लोकतंत्र को पारदर्शी और मजबूत करने में लगे हुए ये लोग भले ही संख्या बल में कम हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी सत्ता, सामंती दबंगों और राजनीति की आंख की किरकिरी हैं...
हरे राम मिश्र की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के आनन्द प्रकाश ने अपने गांव के प्रबंधकीय और सहायता प्राप्त स्कूल में संदिग्ध दस्तावेजों के सहारे अध्यापन कर रही गांव की एक महिला और उसके परिवारीजनों के शैक्षणिक दस्तावेज तथा संबंधित विद्यालय की मान्यता पत्रावली की छाया प्रति जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी प्रतापगढ़ से जन सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मांगी थी।
जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी ने उस आवेदन को संबंधित विद्यालय के प्रबंधक को इस आदेश के साथ अग्रसारित कर दिया कि मांगी गई सूचना उपलब्ध करवायी जाए। लेकिन, विद्यालय के प्रबंधन ने इस पत्र पर संबंधित को कोई जवाब नहीं दिया।
चूंकि विद्यालय का प्रबंधक उस महिला का पति था लिहाजा जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय को विश्वास में लेकर संबंधित आवेदन पत्र को सम्मिलित रूप से दबा दिया गया। लेकिन आवेदनकर्ता द्वारा प्रारंभिक अपीलीय प्रकृया को पूरी करते हुए इस पूरे प्रकरण को वाद के बतौर राज्य सूचना आयोग लखनऊ में दाखिल कर दिया गया।
मुकदमा शुरू हुआ तब जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी को आयोग द्वारा बार बार तलब किया जाने लगा। इसके प्रतिउत्तर में विभाग ने भी स्कूल पर दबाव बनाया। लेकिन इन सब में दो साल का लंबा समय बीत गया। बार बार बुलाए जाने के बावजूद शिक्षा विभाग का कोई प्रतिनिधि आयोग के समक्ष उपस्थित नहीं हुआ और आवेदक को सूचना/संबंधित दस्तावेज नहीं मिले।
इधर, जिस महिला का शैक्षणिक दस्तावेज मांगा गया था उसने झूठी कहानी रचते हुए आवेदनकर्ता के खिलाफ घर में घुसकर मारने का एक मुकदमा स्थानीय थाना पर दर्ज करवा दिया। आज स्थिति यह है कि शिकायतकर्ता को वांछित सूचना तो नहीं मिली लेकिन उसे अदालत का चक्कर काटना पड़ रहा है।
पारदर्शी तंत्र के लिए जन सूचना अधिकार अधिनियम को इस्तेमाल करने वाले लोगों के संगठित उत्पीड़न का यह अकेला मामला नहीं है। उन्हें सामंती तत्वों, दबंगों-माफियाओं और प्रशासन की मार झेलनी पड़ती है।
मुरादाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता सलीम बेग को सिर्फ इसलिए पुलिस द्वारा जमकर प्रताड़ित किया गया था क्योंकि वह अखिलेश यादव सरकार द्वारा प्रकाशित एक उर्दू पत्रिका के इस दावे की पुष्टि करना चाहते थे कि आतंकवाद के नाम पर कैद जिन पांच सौ बेगुनाहों को अखिलेश सरकार द्वारा रिहा गया है उनके नाम और पते क्या हैं?
जब जन सूचना अधिकार अधिनियम के तहत उन्होंने इसके लिए आवेदन किया तब पहिले स्थानीय पुलिस द्वारा उन्हें धमकाया गया। जब इस पर भी वह नहीं माने तो उत्तर प्रदेश पुलिस के एटीएस आॅफिस में एक महीने तक बिना किसी काम के उन्हें रोज हाजिरी लगानी पड़ी। एक मामले में तो सलीम बेग को जेल भी जाना पड़ा।
मध्य प्रदेश की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता शाहिला मसूद की हत्या में जन सूचना अधिकार का विवाद भी सामने आया था।
मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो इस बात के लिए दबंग ग्राम प्रधानों द्वारा बुरी तरह पीटे गए हैं जिन्होंने मनरेगा के तहत करवाए गए उनके काम की पत्रावली की मांग की थी। पिटने वाले लोगों की पुलिस-प्रशासन ने कभी कोई मदद नहीं की।
यह सब प्रकरण कुछ एक बानगी हैं उन लोगों के संघर्ष की- जो कि इस तंत्र में पारदर्शिता के लिए काम कर रहे हैं। लोकतंत्र को पारदर्शी और मजबूत करने में लगे हुए ये लोग भले ही संख्या बल में कम हैं लेकिन भ्रष्टाचार के आकंठ में डूबी सत्ता, सामंती दबंगों और राजनीति की आंख की किरकिरी हैं।
आखिर इस पूरे तंत्र को, जिसमें राजनीति भी शामिल है- पारदर्शिता से इतना डर क्यों लगता है? उसे ऐसे लोग खतरनाक क्यों लगने लगते हैं जो व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए दिन रात संघर्ष कर रहे हैं? लेकिन इस बहस से पहिले सवाल यह भी है आखिर प्रशासन को पारदर्शी क्यों होना चाहिए? एक आम नागरिक को उससे क्या फायदा होता है?
दरअसल एक पारदर्शी प्रशासन ही एक जवाबदेह प्रशासन बन सकता है। इसका सीधा मतलब तंत्र में भ्रष्टाचार, सिफारिश और पक्षपात पर अंकुश लगेगा और उसमें कमी आएगी। यह व्यक्ति और प्रशासन के बीच के ’गैप’ को कम करेगा जिससे लोकतंत्र मजबूत होगा।