उस भयानक आपदा से कोई सबक लिए गए होते तो जलविद्युत परियोजनाओं से लेकर चारधाम परियोजना तक का मलबा नदी तटों पर नहीं डाला जा रहा होता...
राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता इंद्रेश मैखुरी का विश्लेषण
2013 में 14-15-16 जून को उत्तराखंड में भीषण आपदा आई। इस आपदा में भारी संख्या में लोग मारे गए। यह संख्या इतनी बड़ी थी कि तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक समय बाद घोषणा कर दी कि सरकार अब और शवों की गिनती नहीं करेगी। गिनती भले ही सरकार ने पांच साल पहले रुकवा दी हो, लेकिन मृतकों के कंकालों का मिलना हाल-हाल तक जारी रहा। यह इस आपदा की तीव्रता को बयान करने के लिए काफी है।
आज जब इस आपदा को घटित हुए पांच साल पूरे हो गए हैं तो यह विचार करने का समय है कि क्या उस आपदा से कोई सबक सीखा भी गया? यह समझने के लिए पांच साल पहले आई इस भीषण आपदा की विभीषिका को बढ़ाने वाले कारकों पर गौर किया जाना आवश्यक है।
वर्ष 2013 में उत्तराखंड में जब आपदा आई तो उसके तकाल बाद एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अगस्त 2013 में उत्तराखंड में निर्माणाधीन सभी जलविद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी। इसका सीधा अर्थ था कि उच्चतम न्यायालय भी यह मान रहा था कि आपदा की विभीषिका को तीव्र करने में इन जलविद्युत् परियोजनाओं की भूमिका है। उच्चतम न्यायालय ने उक्त फैसले में केंद्र सरकार को एक विशेषज्ञ समिति बनाने का निर्देश भी दिया।
उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर अक्टूबर 2013 में भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने ग्यारह सदस्यीय विशेषज्ञ समिति गठित की। इस समिति को मुख्यतया आपदा की तीव्रता को बढ़ाने में निर्मित और निर्माणाधीन जलविद्युत् परियोजनाओं की भूमिका की जांच करनी थी। उक्त कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया कि जल विद्युत् परियोजनाएं और उनके द्वारा बड़े पैमाने पर नदी तटों पर डाले गये मलबे ने आपदा की विभीषिका की तीव्रता को अत्यधिक बढ़ा दिया।
कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि “मलबा प्रबंधन बेहद महत्वपूर्ण मसला है। वर्तमान तौर-तरीकों की समीक्षा होनी चाहिए और उत्तराखंड के लोगों को जून 2013 जैसी स्थितियों से बचाने के लिए मलबा निस्तारण के तकनीकी रूप से कुशल और पारिस्थितिकीय रूप से टिकाऊ तरीके ढूंढ़ने होंगे।”
लेकिन आपदा के पांच साल बाद लगता है कि न तो आपदा की तीव्रता बढ़ाने वाले कारकों के प्रति सरकार संवेदनशील हुई और न ही विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर ही गौर करने की जहमत किसी ने उठायी। यदि आपदा से कोई सबक लिए गए होते तो जलविद्युत परियोजनाओं से लेकर चारधाम परियोजना तक का मलबा नदी तटों पर नहीं डाला जा रहा होता।
चारधाम परियोजना, केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना बतायी जा रही है। उत्तराखंड विधानसभा के 2017 में हुए चुनावों से पहले जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देहरादून आये तो उन्होंने इस परियोजना की घोषणा की। बारह हजार करोड़ रुपये की इस परियोजना को पहले-आल वेदर रोड का नाम दिया गया। फिर अचानक इसे चारधाम परियोजना कहा जाने लगा। “आल वेदर रोड” लिखे सारे साइनबोर्डों पर रंग पोत दिया गया है।
बहरहाल, नाम चाहे आल वेदर रोड हो चार धाम परियोजना, लेकिन होना इसमें यही है कि पहले से बनी हुई सड़क को चौड़ा किया जाना है। इसके लिए राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे लगे हज़ारों पेड़ काट दिए गए हैं। इस परियोजना में निकलने वाले मलबे का निस्तारण करने के लिए जो स्थल चुने गए हैं, उनसे मलबा सीधे नदी तटों तक ही पहुंचेगा।
इस तरह देखें तो मलबा निस्तारण को लेकर न कोई संजीदगी है और न ही 2013 की आपदा से कोई सबक ही सीखा गया है।
बीते दिनों उत्तराखंड उच्च नयायालय, नैनीताल द्वारा सुनाये गये एक फैसले से भी साफ़ होता है कि सरकार तंत्र ने 2013 में आई भीषण आपदा से कोई सबक नहीं सीखा और इस बारे में अप्रैल 2014 में सौंपी गयी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट भी किसी सरकारी अलमारी में धूल ही फांक रही है।
रुद्रप्रयाग की हिमाद्री जनकल्याण संस्था की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए 11 जून 2018 को दिए गये अपने फैसले में न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह ने मलबा निस्तारण के सम्बन्ध में उन्हीं कारकों को चिन्हित किया है, जो 2013 में आपदा की विभीषिका तीव्र करने का कारण बने थे और जिनकी तरफ केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति ने भी इंगित किया था।
न्यायमूर्ति द्वय ने अपने फैसले में लिखा है कि “ढुलान के खर्चे को बचाने के लिए मलबे और उत्खनित सामग्री को सीधे ही नदियों में डाल दिया जाता है। इससे नदियों का स्वतंत्र प्रवाह बाधित होता है। मलबा और उत्खनित सामग्री प्रदूषण के कारक हैं। इसके चलते नदी की पारिस्थितिकी और आसपास के क्षेत्रों को भारी नुकसान होता है।”
फैसले में कहा गया है कि जलविद्युत निर्माता कंपनियों और डेवलपरों को नदियों को डंपिंग साईट के तौर पर इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। साथ ही अदालत ने नदियों में पर्याप्त पानी न छोड़े जाने पर भी तल्ख़ टिप्पणी करते हुए कहा कि नदियाँ अपने आप को नहीं बचा पाएंगी अगर उनमें पर्याप्त पानी न छोड़ा गया।
गौरतलब है कि उत्तराखंड की नदियों पर बनी जलविद्युत् परियोजनाएं बड़े पैमाने पर पानी का भंडारण करती हैं। नतीजे के तौर पर बैराज क्षेत्र के बाद नदियों को पतली धारा के रूप में बहते हुए देखा जा सकता है।
श्रीनगर (गढ़वाल) में निर्मित जलविद्युत परियोजना की निर्माता कंपनी द्वारा पर्याप्त मात्रा में नदी में पानी न छोड़े जाने के कारण, यहाँ के निवासी, प्रदूषित पानी पीने को विवश हैं।
पिछले दिनों पीने के साफ़ पानी के लिए वहां 300 दिनों से अधिक अवधि तक आन्दोलन चला। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा है कि यह सुनिश्चित करना सम्बंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि भंडारण किये गए पानी का कम से कम 15 प्रतिशत जल छोड़ा जाए, ताकि नदियाँ स्वयं का अस्तित्व बचाए रख सकें। उच्च न्यायालय ने कहा कि नदियों से होने वाला अवैज्ञानिक और अवैध खनन, क्षेत्र के नाजुक पारिस्थितिकीय तंत्र को अत्याधिक नुकसान पहुंचा रहा है।
न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति लोकपाल सिंह ने अपने फैसले में स्पष्ट निर्देश दिया कि मलबा निस्तारण के लिए नदी तटों से 500 मीटर दूर स्थल चिन्हित किये जाएँ। तीन हफ्ते के भीतर ऐसे स्थल चिन्हित करने का काम केंद्रीय पर्यावरण,वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा राजस्व एजेंसियों को करना होगा।
अदालत ने निर्देश दिया कि जब तक ये स्थल अस्तित्व में नहीं आ जाते, तब तक नदी तटों पर सभी निर्माण गतिविधियों और सड़कों को चौड़ा करने के काम पर रोक रहेगी। उत्तराखंड के सभी जिलों के जिलाधिकारियों को यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि कोई जलविद्युत कंपनी, डेवलपर या सड़क निर्माण के लिए जिम्मेदार प्राधिकारी मलबा नदी में न डालें।
मलबा या उत्खनित सामग्री नदी में डालने वाली कंपनियों या सरकारी अधिकारियों के खिलाफ राज्य सरकार को कड़ी कार्यवाही करने का निर्देश भी दिया गया है।
उच्च न्यायालय का फैसला नदियों को जलविद्युत निर्माता कंपनियों, डेवलपरों और सड़क निर्माण या चौड़ा करने वालों द्वारा मलबे का डंपिंग जोन बनाए जाने से बचाने की कोशिश है। लेकिन उक्त फैसला यह भी दर्शाता है कि सरकारी तंत्र अभी भी उतना ही असंवेदनशील है, जितना की पांच साल पहले भीषण आपदा आने से पहले था। अगर कोई सबक सीखा गया होता तो न तो नदियाँ मलबे से पाटी जा रही होतीं और न ही उच्च न्यायालय को उन्हें मलबे का डंपिंग जोन न बनाने वाला आदेश देने की जरूरत पड़ती।