बार काउंसिल के नागरिकता कानून प्रस्ताव पर मचा घमासान

Update: 2019-12-27 06:25 GMT

देश भर के एक हजार वकीलों ने किया विरोध,कहा “बीसीआई बार के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करता”

जेपी सिंह की रिपोर्ट

जनज्वार। बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा नागरिक सुरक्षा (संशोधन) अधिनियम, 2019 को समर्थन और विरोध को लेकर घमासान मच गया है। जहाँ बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) 22 दिसम्बर 2019 के प्रस्ताव में देश के लोगों से शांति और सौहार्द बनाए रखने की अपील की गयी थी वहीं वकीलों, बार एसोसिएशनों, स्टेट बार काउंसिलों, एनएलयूएस के छात्र संघों और सभी लॉ कॉलेजों से आग्रह किया गया था कि पूरे देश में कानून और व्यवस्था बनी रहे, ये सुनिश्‍चित किया जाए।

लेकिन दूसरी और बीसीआई के प्रस्ताव का देशभर से लगभग एक हजार वकीलों ने विरोध किया है और कहा है कि बीसीआई बार के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और उसे इस तरह के बयान जारी नहीं करने चाहिए । वरिष्ठ अधिवक्ता अखिल सिब्बल, चंदर उदय सिंह, कॉलिन गोंजाल्विस, डेरियस खंबाटा, डॉ अभिषेक मनु सिंघवी, हुज़ेफ़ा अहमदी, इंदिरा जयसिंह, जनक द्वारकादास, कामिनी जायसवाल, कपिल सिब्बल, मधुकर राव, महालक्ष्मी पावनी, मोहन कटार्की, पीवी सुरेंद्रनाथ, राजीव पाटिल, रेबेका जॉन और वृंदा ग्रोवर आदि सहित देशभर के लगभग एक हजार वकीलों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं।

बीसीआई ने अपने प्रस्ताव में कहा था कि बार के नेताओं और युवा छात्रों से निवेदन है कि वो देश में गड़बड़ी और हिंसा को खत्म करने में सक्रिय भूमिका निभाएं। हमे लोगों और अनपढ़-अज्ञानी जनों को समझाना है, जिन्हें कुछ तथाकथित नेताओं द्वारा गुमराह किया जा रहा है। नागरिकता संशोधन अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है, इसलिए सभी को उच्चतम न्यायालय के फैसले का इंतजार करना चाहिए। दरअसल वकीलों ने दिल्ली पुलिस द्वारा विश्वविद्यालय के छात्रों पर किए गए हमलों के खिलाफ 21दिसम्बर 2019 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के बाहर विरोध मार्च भी किया था।

बीसीआई के प्रस्ताव के विरोध में वरिष्टवकीलों का कहना है कि यह केवल एक वैधानिक निकाय है जो भारत में सभी वकीलों को नियंत्रित करता है और कानूनी पेशे की विश्वसनीयता को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है। बीसीआई के अलग-अलग पदाधिकारी अपनी व्यक्तिगत क्षमता में अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं,लेकिन बीसीआई के मंच का उपयोग कुछ के व्यक्तिगत विचारों को व्यक्त करने के लिए किया जा रहा है जो कि बीसीआई के सिद्धांतों के खिलाफ है। यह स्पष्ट है कि ये प्रस्ताव सभी वकीलों के विचार नहीं व्यक्त करता क्योंकि कई वकीलों ने न केवल नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के अल्पसंख्यकों पर असमान प्रभाव, बल्कि पुलिस बलों की अधिकता के खिलाफ भी विचार व्यक्त किया है।

रिष्ट वकीलों ने बीसीआई के प्रस्ताव में "अनपढ़ अज्ञानी जन" शब्द के उपयोग पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा है इसका इस्तेमाल उन लाखों वकीलों के लिए किया गया है, जो प्रैक्टिस करते हैं। इस तरह के बयानों से बीसीआई का कद घटता है। तथ्य यह है कि ये प्रस्ताव पुलिस और सशस्त्र बलों के साथ एकजुटता व्यक्त करता है और वकील शोएब मोहम्मद के साथ एकजुटता व्यक्त नहीं करता, जिन्हें लखनऊ में हिरासत में लिया गया है। यही नहीं संविधान के सिद्धांतों को बरकरार रखने के लिए लड़ने वाले सैकड़ों वकीलों पर भी इस प्रस्ताव में प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है।

धिवक्ता अधिनियम, 1961 में बीसीआई द्वारा पूरा करने वाले कुछ कर्तव्यों की परिकल्पना की गई है। इनमें व्यावसायिकता के मानकों को पूरा करना और देश में कानूनी शिक्षा के उच्चतम स्तर को ईमानदारी से सुनिश्चित करना शामिल है। लेकिन राज्य के पक्ष में अत्यधिक और अनावश्यक हस्तक्षेप बीसीआई का स्टैंड बनता जा रहा है। जब राज्य पर सत्ता के गंभीर दुरूपयोग के आरोप लगते हैं तो बीसीआई को इस तरह का प्रस्ताव नहीं पारित करना चाहिए। उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती लंबित रहने पर नागरिकों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार को वापस नहीं लिया जा सकता जो अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और पुलिस की ज्यादती का भी विरोध कर रहे हैं। वरिष्ट वकीलों ने बीसीआई से आग्रह किया है कि वो गैर-पक्षपातपूर्ण तरीके से अपने वैधानिक कर्तव्यों का पालन करे और कोई भी राय व्यक्त करने से बचे, जो न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।

क अन्य वकील एन मनोज कुमार ने प्रदर्शनकारियों का समर्थन करते हुए कहा है कि भारतीय नागरिकों द्वारा सीएए और एनआरसी का विरोध संविधान को बचाने का प्रयास है, जिसे संसद मे बहुमत के बल पर एक अधिकारवादी सत्ता द्वारा कुचला जा रहा है। संविधान के वास्तविक पथप्रदर्शक होने के नाते यह हर आत्मअभिमानी वकील की ये जिम्मेदारी है कि वो संविधान की रक्षा के लिए हो रहे संघर्ष का नेतृत्व करे। मनोज कुमार ने कहा है कि भले ही मामला उच्चतम न्यायालय के समक्ष लंबित है, लेकिन यह लोगों के सरकार के प्रति अपनी असहमति व्यक्त करने के अधिकार के प्रति दुराग्रह नहीं रखता।

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