मॉरीशस भी अब 'इंडिया' बनता जा रहा?
सरकार की ओर से जो प्रतिनिधि मॉरीशस पहुंचे, उनके गले में परिचयपत्र लटक रहा था, उसका फीता भगवा रंग का था। सामान्य प्रतिनिधियों का नीले कलर का और मीडिया से जुड़े लोगों का फीता गुलाबी रंग का था। सत्ता के तलवे चाटने में माहिर कुछ चेहरे पूरे सम्मेलन को नियंत्रित कर रहे थे...
ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन से लौटकर हिंदी साहित्यकार गिरीश पंकज का विश्लेषण
ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन मैं शामिल होने मैं इस बार मॉरीशस गया था सरकारी नहीं, अ-सरकारी प्रतिनिधि के रूप में, यानी निजी खर्चे पर। सच कहूं तो वहां जाकर मुझे गहरी निराशा हुई। इसके पहले भी 2004 में मॉरीशस गया था।
केवल चौदह साल पहले की बात है। उस समय जब मैं पोर्टलुई के शिवसागर रामगुलाम हवाई अड्डे पर उतरा था, तो वहां मैंने मांग में सिंदूर भरी, साड़ी पहनी मॉरीशस की महिलाओं अधिकारियों को देखा था। यह विमान अधिकारी हिंदी में बात कर रही थीं। लगभग सभी ने हाथ जोड़कर कहा था, 'हम आपकी बहन हैं। आप हमारे बड़े भाई हैं। हमारा देश भी भारत है। वहां से हम लोग यहां आकर बस गए लेकिन भारत हमारी आत्मा का हिस्सा है।'
तब यह सुनकर बड़ी खुशी हुई थी। तब मॉरीशस को निकट से देखा। अभिमन्यु अनत (अब स्वर्गीय) जैसे वहां के महान रचनाकार से मुलाकात हुई थी। रामदेव धुरंधर, राज हीरामन, सरिता बुधु और हेमराज सुंदर जैसे अनेक लेखक मिले थे। इस बार भी ये सब मिले। बहुत अच्छा लगा कि इन सबने भारतीय संस्कृति को संजो कर रखा हुआ है।
आज भी यह लोग भारतीयता से प्रेम करते हैं। अपने घर में भोजपुरी बोलते हैं और भारतीयों के साथ हिंदी में बात करते हैं। कामकाज के लिए फ्रेंच या अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं। इस बार के प्रवास के दौरान मैंने यह पाया कि मॉरीशस में अब हिंदी कमजोर हो रही है। जी हां, यह कटु सत्य है। हिंदी हाशिये पर जा रही है और भारतीय संस्कृति का धीरे-धीरे क्षय भी होता जा रहा है। मॉरीशस के एयरपोर्ट को देखकर तो यही लगा।
हालाँकि वहां एक दो जगह 'स्वागतम' भी लिखा देखा, लेकिन मुझे साड़ी पहनने वाली और मांग में सिंदूर भरी वे महिलाएं नजर नहीं आई, जो चौदह साल पहले नज़र आयी थीं। इक्का-दुक्का महिलाएं तो दिखीं, लेकिन उनका ड्रेस कोड 'तथाकथित आधुनिक' हो गया था। मांग का सिंदूर घट कर -बिंदी सा रह गया था। लगभग सभी की जुबान पर अंग्रेजी राज कर रही थी।
जब हिंदी में बात करने हमने आग्रह किया तो अनेक स्त्री-पुरुषों ने यही कहा कि हमें हिंदी बहुत कम आती है। हालांकि यह बात और है कि हिंदी के जितने भी वाक्य उनके मुंह से निकल रहे थे, लगभग शुद्ध ही थे। इसका मतलब था, उन्हें हिंदी आती थी, लेकिन वह यह जताना नहीं चाहते थे की हिंदी आती है। वे सब धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल कर पता नहीं क्या दिखाना चाह रहे थे। बिल्कुल वही मानसिकता, जो भारत में नजर आती है। यहां पर लोगों को हिंदी आती है लेकिन वे भी अंग्रेजी बोलना पसंद करते हैं। मॉरीशस में यही देखकर मुझे लगा कि क्या भारत की तरह मॉरीशस भी इंडिया बनता जा रहा है?
हिंदी सम्मेलन और अंग्रेजी में संचालन
इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन और समापन सत्रों में जो दो संचालिकाएं नियुक्त की गई थीं, उनमें से एक तो हिंदी बोल रही थी, वह भारत की थी, मगर दूसरी अंग्रेजी में उद्घोषणा कर रही थी, वह मॉरीशस की थी। मुझे यह बात समझ में नहीं आई कि विश्व हिंदी सम्मेलन में द्विभाषिक संचालन की व्यवस्था आखिर क्यों की गई? क्या इसके लिए यह तर्क दिया जाएगा कि अन्य देशों से जो लोग आए थे, उन्हें हिंदी नहीं आती इसलिए ऐसी व्यवस्था रखी गई?
लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, कोरिया फिजी, सूरीनाम आदि देशों से आए हुए वहां के मूल निवासी भी आराम से ठीकठाक हिंदी में ही बात कर रहे थे। तब आखिर अंग्रेजी में संचालन की क्या जरूरत पड़ गई? तब समझ में आया कि अंग्रेजी की गुलामी केवल भारतवर्ष में ही नहीं है, अब मॉरीशस भी धीरे-धीरे अंग्रेजी का गुलाम बनता जा रहा है।
वहाँ अंग्रेजी तेजी के साथ पैर पसार रही है। और खासकर जो आज की नई पीढ़ी है, वह हिंदी से विमुख होती जा रही है। उनके नाम भले ही हिंदी वाले हैं। जैसे रक्षा, आशा, सरिता, मंजू, राम, लखन आदि, लेकिन लगभग सभी अंग्रेजी बोल कर ही सुविधाजनक महसूस करते हैं, कर सकते हैं करते हैं।
मैं सोचने लगा जब बड़ा भाई दिशाहीन हो गया है तो छोटे भाई पर उसका असर पड़ेगा ही पड़ेगा। मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन में पूर्व सम्मेलनों की तरह बड़े ही मनभावन प्रस्ताव पारित किए गए हैं, लेकिन हमें पता है कि उसके पहले के भी अनेक प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं। इस बार भी शायद यही होने वाला है। इसीलिए ऐसे सम्मेलनों की आलोचना करने वालों की कमी नहीं है।
सरकारी अफसरों का बोलबाला
विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी के वरिष्ठ लेखकों को ले जाना चाहिए, लेकिन चले जाते हैं विभिन्न विभागों में काम करने वाले कुछ सरकारी अफसर या उनके रिश्तेदार। छत्तीसगढ़ की हालत और ज्यादा खराब थी कि सरकार ने एक ऐसे पूर्व सांसद को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा, जिसे रिश्वतखोरी के आरोप में बर्खास्त किया गया था।
तब मैंने व्यंग्य में कहा था कि हो सकता है सरकार ने उसे इसलिए भेजा है कि उसने रिश्वत की मांग हिंदी में की थी, इसलिए वह बहुत बड़ा हिंदी सेवी है। अन्य राज्यों से भी कुछ ऐसे ही हिंदीसेवी भेजे गए, जिन्होंने हिंदी की समृद्धि में अपना कोई विशेष योगदान नहीं किया, सिवाय इसके कि वे नियमित रूप से हिंदी बोलते रहे।
सरकार की ओर से जो प्रतिनिधि मॉरीशस पहुंचे, उनके गले में परिचयपत्र लटक रहा था, उसका फीता भगवा रंग का था। सामान्य प्रतिनिधियों का नीले कलर का और मीडिया से जुड़े लोगों का फीता गुलाबी रंग का था। सत्ता के तलवे चाटने में माहिर कुछ चेहरे पूरे सम्मेलन को नियंत्रित कर रहे थे।
ऐसे भी कुछ चेहरे दिखाई दिए जो कांग्रेस के समय भी प्रमुख थे और भाजपा शासन के समय भी अपना जलवा जमाए हुए थे। उनकी इस प्रतिभा का सब लोग लोहा मान रहे थे। कवि सम्मेलन के लिए पहुँचे अनेक कवि चुटकुलेबाज थे यानी मंचीय। यह और बात है कि अटलजी के निधन के कारण कवि सम्मेलन को अटल जी को समर्पित करते हुए काव्यांजलि में बदल दिया गया।
भगवा फ़ीताधारी सरकारी प्रतिनिधियों के लिए भोजन की व्यवस्था अलग से की गयी थी, नीले और गुलाबी फीते वालों के लिए अलग इंतजाम था। यह भेदभाव बताता है कि सरकार की मानसिकता क्या है। हालांकि यह इतनी बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि हिंदी सम्मेलन में आए अनेक लोग बीच-बीच में अंग्रेजी बोल कर हिंदी सम्मेलन का मखौल उड़ा रहे थे।
अंग्रेजी में बात करने की मानसिकता
विदेश से जो प्रतिनिधि मॉरीशस पहुंचे थे, वह हैरत में थे कि ये कैसे लोग हैं जो हिंदी सम्मेलन में अंग्रेजी बोल कर हिंदी का अपमान कर रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब मैं 2007 में न्यूयॉर्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने गया था, तब भी वहां मैंने यही प्रवृत्ति देखी थी। मुझे लगता है कि गुलामी के सत्तर साल बाद भी हमारा हिंदी जगत अंग्रेजी के आतंक से मुक्त नहीं हो सका है। वह आज भी अंग्रेजी बोल कर अपने को गौरवान्वित महसूस करता है।
मारीशस में मुझे वही रोग फिर फिर दिखाई दिया, लेकिन सबसे ज्यादा पीड़ा इस बात को लेकर हुई कि मॉरीशस में हिंदी लगभग खत्म हो रही है। यह और बात है कि वहां विश्व हिंदी सचिवालय खुल गया है। वो सिर्फ इसलिए खुला कि मॉरीशस में एक दशक पहले तक हिंदी मजबूती के साथ खड़ी नजर आई थी, लेकिन अब परिदृश्य बदल गया है।
अब मॉरीशस में हिंदी को बचाने की जरूरत है। इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। यह सोचना बहुत जरूरी है कि आखिर वहां हिंदी क्यों किनारे होती जा रही है? अंग्रेजी का वर्चस्व क्यों बढ़ रहा है? इसका साफ-साफ कारण यही है कि हम सबने, भारत सरकार ने वहां हिंदी को बढ़ावा देने की कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई।
वहां के पूर्व प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ तो हिंदी बोलते थे, लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री को हिंदी बोलने में तकलीफ होती है। उनका भाषण अंग्रेजी में हुआ। बीच-बीच में हिंदी बोल रहे थे। लेकिन राष्ट्रपति का भाषण तो शुरू से लेकर अंत तक अंग्रेजी में ही था। यह और बात है शुरू के और आखिरी के एकाध वाक्य उन्होंने हिंदी में बोलकर हिंदी को धन्य किया।
भारत में भी तो यही हालत है। हमारे देश के कुछ राष्ट्रपति अंग्रेजी में ही अपनी बात करते रहे हैं। उस हिसाब से देखें तो मॉरीशस का राष्ट्रपति भी अगर अंग्रेजी में बोल रहा है तो क्या गलत कर रहा है? मॉरीशस के विश्व हिंदी सम्मेलन का विषय रखा गया था 'भारतीय संस्कृति' लेकिन वह संस्कृति ठीक ढंग से मॉरीशस में नजर नहीं आ रही थी। मॉरीशस की कुछ महिलाएं जरूर भारतीय वेशभूषा में दिखीं, भोजपुरी गीत भी वे बड़े चाव से सुना रही थी, लेकिन नई पीढ़ी में अपनी संस्कृति को लेकर वलगाव लगभग नदारद था। जो डेढ़ दशक पहले भी नजर आता था।
गंगातलाव को देखने का सुख
मारीशस के गंगा तलाव जाने के बाद सर्वाधिक संतोष होता है। वहां के मंदिरों को देखकर सर श्रद्धा से झुक जाता है। कितनी सुंदर सुंदर देव प्रतिमाएँ स्थापित हैं वहां। अभी कुछ वर्ष पहले ही उस परिसर में मां दुर्गा और भगवान शंकर की लगभग पचास-पचास फीट ऊंची भव्य प्रतिमाएँ देखने को मिली। उसे देखकर अच्छा लगा। वहाँ समय-समय पर गंगा आरती भी होने लगी हैं अब।
कुछ लोग हैं जो चाहते हैं कि मॉरीशस में भारत बचा रहे तो यह जरूरी है कि मॉरीशस के साथ भारत सरकार निरंतर संवाद कायम रखें। नई पीढ़ी हिंदी से विमुख हो रही है और जो अंग्रेजी के निकट जा रही है, उसे समझाएं कि तुम्हारे पूर्वज, जिन्हें गिरमिटिया मजदूर कहा जाता है, भारत से ही आकर बसे हैं। तुम्हारी संस्कृति भारत की संस्कृति है। भाषा और संस्कार एक दूसरे से गहरे जुड़े होते हैं। जैसी भाषा होगी वैसी संस्कृति बनेगी। अगर वहां हिंदी का प्रचलन अधिक रहेगा, तो हिंदी के संस्कार नज़र आएंगे, अगर वहां अंग्रेजी का प्रचलन रहा तो अंग्रेजी के संस्कार दिखाई देंगे।
इसलिए मॉरीशस में कमजोर पड़ती हिंदी को लेकर गंभीर चिंता और चिंतन की जरूरत है, वरना दस साल बाद मारीशस में भी वही होगा जो अभी भारत में हो रहा है। हिंदी हाशिए पर जा रही है और अंग्रेजी सत्तर साल बाद भी हमारे जीवन के केंद्र में मजबूती के साथ जमी हुई है। यहाँ भारतीय संस्कृति और उसकी परंपराओं का मजाक उड़ाया जाता है। तीज त्योहारों की उपेक्षा की जाती है।
सम्मेलन की उपलब्धि?
विश्व हिंदी सम्मेलन उपलब्धि यही रही कि महज खानापूर्ति बनकर रह गया। सम्मेलन के लिए अनेक पंजीकृत प्रतिभागियों लोगों आलेख मँगवाए गए थे। अनेक ने भेजे। उनको ईमेल के द्वारा स्वीकृत किया गया। लेकिन वहां पहुँचने के बाद उन आलेखों के लेखकों को महत्व नहीं मिला। अनेक नाम वही थे जो कहीं-न-कहीं सत्ता के निकट माने जाते रहे हैं।
सम्मेलन में अनेक समानांतर सत्र चले, लेकिन वहां भी बोलने वाले अधिकतर वही लोग थे, जिनकी तथाकथित पहुंच दिल्ली में मजबूत रही। बाकी लोगों के लिए एक छोटा सा कक्ष बनाया गया था, जहां सबके लिए सख्त निर्देश थे कि वे तीन मिनट के अंदर अपनी बात रखें, फोटो खिंचवाए और चले जाएं। इस व्यवस्था के कारण बहुत से लोग नाराज दिखे।
कुछ ऐसे खुद्दार लोग भी थे जिन्होंने अपना नाम जुड़वाने के लिए किसी की चिरौरी नहीं की और पूरे सम्मेलन के मूक दर्शक ही बने रहे। वैसे सम्मेलन का उजला पक्ष यह रहा कि सम्मेलन अटल बिहारी वाजपेई जी को समर्पित हो गया। पूरे प्रेक्षागृह में उनकी अनेक बड़ी-बड़ी तस्वीरें नजर आई।
मॉरीशस सरकार ने यह घोषणा भी की कि मॉरीशस का जो साइबर टॉवर बना है, उसका नाम अब 'अटल बिहारी बाजपेई टॉवर' रखा जाएगा। इसका सभी ने करतल ध्वनि से स्वागत किया। सचमुच यह हिंदी के एक बड़े और सच्चे सेवक को ईमानदार श्रद्धांजलि थी। अटल जी ने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देकर पूरी दुनिया में हिंदी का डंका बजाया था।
मॉरीशस का ग्यारहवां विश्व हिंदी सम्मेलन बहुत अधिक सफल तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह बात माननी पड़ेगी इसी बहाने दुनियाभर के अनेक हिंदी प्रेमी वहाँ पहुंचे और आपस में एक दूसरे के साथ हिंदी को लेकर विमर्श भी करते रहे। अगला सम्मेलन तीन साल बाद फिजी में होगा। फिजी में हिंदी का बड़ा जलवा है। वहाँ हिंदी राजभाषा भी हो गई है।
देखना यह है कि फिजी के हिंदी सम्मेलन में क्या होगा। क्या हमेशा की तरह वहाँ जोड़तोड़ में माहिर सरकारी अधिकारी, उनके परिजन, चुटकुलेबाज कवि लेखक ही बाजी मार ले जाएंगे या हिंदी के मान्य सक्रिय साहित्यकार भी आमंत्रित किए जाएंगे?
(सभी फोटो गिरीश पंकज)