बंद हो सर पर मैला ढोने का काम और पुनर्वास की मांग के साथ महिलाओं ने किया सम्मेलन

Update: 2019-06-28 15:34 GMT

कानूनन मैला ढोने वाले परिवारों की पहचान होते ही उनको तुरंत 40 हजार रुपये की एकमुश्त धनराशि देते हुए इनके स्थायी पुनर्वास के लिए कार्य किया जाना चाहिए, मगर 6 महीने से अधिक समय होने के बाद भी स्थायी पुनर्वास के लिए सरकार ने नहीं उठाया है कोई ठोस कदम...

उरई, जालौन। उरई में आज भी जारी मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ़ संघर्षरत सामाजिक संगठन 'बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच' के नेतृत्व में ग्रामीण महिलाओं का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। जिले के विभिन्न गांवों की मैला ढोने वाले समुदाय की महिलाओं ने अपने हक़, अधिकार व सम्मान के लिए आयोजित एकजुटता सम्मलेन में हिस्सेदारी की।

ह सम्मेलन गणेशधाम उत्सव गृह में किया गया। कार्यक्रम में मैला ढोने वाली महिलाओं ने अपनी यथास्थिति को बताया, साथ ही सभी ने एकजुटता सम्मलेन में साथ आकर इस कुप्रथा की पूर्ण समाप्ति व आज भी इस कुप्रथा में संलिप्त परिवारों के स्थायी पुनर्वास की मांग उठाई। सम्मेलन में प्रस्ताव पास किया गया कि यदि जल्द ही इस कुप्रथा को बंद कराकर मैला उठाने वालों का पुनर्वास नहीं कराया गया वे व्यापक आंदोलन करेंगे।

स कार्यक्रम में मैला ढोने का काम करने वाली महिलाओं मरगायां की कुसमा, मुन्नी, बेटिबाई, गुड्डी व मंगरोल गांव की सत्तो देवी, बेटी बाई, फूलनदेवी, उदनपुर की गुड्डी, हरचंदपुर की श्यामा, लुर्हगांव की लालकुंवर, बागी की सुखबासी, इटोरा की अन्नो, माया ने बताया कि उन्होंने मैला ढोने की प्रथा को बंद करने के लिए अपनी डलिया झाड़ू के साथ प्रदर्शन किया था।

ह प्रदर्शन उन्होंने अपने संगठन बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के साथ उरई समेत लखनऊ में भी किया था। इसमें मैला ढोने वाले कानून को लेकर लड़ाई लड़ी, तब कहीं जाकर सरकार ने हमें 40—40 हजार रुपये दिये थे। वो पैसे बहुत कम थे, जो हमारे इलाज व घर के काम में ही खर्च हो गए। अब हम क्या करें, 6 महीने से अधिक हो गए हैं इस बात को? मुन्नी, बुद्धश्री, जूली, गिरजा व प्रभा ने कहा कि हमारी पूरी जिन्दगी मैला ढोते ढोते निकली जा रही है, हमें अभी तक कोई पैसा नहीं मिला है। हमारा ये काम बंद कराकर पुनर्वास करवा दो, अगर विश्वास न हो तो हमारे घर आकर देख लो कि हम किस प्रकार अपनी जिन्दगी काट रहे हैं। हमें न शौचालय मिला है, न आवास मिला है। हम नर्क से भी बदतर जिंदगी जी रहे हैं।

मैला ढोने के काम से जुड़ी महिलाओं ने कहा कि हम सबने जो लड़ाई लड़ी, उसके चलते जिले में मैला ढोने वाले परिवारों को 40-40 हजार रुपये तो मिले। जिनको ये पैसे मिले उनका सारा पैसा कर्ज, बीमारी व घर खर्च में चला गया। हालत फिर जैसे के तैसे हो गये। इस बात को 6 माह से भी ज्यादा समय बीत जाने के बावजूद इनके पुनर्वास या अन्य रोजगार उपलब्ध कराये जाने की दिशा में कोई काम नहीं किया गया है।

कार्यक्रम में हिस्सेदारी करते हुए चम्बल फाउंडेशन के संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता शाह आलम ने कहा कि हम सबके लिए बड़े ही शर्म की बात है कि आजादी के 72 साल बाद भी इनकी जिन्दगी में कोई बदलाव नहीं हुआ है। इस मुद्दे को लेकर संघर्ष किया जायेगा। हमारे फाउंडेशन द्वारा जारी चम्बल जनघोषणा पत्र में भी इस मुद्दे को शामिल किया गया था, जिसमें आगामी चम्बल जन संसद में रखा जायेगा और इसको लेकर बड़े स्तर पर पैरवी की जाएगी।

बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच के संयोजक कुलदीप कुमार बौद्ध ने कहा कि संगठन इस कुप्रथा को लेकर लगातार जमीनी स्तर पर संघर्ष कर रहा है। मैला ढोने वाली महिलाओं के पिछले 3 साल के लगातार संघर्ष के बाद यह सफलता मिली की अकेले जालौन जिले में 600 से अधिक मैला ढोने वाले परिवारों को 40-40 रुपये मिले हैं। वहीं 1300 से अधिक मैला ढोने वाले परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने मैला ढोने बाले कानून के हिसाब से अपने आवेदन दिए हुये हैं, लेकिन अब तक उनको कोई मुआवजा नहीं मिला है।

कानून कहता है जैसे ही मैला ढोने वाले परिवारों की पहचान होती है उनको तुरंत 40 हजार रुपये की एकमुश्त धनराशि देते हुए इनके स्थायी पुनर्वास के लिए कार्य किया जाये, लेकिन 6 महीने से अधिक समय होने के बाद भी स्थायी पुनर्वास के लिए कोई ठोस कदम सरकार द्वारा नहीं उठाया गया, जिसको लेकर बुंदेलखंड दलित अधिकार मंच ने सभी मैला ढोने वाले परिवारों के साथ एकजुटता सम्मलेन किया।

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