15 दस्तावेज देकर भी खुद को भारतीय साबित नहीं कर पाई असम की ज़ुबैदा, कानूनी लड़ाई में गंवाया सब कुछ

Update: 2020-02-19 06:56 GMT

असम में रहने वाली एक 50 वर्षीय महिला जो बड़ी मुश्किल से अपने परिवार को पाल पा रही है, वह खुद को भारतीय नागिरक साबित करने की लड़ाई अकेले लड़ रही है. ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित की गईं जाबेदा बेगम हाईकोर्ट में अपनी लड़ाई हार चुकी है....

जनज्वार। असम से कहानी एक ऐसी महिला की जिसने अपनी और अपने पति की नागरिकता साबित करने लिए 15 तरह के दस्तावेज़ पेश किए, लेकिन वो फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में हार गईं। इस फ़ैसले को उन्होंने हाइकोर्ट में चुनौती दी तो वहां भी हार गईं। अब वो ज़िंदगी से हारती दिख रही हैं। सारा पैसा केस लड़ने में खर्च हो चुका है। पति बीमार हैं, बेटी पांचवीं में पढ़ती है। डेढ़ सौ रुपए दिहाड़ी में कैसे चलेगा। ऊपर से नागरिकता चली गई है। पति-पत्नी का एक एक पल डर में बीत रहा है।

सम में रहने वाली एक 50 वर्षीय महिला जो बड़ी मुश्किल से अपने परिवार को पाल पा रही है, वह खुद को भारतीय नागिरक साबित करने की लड़ाई अकेले लड़ रही है। ट्रिब्यूनल द्वारा विदेशी घोषित की गईं जाबेदा बेगम हाईकोर्ट में अपनी लड़ाई हार चुकी है, और सुप्रीम कोर्ट उनकी पहुंचे से दूर दिख रहा है। ज़ुबैदा गुवाहाटी से लगभग 100 किलोमीटर दूर बक्सा जिले में रहती है। वह अपने परिवार की एकमात्र कमाने वाली सदस्य हैं. उनके पति रजाक अली लंबे समय से बीमार हैं। दंपति की तीन बेटियां थीं, जिनमें से एक की दुर्घटना में मृत्यु हो गई और एक अन्य लापता हो गई। सबसे छोटी अस्मिना पांचवीं कक्षा में पढ़ती है।

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ज़ुबैदा अस्मिना के भविष्य को लेकर ज्यादा परेशान रहती है। उसकी कमाई का ज्यादात्तर हिस्सा उसकी कानूनी लड़ाई में खर्च हो जाता है, ऐसे में उसकी बेटी को कई बार भूखे ही सोना पड़ता है। जाबेदा का कहना है, 'मुझे चिंता है कि मेरे बाद उनका क्या होगा? मैं खुद के लिए उम्मीद खो चुकी हूं।'

गोयाबारी गांव की रहने वाली महिला को ट्रिब्यूनल ने 2018 में विदेशी घोषित कर दिया था। हाईकोर्ट ने अपने पिछले आदेशों में से एक का हवाला देते हुए, उनके द्वारा जमा किए गए कागजात - भूमि राजस्व रसीद, बैंक दस्तावेज और पैन कार्ड को नागरिकता का सबूत मानने से इनकार कर दिया। आंसूओं से भरी हुई आंखों के साथ जाबेदा कहती हैं कि 'मेरे पास जो था, वह मैं खर्च कर चुकी हूं. अब मेरे पास कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए संसाधन नहीं बचे हैं।'

ज़ुबैदा बेगम ने ट्रिब्यूनल के सामने अपने पिता जाबेद अली के साल 1966, 1970, 1971 की मतदाता सूचियों सहित 15 दस्तावेज जमा किए थे, लेकिन ट्रिब्यूनल का कहना है कि वह अपने पिता के साथ उसके लिंक के संतोषजनक सबूत पेश नहीं कर पाई। जन्म प्रमाण पत्र की जगह उसने अपने गांव के प्रधान से एक प्रमाण पत्र बनवाया और वह पेश किया. इस प्रमाण पत्र में उसके परिजनों का नाम और जन्म का स्थान था। लेकिन इसे ना तो ट्रिब्यूनल ने माना और ना ही कोर्ट ने।

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गांव के प्रधान गोलक कालिता का कहना है, 'मुझे गवाह के तौर पर बुलाया गया। मैंने कहा कि मैं उसे जानता हूं, क़ानूनी तौर पर उनकी रिहाइश की पुष्टि भी की। हम गांव के लोगों के स्थायी निवास के तौर पर उन्हें सर्टिफिकेट देते हैं। ख़ासतौर पर लड़कियों को जो शादी के बाद दूसरी जगह चली जाती हैं।' ब्रह्मपुत्र नदी के कटाव से जब ज़ुबैदा और रज़्ज़ाक के माता-पिता की ज़मीन चली गई तो वो बक्सा के इस गांव में आए गए थे। ज़ुबैदा के पास जो तीन बीघा ज़मीन थी उसे भी उन्होंने केस लड़ने के लिए एक लाख रुपए में बेच दिया था। अब वो 150 रुपए दिहाड़ी पर काम करती हैं।

ज़ुबैदा के पति का कहना है, जो भी था हमने खर्च कर दिया। कुछ काम नहीं आया। एनआरसी में भी नाम नहीं आया। उम्मीद ख़त्म हो रही है, मौत क़रीब आ रही है।

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