मजदूर दिवस पर खूब रहा उत्साह, लेकिन भागीदारी रही कम

Update: 2018-05-03 11:01 GMT

ओखला से लेकर बवाना तक 6 हजार से लेकर 11 हजार रुपये महीने के वेतन पर 12 घंटे काम कराने वाली फैक्ट्रियों के मालिक क्या सचमुच इतने दिलदार हो गये हैं कि मुख्यमंत्री केजरीवाल की घोषणा का स्वतः पालन करने लगे? यह वोट की अपील नहीं है, बल्कि पैसे की देनदारी है। पूंजीपति की इच्छा मजदूर के सारे खून को निचोड़कर पैसे में बदल देने की होती है, क्योंकि यह निचोड़ना ही उसका मुनाफा है...

जनज्वार, दिल्ली। मई दिवस मजदूरों की जीत का उत्सव है। यही एकमात्र दिन है जिसे धर्म, देश, क्षेत्र आदि से अलग श्रम/मेहनत पर आधारित मनुष्य की पहचान पर बनी एकजुट सामाजिकता का अंतरराष्ट्रीय समारोह के रूप में याद किया जाता है। श्रम और मेहनत पर यह एकजुटता जितनी कमजोर होती है यह जुटान और समारोह भी उतना ही कमजोर होता जाता है।

आधुनिक दौर लाने और राष्ट्रवाद की जमीन पर आधुनिक समाज लाने वाला पूंजीवाद आज उत्तर-आधुनिकता और राष्ट्रवादी-उन्माद यानी फासीवाद के भरोसे चल रहा है और लगातार चलते रहने के लिए युद्ध और युद्ध के उन्माद को लगातार बढ़ाने में लगा हुआ है। इस आधुनिक समाज को लाने में मजदूर वर्ग की अहम भूमिका थी।

लेकिन यह मजदूर वर्ग पूंजीपतियों की राज-सत्ता तक सीमित नहीं रहना चाहता था। वह पूंजीवादी राजसत्ता को उखाड़ फेंक मजदूर-वर्ग की राजसत्ता यानी समाजवाद के रास्ते पर चला। पूंजीवाद इसी को रोकने और तोड़ने के लिए युद्ध और फासीवाद का सहारा लिया और मजदूर वर्ग को कभी धीमे और कभी तेज गति से अपने गिरफ्त में लेकर अपनी पूंजी का गुलाम बना लिया। सोवियत रूस और चीन इसके बड़े उदाहरण हैं।

इस बार दिल्ली में मजदूर दिवस का उत्साह था, लेकिन मजदूरों की भागीदारी कम थी। ज्यादातर मजदूर दिल्ली सरकार द्वारा 13,500 रूपये के न्यूनतम मजदूरी के ग्रेड के लागू होने की तिथि के बारे में पूछ रहे थे। केजरीवाल सरकार ने तो इसे घोषित कर दिया, लेकिन लागू कराने के लिए जो अधिकार चाहिए, वह उनके अनुसार दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित है।

इसकी सारी जिम्मेदारी उन्होंने केंद्र सरकार और गवर्नर पर डाल दिया है। कांस्टीट्यूशन क्लब में दिये भाषण में उन्होंने दावा किया है कि उन्हें अधिकार मिले तो दस दिन में ठेकेदारी प्रथा खत्म कर दें। उन्होंने यह भी कहा कि बहुत सी फैक्ट्रियों ने उनके घोषित न्यूनतम वेतन को लागू कर दिया है।

ओखला से लेकर बवाना तक 6 हजार से लेकर 11 हजार रुपये महीने के वेतन पर 12 घंटे काम कराने वाली फैक्ट्रियों के मालिक क्या सचमुच इतने दिलदार हो गये कि उनके घोषणा का वे स्वतः पालन करने लगे? यह वोट की अपील नहीं है, बल्कि पैसे की देनदारी है। पूंजीपति की इच्छा मजदूर के सारे खून को निचोड़कर पैसे में बदल देने की होती है, क्योंकि यह निचोड़ना ही उसका मुनाफा है।

इस सिक्के की ठंडी बर्फीली खनक में मानवीय रिश्तों की सारी गर्माहट डूब जाती है। मुख्यमंत्री केजरीवाल यह भूल रहे हैं कि बवाना से लेकर गीता काॅलोनी में मजदूरों की हुई मजदूरों की मौतें इसी तरह की गुलामी-ठेकेदारी प्रथा के तहत ही हुई हैं, जहां उनके घोषित न्यूनतम मजदूरी के आधे से भी कम वेतन दिया जा रहा था और उसमें बच्चे तक काम कर रहे थे।

इस बार दिल्ली के विभिन्न टे्रड यूनियनों ने जिसमें एटक और इफ्टू मुख्य थे, रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक अलग अलग समय में जुलूस निकाला। इन प्रदर्शनों में अन्य टे्रड यूनियनों और मजदूर संगठनों और बुद्धिजीवी समर्थकों ने हिस्सेदारी किया। इस बाद 5 मई को मजदूरों के महान नेता और दार्शनिक कार्ल माक्र्स का 200वां जन्मदिन है।

इफ्टू की ओर से माक्र्सवाद का परचम बुलंद करो पर्चा वितरण किया गया। एटक, सीटू आदि संगठनों की ओर से मई दिवस का पर्चा वितरित किया गया। इंकलाबी मजदूर संगठन, दिल्ली लेदर कारीगर संगठन ने अपने कार्यालयों पर आम सभा का आयोजन किया। इंकलाबी मजदूर केंद्र, एटक ने अपने काम के इलाकों में कार्यक्रमों का आयोजन किया।

मजदूर एकता मंच की ओर से मजदूरों, ट्रेड यूनियनों, जन संगठनों से अपील का पर्चा वितरण किया गया। इस पर्चा में तीन मांग उठाने की अपील थी, मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध खत्म करो! मारुती सुजुकी मजदूरों के आजीवन कारावास को खत्म करो और उन्हें बाइज्जत बरी करो! फैक्ट्रियों की दुर्घटना में मजदूरों के जीवन पर हो रहे हमले का पुरजोर विरोध करो! 1मई की शाम को एक पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया गया।

पर्चा वितरण और पोस्टर प्रदर्शनी के दौरान ओखला औद्योगिक क्षेत्र और संजय काॅलोनी, इंद्रा कल्याण विहार में हम मजदूरों से संपर्क कर रहे थे। संजय काॅलोनी में अभी तक पानी टैंकर के माध्यम से ही पहुंचता है। अभी भी जल विभाग की सप्लाई लाईन नहीं है। इंद्रा कल्याण विहार में सप्लाई लाईन बिछाई गई है, लेकिन प्रत्येक एक दिन छोड़कर दूसरे दिन शाम 4 बजे एक घंटे पानी की सप्लाई दी जाती है।

लगभग एक लाख से अधिक आबादी वाली इन बस्तियों में एक भी अस्पताल नहीं है। दिल्ली निगम के एक एक स्कूल हैं। बस्तियों में सूदखोरों और भूमाफियाओं की दबंगई है। इस इलाके से भाजपा का सांसद है और विधायक आप पार्टी का है।

यहां के लोगों ने बताया कि सांसद के इशारे पर बस्ती में मछली और मुर्गा के बाजार को बंद करा दिया गया और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भड़काने वाली कार्यवाई भी की गई। इन सब हरकतों को लेकर आम मजदूरों में गुस्सा है, लेकिन यहां भी मजदूरों की एकजुटता की कमी है।

दरअसल, मजदूर 12 घंटे काम के बाद जब घर लौटता है तब नींद के बाद सिर्फ 4 घंटे बचता है। ऐसे में सामाजिक, राजनीतिक और यूनियन और यहां तक कि पारिवारिक जिंदगी में शिरकत करना एक मुश्किल काम हो गया है।

निश्चित ही मजदूरों को संगठित करने के लिए मध्यवर्ग की भूमिका जरूरी है, लेकिन आगे जाने के लिए मजदूर वर्ग ही निर्णायक होगा। न्यूनतम मजदूरी और काम के घंटे को एक बार फिर से पटरी पर लाना जरूरी है। फैक्ट्रियों में तालाबंदी कराकर गुलामी कराने के प्रचलन को तोड़ना और यूनियन बनाने के अधिकार को बहाल करना हमारे जरूरी लक्ष्य हैं।

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