राष्ट्रवाद और फासीवाद चाहने वालों का जयघोष था डोनाल्ड ट्रंप का भारत दौरा
ट्रंप एक ऐसे प्रशासन की अगुवाई करते हैं जो अमेरिका को वापस हिटलर के प्रिय राष्ट्र राज्य की ओर ले जाना चाहता है। कई मायनों में मोदी का भारत भी इस राह पर काफी आगे बढ़ चुका है...
येल विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर जैसन स्टैनले की टिप्पणी
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प ने गुजरात के स्टेडियम में उनके स्वागत में आये 1 लाख 25 हजार भारतीयों को संबोधित करते हुए कहा-'अमेरिका भारत से प्यार करता है। अमेरिका भारत का सम्मान करता है और अमेरिका हमेशा भारत के लोगों का विश्वासपात्र दोस्त बना रहेगा।' एक ऐसे राष्ट्रपति द्वारा कही गयी ये बातें बेसुरी लग सकती हैं जिसके शासन की ये खासियत रही है कि वो विदेशी आप्रवासियों को अमेरिका से खदेड़ने के जूनून में रहा है। लेकिन ये ऐसा जूनून है जो वो उनके साथ मंच पर खड़े प्रधानमंत्री मोदी के साथ साझा करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति पहले भी 'गंदे देशों' से आये परदेशियों को लेकर शिकायत करते रहे हैं और सुझाव देते रहें हैं कि वे 'नॉर्वे जैसे देशों' के आप्रवासियों को अमेरिका में रहने को प्राथमिकता देंगे और उनके प्रशासन ने मेहनत कर इसी प्राथमिकता को ध्यान में रख अप्रवासी कानूनों में बदलाव किये हैं। ट्रम्प के प्रथम एटॉर्नी जनरल जेफ सेसन्स ने 1924 के अप्रवासीय कानून की तरफ लौटने की बात कही। गौरतलब है कि 1924 के इस कानून ने एशिया के अप्रवासियों पर पाबंदी लगा दी थी और ऐसे लोगों का अमेरिका में प्रवेश पर कड़ा नियंत्रण लगा दिया था जो नस्लीय आधार पर अवांछित समझे जाते थे।
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बीसवीं सदी की शुरुवात में अमेरिका ने नागरिकता का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत किया ताकि गैर-श्वेतों और गैर-ईसाईयों को नागरिकता से वंचित रखा जाये। इसने हिटलर को प्रभावित किया। मेन काम्फ के दूसरे भाग में वो एक ऐसे देश के विचार की निंदा करता है जिसमें नागरिकता तय करने में 'नस्ल और राष्ट्रीयता' की कोई भूमिका न हो। 'राष्ट्रीय राज्य' की प्रस्तावना करते हुए वो कहता है: 'राज्य नागरिकता के हमारे वर्तमान क़ानूनों से कमतर और सनकीभरा कुछ भी सोच पाना संभव नहीं है। लेकिन कम से कम एक देश तो ऐसा है जिसमें बेहतर व्यवस्था हासिल करने के कमज़ोर प्रयास दिखायी देते हैं। वो देश है यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका जहां कुछ परिभाषित नस्लों को नागरिकता देने की पूरी मनाही है और राष्ट्रीय राज्य के विचार से अलग कुछ और की दिशा में एक मामूली शुरुआत कर रहे हैं।'
मेरी पत्नी के परदादा तकायुकी योकावा साटो एक मछुवारे थे। अपने पारिवारिक मिलन समारोहों में हम उनकी एक पुरानी अमेरिकी फोटो देखते हैं जिसमें वो मछली पकड़ने की रॉड और एक बड़ी मछली के साथ गर्व से खड़े दिखते हैं। एक जापानी अप्रवासी साटो ने बीसवीं सदी के शुरुआती साल में एक अमेरिकी नागरिक ग्रेस वर्जीनिया वुड्स से शादी रचाई। ये वो समय था जब देश 'एशियन मजदूरों' के आगमन के डर से ग्रसित था और सुप्रीम कोर्ट ने एशिया के लोगों को नागरिकता प्रदान किये जाने से वंचित रखा था। गैर-नागरिकों से विवाह करने पर अमरीकी महिलाओं की नागरिकता छिन जाने सम्बन्धी 1907 के देश निकाला क़ानून के साथ मिला कर देखें तो इसने वर्जीनिया वुड्स को नागरिकता से वंचित कर दिया। पति की मृत्यु के बाद ही उनकी नागरिकता बहाल हो सकी।
अमेरिकी अप्रवास नीति ही हिटलर की 'राष्ट्र राज्य' की परिकल्पना का आधार थी। सितम्बर 1935 में जर्मनी की सरकार ने इस परिकल्पना को न्यूरमबर्ग क़ानूनों के रूप में अमली जामा पहनाया। इन क़ानूनों के तहत गैर-आर्यों द्वारा 'जर्मन खून' वाले लोगों से शादी करने पर पाबंदी लगा दी गयी और यहूदियों के लिए दोयम दर्ज़े की नागरिकता का प्रावधान कर दिया। ऐसा करने में भी हिटलर अमेरिकी विचारधारा से प्रभावित था, ख़ासकर दूसरी नस्लों में शादी की मनाही वाले जिम क्रो क़ानूनों से। उस समय मेरे यहूदी पिता जर्मनी के नागरिक थे और बर्लिन में थे जहाँ उनका नवम्बर1932 में जन्म हुआ था। 15 सितम्बर 1935 को वे दोयम दर्जे के नागरिक हो गए।
सम्पूर्ण नागरिकता से जुड़ी सरकारी सुरक्षा अल्पसंख्यकों से छीन लेने पर उनके साथ क्रूर व्यवहार होने की संभावना बढ़ जाती है। हन्ना आरेण्ट की मशहूर पुस्तक 'Origins of Totalitarianism' में नागरिकता के लिए एक मुहावरा है -'नागरिकता अधिकार हासिल करने का अधिकार है।' न्यूरेमबर्ग कानूनों को लागू करने के साथ-साथ इनसे प्रभावित होने वालों के लिए बड़े-बड़े हिरासत केंद्रों (Concentration Camps) का भी निर्माण किया गया। अमेरिकी Holocaust Museum कंसन्ट्रेशन कैम्प का वर्णन ऐसे क्षेत्र के रूप में करता है जहां गिरफ्तारी और कारावास सम्बन्धी कानूनी नियम लागू नहीं होते हैं।
भारत का नया नागरिकता संशोधन कानून गैर-मुस्लिम अप्रवासियों को तेज गति से नागरिकता प्रदान करने की बात करता है और इस तरह मुसलमानों के साथ गैर-बराबरी का बर्ताव करता है। प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर देशवासियों से दस्तावेजों के माध्यम से अपनी नागरिकता सिद्ध करने की बात करता है, जबकि बहुतों के पास दस्तावेज नहीं हैं। ये कानून मिलकर उन मुसलमानों को पशोपेश में डाल देते हैं जिनके पास दस्तावेज नहीं हैं। ऐसे मुसलमान देशवासियों को रखने के लिए बड़े-बड़े हिरासत केंद्र बनाये जा रहे हैं जिन्हें नागरिकता प्रदान करने के लिए अयोग्य घोषित किया जाएगा। हिटलर द्वारा अत्यधिक प्रशंसनीय अमेरिकी आप्रवासी नीति की तरह ये कानून भी एक मुखौटा हैं। इनकी रचना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिकता कानूनों में हिन्दुओं को सुविधाए देना है।
ट्रंप एक ऐसे प्रशासन की अगुवाई करते हैं जो अमेरिका को वापस हिटलर के प्रिय राष्ट्र राज्य की ओर ले जाना चाहता है। कई मायनों में मोदी का भारत भी इस राह पर काफी आगे बढ़ चुका है। विद्यार्थी शिक्षक बन चुका है। नागरिकता कानूनों को बदलने से कहीं ज्यादा होता है फासीवाद। फासीवादी आंदोलन कोर्ट, पुलिस, सेना और प्रेस के ऊपर एक ही राजनीतिक दल का नियंत्रण स्थापित करना चाहते है। वे एक ही नेता के प्रति अपना समर्पण रखते हैं और एक ऐसे काल्पनिक इतिहास को याद करते रहते हैं जब सुविधाभोगी समूह का राष्ट्र पर वर्चस्व था। लेकिन फासीवादी विचारधारा के मर्म की पूर्ति नागरिकता कानूनों में संशोधन कर एक अकेले जातीय समूह को सुविधा मुहैय्या कर हो जाती है। इसीलिये हम न्यूरेम्बर्ग कानूनों को जर्मन इतिहास के निर्णायक क्षण मानते हैं और हिरासत केंद्रों को निर्णायक नाजी संस्थान।
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न्यूरेमबर्ग कानूनों और उनके दुष्परिणामों से इतिहास सही मायने में डर गया था। फिर क्यों इतने सारे देश उसी राह पर निकल पड़े हैं? फासीवाद अनुमानित संकट के क्षणों के दौरान ही पनपता है और ये संकट समूह के बचे रहने के लिए नफा-नुक्सान रहित युद्ध में परिलक्षित होते देखा जा सकता है। भारत के विभिन्न राज्यों के बीच जल युद्ध के रूप में दिखाई देने वाला जलवायु संकट इसका उदहारण है।
अंतर्राष्ट्रीय समझौते ही इसका समाधान है क्योंकि ये समझौते मानते हैं कि हम मनुष्यों की नियति एक जैसी है। हमारी समानताएं, हमारी विभिन्नताओं पर कहीं भारी पड़ती हैं। इस उदार नजरिये को 'वैश्विक' कहकर ट्रंप जैसे लोगों द्वारा उपहास किया जाता है। वहीं भारत के धर्मनिरपेक्ष सविंधान का पक्ष लेने वाले उदारवादियों और वामपंथियों को बीजेपी और उनके साथी 'देशद्रोही' कह कर गरियाते हैं। ट्रंप का भारत दौरा दर्शाता है कि जातीय राष्ट्रवाद और इसका ज़्यादा हिंसक भाई-बंधु फासीवाद किस तरह पूरी दुनिया में छा गया है।
(जैसन स्टैनले येल विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं और How Fascism Works नामक पुस्तक के लेखक हैं। यह आलेख द गार्जियन पर प्रकाशित किया जा चुका है।)
अनुवाद : पीयूष पंत