महत्वपूर्ण लेख : कोरोना ने व्यक्तिवादियों को सिखाया सामूहिक निर्णय और अनुशासन का कड़ा पाठ
अगर अभी भी हम नहीं चेते तो COVID-19 महामारी व्यक्तिवाद के ताबूत में गाड़ी गयी आखिरी कील साबित होगी...
वरिष्ठ लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता रोहिणी नीलेकणी का विश्लेषण
जनज्वार। सदियों से यही समझदारी थी कि व्यक्तिवाद या कह लें कि यह विचार कि प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक आंतरिक मोल होता है तय करता है कि सामजिक संगठन, अर्थव्यवस्था और न्याय व्यवस्था कैसी होगी, लेकिन हाल के दिनों में व्यक्ति के मूलभूत अधिकारों और स्वतंत्रता को मिलने वाली प्राथमिकता पर काफी दबाव पड़ने लगा है।
पश्चिम में व्यक्तिवाद का उदय शिक्षा और ज्ञान हासिल कर हुआ था। यह व्यक्ति के नैतिक मूल्यों पर जोर देता है और मानता है कि व्यक्ति का हित राज्य और सामाजिक समूह के हित से ऊपर होता है। इसी से स्वछन्द पूंजीवाद का जन्म हुआ जिसमें हर एक व्यक्ति नियंत्रण-विहीन बाजार का एक एजेंट होता है।
पाश्चात्य तौर-तरीके का व्यक्तिवाद द्वितीय विश्व युद्ध के समय से ही अपने चरम पर रहा है। यूरोप का बहुत बड़ा हिस्सा सोवियत यूनियन के साथ होने और चीन का बाजार का हिस्सा नहीं बनने के बावजूद अमेरिकी वर्चस्व मात्र ने यह सुनिश्चित कर लिया था कि व्यक्तिवाद का बोलबाला बढ़-चढ़ कर रहेगा। एक ऐसा व्यक्तिवाद जिसके केंद्र में ऐसा कठोर और कर्मठ व्यक्ति है जिसने अपना विकास अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति के बूते किया है।
उसी काल-खंड में व्यक्तिवाद का एक अन्य रूप भी सक्रिय दिखाई देता है। व्यक्तिवाद का यह रूप आस्था पर टिकी व्यवस्था पर आधारित था, जिसके हिमायती महात्मा गांधी और उनके परामर्शदाता थे। इन लोगों के व्यक्तिवाद की जड़ें आध्यात्म से जुड़ती थीं। गांधी का मानना था कि पश्चिम की दुनिया का व्यक्तिवाद केवल और केवल भौतिकवाद की ओर ही ले जा सकता है।
गाँधी जी व्यक्ति को एक स्वायत्त नैतिक कार्यवाहक मानते थे, ना कि कोई ऐसा व्यक्ति जिसके पास अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के समुचित साधन हों। इस विचारधारा के तहत व्यक्ति के अक्षुण मानव अधिकारों को किसी भी समाज के विकास के केंद्र में रखा जाता है। ज़ोर हमेशा पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के कल्याण पर ही होता है जिसे सरकारें और समाज अपना कर्तव्य मानती हैं।
व्यक्तिवाद का पहला विचार लगातार तीन सदियों तक नए-नए निर्माण करता रहा। उद्यमियों, रचनाकारों और सरकार द्वारा प्रश्रय प्राप्त बुद्धिजीवियों ने मिलकर नए-नए विचारों, उत्पादों और सेवाओं के लिए एक वैश्विक बाज़ार तैयार की। निःसंदेह इसने कहीं ज़्यादा लोगों को भौतिक सुख-साधन मुहैय्या कराये।
व्यक्तिवाद के दूसरे विचार ने समाज के विभिन्न कमज़ोर समूहों के कल्याण और सरंक्षण के लिए सरकार और समाज दोनों को पहल करने के लिए मजबूर किया है। प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा और जोखिम उठाने की क्षमता को बरक़रार रखते हुए साथ में उसे सामाजिक सुरक्षा का ताना-बाना भी मुहैया कराना - ये एक ऐसा प्रयोग था, जो भले ही अधूरा रह गया लेकिन अपने-आप में भव्य था।
लेकिन पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से व्यक्तिवाद और व्यक्ति की प्राथमिकता के विचार को गंभीर चुनौती दी जा रही है।
इसके मुख्य तीन कारण हैं। पहला मिलाजुला कारण आतंकवाद और आर्थिक बदहाली है। जब 9/11 की आतंकवादी घटना घटी तो इसने रातोंरात विश्व परिदृश्य को बदल डाला। इसका सबसे ज़्यादा असर लोगों के एक व्यक्ति बने रहने पर पड़ा। अचानक सुरक्षा की खातिर उसे अपनी स्वतंत्रता और अपने नागरिक अधिकारों को गिरवी रखना पड़ा।
व्यक्तिवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी के गढ़ माने जाने वाले अमेरिका में लोगों को नागरिक सुरक्षा के एवज में अपनी स्वतंत्रता और निजता का त्याग करना पड़ा। फिर 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट आया। इसके साथ ही हम भूमंडलीकरण से प्रभावित दुनिया में प्रवेश कर गए। भूमंडलीकरण के बाद के इस दौर में दबंग सरकारों का उदय होना शुरू हुआ जिन्होंने अपने हाथ में ज़्यादा से ज़्यादा शक्तियों को केंद्रित करना शुरू कर दिया।
बहुत से देशों में लोगों के दिल में बसने वाला देश-प्रेम, जिसके चलते ईमानदारी से सरकार की आलोचना करना भी देश-प्रेम के इज़हार में शामिल था, एक ऐसे धुर राष्ट्रवाद में तब्दील कर दिया गया जिसके तहत 'सही हो या ग़लत, देश ही सबसे ऊपर' का तर्क गले के नीचे उतारा जाने लगा। असहमति को हतोत्साहित किया जाने लगा, जिससे स्वतंत्र विचारधारा रखने वाला व्यक्ति राजनीतिक मंचों से दूरी बनाने लगा।
दूसरा कारण है इंटरनेट सेवा देने वाली दिग्गज कंपनियों का अपने शक्तिशाली सामाजिक प्लेटफॉर्म्स के साथ तेजी से उभरना। पहले-पहल तो यही लगा कि ये सोशल प्लेटफॉर्म्स एक आज़ाद व्यक्ति की सत्ता को स्थापित कर रहे हैं। कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करने वाला उपभोक्ता अपनी मर्ज़ी का मालिक बन चुका था, बिल्कुल एक सम्राट की ही तरह। नौकरी करने वाला मज़दूर अब खुद को स्थापित कर एक उद्यमी बन चुका था और देश का नागरिक यानी सिटिज़न एक नेटिजन यानी इंटरनेट पर ज्ञान बघारने वाला बन चुका था।
दुर्भाग्य से व्यक्तिगत पसंद एक कोरी कल्पना ही साबित हुयी। यह उस पूंजीवाद की शुरुवात थी, जो लोगों पर निगरानी बनाये रखता है, जिसमें कामगारों को कम पैसे दे कर ज़्यादा काम लिया जाता है; जहां उपभोक्ता डाटा के एक पैकेट से ज़्यादा कुछ नहीं होता है और जिसकी स्वतन्त्र इच्छा को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से बदला जा सकता है।
ख़ास बात तो ये है कि इन सूचना तकनीकों ने जहां नागरिकों की खुफ़ियागिरी करने वाले राज्य को अधिक शक्तिशाली ही बनाया है, वहीं व्यक्तियों के अधिकारों और उनकी निजता के दायरे को कम किया है। यहां तक कि चुनावी लोकतंत्र द्वारा व्यक्ति को प्रदान किया गया बहुमूल्य उपहार 'मत दान' भी जोड़-तोड़ का शिकार हो गया है।
और तीसरा कारण है दुनिया के देशों की परस्पर बढ़ती निर्भरता। जलवायु परिवर्तन और वायु प्रदूषण देश की सीमाओं को नहीं मानते। एंटीबायोटिक्स प्रतिरोध भी सीमाओं का सम्मान करना नहीं जानते। अफ्रीका का कोई बैक्टीरिया अमेरिका के लोगों को बीमार कर सकता है, इसी तरह इंडोनेशिया में लगी जंगल की आग एशिया के लोगों की सांसें छीन सकती है।
इसलिए अगर अभी भी हम नहीं चेते तो COVID-19 महामारी व्यक्तिवाद के ताबूत में गाड़ी गयी आखिरी कील साबित होगी। इसने बड़ी आसानी से हमें अपनी सुविधाओं को छोड़ने के लिए और खुद को सरकारी आदेश मानने या हाऊसिंग अपार्टमेंट, गांव और शहर सरीखे आसपास के समूहों के निर्णयों को स्वीकार करने पर राजी कर लिया है।
हम अपनी व्यक्तिगत आज़ादी का त्याग करने को तत्पर हैं क्योंकि मनमाने तरीके से इस आज़ादी का इस्तेमाल करने के खतरे हमें दिखाई दे रहे हैं। आज जब हम ये महसूस कर रहे हैं कि हमारी गतिविधियां दूसरों को कितना नुक्सान पहुंचा सकती हैं, तो हमें व्यक्तिवाद के प्रतिनिधि विचार खोखले नज़र आने लगे हैं।
फिर भी हमें जागरूक रहना होगा ताकि हम व्यक्तिवाद के सकारात्मक पहलुओं को खोने से बच जायें। हमें हर हाल में यह सुनिश्चित करना होगा कि व्यक्तिगत पहचान किसी ऐसे दमनकारी समूह की बंधक न बन जाये जो क़ानून और व्यवस्था के प्रति ग़ैर-ज़िम्मेदार हो। सरकारी आदेश का पालन करना एक बात है और पुनर्जीवित किये गए अतार्किक भय की बलि चढ़ जाना दूसरी बात है।
वैसे भी हम अत्यधिक निगरानी रखने और भीड द्वारा शासित किये जाने की परम्पराओं को उभरते हुए देख रहे हैं। डरे हुए गाँव वाले बाहर वालों को गाँव में आने से रोक रहे हैं; डॉक्टरों को अपने घरों में लौटने से रोका जा रहा है और काम से बाहर निकल रहे लोगों पर पुलिस डंडे बरसा रही है।
महामारी को लेकर इस तरह की प्रतिक्रियाएं निकट भविष्य में सकारात्मक व्यक्तिवाद का खात्मा कर सकती हैं। व्यक्तिगत कर्ता और सामूहिक हित के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए भारतीय समाज को तुरंत रचनात्मक हस्तक्षेप करना होगा। निःसंदेह व्यक्ति कोई टापू नहीं है। लेकिन साथ ही प्रत्येक मानव के आंतरिक मूल्यों की भी हमें ह्त्या नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यही मूल्य एक अच्छे समाज के निर्माण का आधार बनते हैं।
(टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित रोहिणी नीलेकणी के इस लेख का अंग्रेज़ी से अनुवाद पीयूष पंत ने किया है।)