जिस अपराध के लिए बिमल गुरूंग या पहाड़ के नेताओं के विरूद्ध मुकदमा दर्ज किया गया है, उसके अपराधी विनय तमांग भी कम नहीं हैं, फिर सरकार का दोहरा व्यवहार क्यों?
दार्जिलिंग से डाॅ. मुन्ना लाल प्रसाद
गोरखालैंड की मांग को लेकर 104 दिनों तक बंद पहाड़ तमाम जद्दोजहद के बाद आखिरकार 27 सितंबर को खुल ही गया। 104 दिनों तक ऐसा लग रहा था कि यहां के हिमशिखरों की बर्फीली चोटियां शीतलता की जगह ज्वालामुखी बनकर आग उगल रही थी।
यहां की वादियों में शीतल बयार की जगह तपते तूफान के झोंके चल रहे थे, जिसके ताप से सब हैरान-परेशान थे। वहां की लपटों से भयभीत किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि उधर का रुख करे। यहां की वादियां चीख-चीख कर सबको पुकारती रही। अपना दर्द सुनाती रही, लेकिन उनकी चीख-पुकार किसी ने नहीं सुनी। सुनने वाले मौनमूक तमाशा देखते रहे। इस प्रतीक्षा में कि ये चीखते-पुकारते स्वयं ही थक जाय तब वहां पहुंच कर अपनी रोटी सेंकी जाय। वाहवाही लूटी जाय। उनके प्रति हमदर्दी के आंसू बहाकर उनका दिल जीता जाय।
लगातार 104 दिनों तक बंद होने के बाद दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र 27 सितंबर से खुल गया। गोर्खा जनमुक्ति मोर्चा सुप्रीमो बिमल गुरूंग ने 26 सितंबर की शाम को इस आशय की घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि केन्द्रीय गृहमंत्री ने 15 दिन में मंत्रालय की देखरेख में त्रिपक्षीय वार्ता करने की बात कही है। वार्ता में आंदोलन के दौरान हुई मौतों, घायलों, सरकारी संपत्ति की क्षति व हिल्सवासियों की हुई दिक्कतों पर चर्चा होगी।
बिमल गुरूंग की इस घोषणा के बाद पहाड़वासियों के साथ-साथ बंद से हो रही परेशानियों को झेल रहे लोगों ने राहत की सांस ली। पहाड़ में बंद इंटरनेट सेवा बहाल कर दी गई। बैंक और कार्यालय खुल गये। इतने दिनों से बंद पड़ी दुकानें खुल गईं।
यह कोई साधारण बंद नहीं था। 104 दिनों तक बंद का इसने एक तरह से रिकार्ड तो बनाया ही, साथ ही यहां की सरकार के लिए एक ऐसा जवाब रहा जो जब से ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल की सरकार बनी तब से किसी ने न दिया होगा।
ममता के नेतृत्व में जब से यहां की सरकार बनी है, तब से न तो सरकार के विरूद्ध बंद, हड़ताल जैसे आंदोलन करने की किसी की हिम्मत हुई और न करने दी गई। ममता किसी भी बंद या हड़ताल के खिलाफ रही और उन्होंने एक तरह से बंद और हड़ताल के खिलाफ फतवा जारी कर दिया।
जब भी यहां कोई हड़ताल की घोषणा हुई सरकार ने पहले ही वेतन काट लेने, अनुपस्थित न रहने की हिदायत, हड़ताल पर जाने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने के निर्देश जारी कर दिये। सरकारी कर्मचारियों को तो ऐसा धमकाया गया कि अपनी जायज मांगों को लेकर भी किसी तरह की हड़ताल या बंद करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
यह पहली बार हुआ कि ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद सरकार के विरूद्ध इतनी लंबी अवधि तक गोजमुमो के नेतृत्व में पूरा दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र लगातार बंद रहा, जिसने अपने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ डाले।
सरकार द्वारा बंद समाप्त कराने के लिए सारे कदम उठाये गये, जो अब तक उठाये जाते रहे हैं, लेकिन पहाड़ की एकजुटता के आगे सारे प्रयास विफल हुए। इतना ही नहीं, खुद ममता बनर्जी के सामने जब वह अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ पहाड़ में थी, हिंसक वारदातों को अंजाम दिया गया।
बांग्ला भाषा को जबरन थोपे जाने के विरूद्ध आंदोलन शुरू होकर गोखालैंड की ओर चल पड़ा, और ऐसा चला कि किसी की कुछ नहीं सुनी गयी। बस दार्जिलिंग की वादियों में ‘गोरखालैंड-गोरखालैंड’ की आवाज गूंज रही थी। पूरा पहाड़ सिर्फ गोजमुमो सुप्रीमो बिमल गुरूंग के इशारे पर चल रहा था। ममता सरकार के किसी भी आदेश को यहां कोई सुनने वाला नहीं था।
इसी क्रम में 29 अगस्त को कुछ गोरखालैंड आंदोलन से जुड़े नेता कोलकाता गये और मुख्यमंत्री के साथ गोरखालैंड आंदोलन को लेकर नवान्न में बैठक आयोजित हुई। ताज्जुब कि जिस गोखालैंड की मांग को लेकर इतना जोरदार आंदोलन चल रहा था, उस मुद्दे पर उसमें चर्चा तक नहीं हुई। हां, इस बैठक से यह जरूर हुआ कि गोरखालैंड के लिए पहाड़ में जो एकजुटता कायम थी, वह दरकती नजर आयी। गोरखालैंड आंदोलन दो फाड़ों में बंट गया।
विनय तमांग ने सरकार के सुर में सुर मिलाना शुरू किया। उन्होंने बंद वापस लेने की घोषणा कर दी। हालांकि इनके द्वारा की गई घोषणा का प्रभाव पहाड़ पर नहीं दिखायी दिया। इसी बीच गोजमुमो सुप्रीमो बिमल गुरूंग ने विनय तमांग पर यह आरोप लगाते हुए उन्हें दल से निष्कासन की घोषणा कर दी कि वे सरकार के हाथों बिक गये हैं। जो गोरखालैंड आंदोलन एकजुटता के साथ चल रहा था वह दो भागों में बंट गया।
लड़ाई बिमल बनाम विनय तमांग हो गई। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ। विनय तमांग ने पहाड़ रहकर पहाड़ खुलवाने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दी, लेकिन पहाड़ नहीं खुला। सरकार द्वारा निर्धारित समय 15 सितंबर को फिर सिलीगुड़ी के उत्तरकन्या में आंदोलन को लेकर बैठक आयोजित हुई। बैठक को मात्र औपचारिक ही कहा जा सकता है, क्योंकि यहां भी पहाड़ से जुड़ी किसी भी समस्या पर गंभीरता से कोई विचार करना तो अलग की बात है, उन बिन्दुओं पर चर्चा भी नहीं हुई। पहाड़ पर बंद जारी रहा।
नवान्न बैठक और उत्तरकन्या में आयोजित बैठक से पहाड़ को कोई फायदा हुआ या नहीं, लेकिन सरकार को अवश्य फायदा हुआ। जिस पहाड़ में बिमल गुरूंग का एकछत्र साम्राज्य कायम था उसे चुनौती देने के लिए विनय तमांग जैसा व्यक्ति अवश्य मिल गया। सरकार भी पूरी तरह विनय तमांग के साथ खड़ी दिखाई देने लगी। इसी बीच सरकार द्वारा पहाड़ पर जीटीए की जगह बीओए का गठन कर उसका चेयरमैन विनय तमांग एवं उप-चेयरमैन अनित थापा को बना दिया गया।
मुख्यमंत्री ममता ने कहा कि यही बोर्ड अब पहाड़ पर विकास का काम करेगा। आठ सदस्यीय बीओए बोर्ड आॅफ एडमिनिस्ट्रेटर गठन करने के पीछे मुख्यमंत्री का तर्क है कि जीटीए से इस्तीफा देने को किसी से नहीं कहा गया था, जबकि जीटीए से सभी ने इस्तीफा दे दिया है।
माना जा रहा है कि विनय तमांग और अनित थापा को बिमल गुरूंग का विरोध करने का पुरस्कार मिला है। यहां तक कि विनय तमांग की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा विशेष व्यवस्था की गई। हालांकि यह सुरक्षा व्यवस्था बीओए गठन करने के पूर्व से ही यानी जब से विनय तमांग ने बिमल गुरूंग का विरोध करना शुरू किया तब से ही कर दी गई थी।
लगता है सरकार विनय तमांग की सुरक्षा को लेकर पहले से ही आशंकित है या यह संदेश देना चाहती है कि वह हर तरह से विनय तमांग के साथ है और विनय तमांग सरकार के साथ। ऐसे में यह आशंका निर्मूल भी नहीं कही जा सकती कि विनय तमांग द्वारा बिमल गुरूंग के विरोध करने के कारण ही उन्हें बीओए का चेयरमैन बनाया गया है। लग रहा है पहाड़ पर सरकार द्वारा फूट डालो और राज करो की नीति के तहत ऐसा कदम उठाया गया है।
यही नहीं, एक तरफ सरकार विनय तमांग को बीओए का तोहफा देकर पूरी तरह से उनके साथ खड़ी है, वहीं दूसरी ओर बिमल गुरूंग के साथ ही साथ जितने भी आंदोलनकारी नेता हैं सबके विरूद्ध तरह-तरह की धाराएं लगाकर उनको गिरफ्तार करने के लिए पूरी शक्ति के साथ प्रयास कर रही है।
बिमल गुरूंग के विरूद्ध लुकआउट नोटिस जारी किया गया। उन्हें अंडरग्राउंड जीवन जीने पर मजबूर किया गया। जिस अपराध के लिए बिमल गुरूंग या पहाड़ के नेताओं के विरूद्ध मुकदमा दर्ज किया गया है, उसके अपराधी विनय तमांग भी कम नहीं हैं, फिर सरकार का दोहरा व्यवहार क्यों।
पहाड़ में जो आंदोलन चल रहा था और उस आंदोलन के दौरान जितनी भी घटनाएं हुई उसमें विनय तमांग ही प्रत्यक्ष रूप से शामिल थे, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से आंदोलन की कमान तो वहीं संभाल रहे थे। लेकिन क्या कारण है कि वे बीओए का चेयरमैन बन सरकारी सुरक्षा के बीच निर्भीक पहाड़ के सर्वेसर्वा बन बैठे और आंदोलनकारी जितने भी नेता थे, पुलिस से बचते फिर रहे हैं?
समान काम के लिए एक को तोहफा तो अन्य को दंड क्यों? इन सबके बावजूद सरकार और विनय तमांग के लाख प्रयास के बाद भी पहाड़ इनके निर्देश और आग्रह पर नहीं खुला। बिमल गुरूंग के अंडरग्राउंड होने के बाद भी पहाड़ उन्हीं के इशारे को समझता और मानता रहा। एक तरह से सरकारी स्तर पर प्रायोजित पहाड़ के लिए नेता को पूरे पहाड़ ने अस्वीकार कर अपना नेता बिमल गुरूंग को ही माना।
बिमल गुरूंग के घोषणा करते ही पहाड़ पूरी तरह से खुल गया। यह प्रमाणित करता है कि प्रायोजित नेता सरकारी पद तो पा सकता है, लेकिन जननेता नहीं हो सकता। जननेता तो वहीं होता है जो जनता के बीच रहकर काम करता है। यही कारण है कि 26 सितंबर की शाम को बिमल गुरूंग ने बंद वापस लेने की घोषणा की और 27 सितंबर से पहाड़ खुल गया।
पहाड़ बंद और खुलने ने बहुत से ऐसे सवाल खड़े कर दिये जिनके उत्तर अनसुलझे रह गये। सवाल है कि इतनी लंबी अवधि तक बंद, जिससे यहां की आम आवाम परेशान रही, से क्या मिला? यहां तक कि गोरखालैंड मिलना तो दूर, गोरखालैंड मुद्दे पर बात तक नहीं हुई। यही नहीं, आंदोलन की एक मात्र मांग थी बस गोरखालैंड। इससे कम कुछ भी नहीं। लेकिन हुआ क्या? गोरखालैंड तो मिला नहीं, जीटीए से भी हाथ धो बैठे।
इस आंदोलन के दौरान जो लोग मारे गये, उनका क्या हुआ? ऐसा नहीं लगता कि वे नाहक ही जान गंवा बैठे? इस आंदोलन के दौरान बहुत ऐसे नौजवान एवं छात्र ऐसे हैं जिनका भविष्य अंधेरे के गर्त में चला गया, जो दुबारा लौटकर आने वाला नहीं। इसके लिए किसे दोषी माना जाय? व्यावसायियों से लेकर एक साधारण मजदूर तक इस आंदोलन की आग से झुलस गये, उन्हें क्या मिला?
इस तरह गाड़ी वाले, ठेला वाले, खोमचे वाले से लेकर बड़े दुकानदार तक को क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा, इसके लिए कौन जवाबदेह है? क्या इस आंदोलन से किसी तरह का कोई फायदा हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलनकारी नेताओं, राज्य सरकार एवं केन्द्र सरकार के दावपेंच में यहां के लोगों की इतनी परेशानी झेलनी पड़ी हो? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस आंदोलन से किसे लाभ मिला? इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या अब विनय तमांग बिमल गुरूंग की जगह ले लेंगे?
जो भी हो, तत्काल स्थिति यह है कि पहाड़ में अब जीटीए अस्तित्वविहीन हो गया है। अब बिमल गुरूंग जीटीए प्रमुख नहीं। विनय तमांग ने पहाड़ के विकास के लिए बीओए की कुर्सी संभाल ली है। प्रशासन बिमल गुरूंग एवं रोशन गिरी को तलाश रहा है, ताकि उन्हें सलाखों के पीछे किया जा सके।
एक तरफ ममता बनर्जी ने स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी हालत में वह राज्य का बंटवारा नहीं होने देंगी, यानी गोरखालैंड नहीं बनेगा, वहीं दूसरी ओर विनय तमांग जिन्हें बीओए का चेयरमैन बनाया गया है, का कहना है कि आगामी 12 अक्टूबर को बैठक में गोरखालैंड पर ही चर्चा होगी। उनकी बातों में कितनी सच्चाई है यह तो वही जानें। यह सोचने की बात है कि जिसके आशीर्वाद से वे बीओए के चेयरमैन बने हैं, उनके मन्तव्य के विरूद्ध कैसे बात करेंगे? यह सोचने वाली बात है और बात भी करेंगे तो उनकी बात कितनी सुनी जायेगी या महत्व दिया जायेगा, यह सर्वविदित है।
गोरखालैंड आंदोलन का क्या होगा? यह चिंतनीय है। देखना यह है कि यह आंदोलन दमन के आगे घुटने टेक देता है या कोई और रास्ता अपनाता है। लोभ ने तो दरार डाल ही दी है, अब भय का क्या होगा? धीरे-धीरे स्थिति यह बन गई है कि गोरखालैंड आंदोलन बिमल गुरूंग बनाम विनय तमांग का रूप लेने को तैयार है। अब बाहर की लड़ाई बाद में, पहले तो घर ही में लड़ाई शुरू होने की संभावना ज्यादा दिखाई देती है। कहीं ऐसा हुआ तो यह रास्ता यहां के लोगों के लिए बड़ा ही खतरनाक होगा। पूरा पर्वतीय क्षेत्र अशांत हो जायेगा और बाहर के लोग मजा लेंगे।