्र हैं जहाँ न्यायपालिका और मानवाधिकार आयोग आँखों में सरसों का तेल डाले बैठे हैं। मीडिया की खबरों के सूत्र निर्दोष आदिवासियों की हत्या करने वाले पुलिस बल का लीडर है। आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को फेसबुक पर पोस्ट करने के वाले बीस लोगों पर सरकार द्वारा राष्ट्रद्रोह का मुकदमा जरूर दर्ज कर दिया जाता है।