झारखंड चुनाव 2019 : कितना असर डालेगा 70 आदिवासी गांवों में चला पत्थलगड़ी आंदोलन

Update: 2019-12-02 12:02 GMT

झारखंड के खूंटी विधानसभा में 6 दिसंबर को मतदान, साल 2018 में खूंटी में हुआ था पत्थलगड़ी आंदोलन, पत्थलगड़ी का नाम सामने आते ही शुरु हो जाता है विवाद..

जनज्वार। झारखंड में इन दिनों विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। पहले चरण के लिए मतदान हो चुका है। इस बार चुनाव पांच चरणों में हो रहा है। इस बीच जनज्वार टीम की चुनावी यात्रा भी जारी है। वाघमारा, टुंडी, लोहरदगा विधानसभा सीट पर चुनाव को लेकर लोगों का मिजाज जानने के बाद हम खूंटी विधानसभा के पत्थलगढ़ी पहुंचे। खूंटी सीट पर 6 दिसंबर को मतदान होगा।

बीते साल फरवरी में 2018 में खूंटी का पत्थलगड़ी आंदोलन काफी चर्चाओं में आया था। असल में पत्थलगड़ी आंदोलन क्या है और इसका विधानसभा चुनाव पर क्या असर है, यह जानने के लिए हमने खूंटी के पत्रकार चंदन से बातचीत की। चंदन ने पत्थलगड़ी आंदोलन को लगातार कवर किया है। वह बीते नौ साल से खूंटी में पत्रकारिता कर रहे हैं।

चंदन बताते हैं, 'पत्थलगड़ी आंदोलन की शुरूआत भंडरा से हुई थी। इसके बाद ये 70 से 72 गांवों में फैल गया जिसमें खूंटी के कुछ गांव शामिल हैं। इस आंदोलन के पीछे अहम भूमिका निभाने वालों में विजय कुशिर, बबीता कशक, युसूफ पूर्ति और भी कई नाम शामिल हैं। कई लोग तो जेल भी चले गये।'

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त्थलगड़ी आंदोलन की जमीनी हकीकत को लेकर चंदन कहते हैं, 'पत्थलगड़ी आदिवासियों की एक संस्कृति रही है। पत्थलगड़ी नाम सुनते ही विवाद पैदा हो जाता है। कई तरह के पत्थलगड़ी होते है लेकिन खूंटी का पत्थलगड़ी बहुत विवादित है। आदिवासियों ने संविधान में दिये हुये अपने हक को पत्थर पर अंकित किया हुआ है, लेकिन इसे संक्षेप में नहीं लिखा है। केवल अधिकारों को लिखा लेकिन कुछ इस तरह लिखा कि पत्थलगड़ी विवादों में आ गया। अपने अधिकारों में सरकार की योजना, कोई कानून को शामिल नहीं किया। मतलब सरकार को पूरी तरह से बहिष्कृत कर दिया।

Full View बताते हैं, 'गुजरात के कटासवान में कुंवर केसरी नाम के व्यक्ति खुद को ही सरकार कहते हैं। झारखंड़ के मुंडा समुदाय के आदिवासी उनको अपना आर्दश मानते हैं। आदिवसियों का मानना है कि उनकी जो जमीन है या देश के किसी भी कोने में जो भी आदिवासी रहता है वहां केवल उसी का हक है। वह किसी सरकार नेता को नहीं मानते हैं।'

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ह आगे बताते हैं, 'आदिवासी लोग जहां रहते हैं। वे खुद को वहां का मालिक मानते हैं और गैर आदिवासियों को नागरिक मानते हैं। आदिवासियों का मानना है कि वे जहां रहते हैं वहां के राजा हैं। राजाओं को किसी सरकार और उनकी योजनाओं की कोई आवश्यकता नहीं होती है। इसलिये इन लोगों ने सरकार, कागजात और योजनाओं का बहिष्कार किया।'

 

चंदन आगे बताते हैं, 'इन लोगों ने सरकार की उन सभी योजनाओं को बहिष्कार किया जिसके कारण राजनेताओं को अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिल जाता है। सरकार ने इनपर जमकर कहर ढाया। उस समय मोदी सरकार की शौचालय योजना बहुत ही चर्चाओं में थी। बहिष्कार के कारण इनका राजनीतिक लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था जिस कारण प्रशासन ने इन लोगों पर कहर ढाया।'

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चंदन आगे बताते हैं, 'पत्थलगड़ी आंदोलन तब चर्चाओं का विषय बन गया जब कांचि में पुलिस प्रशासन की मुठभेड़ आदिवासियों से हुई। इन लोगों ने पुलिस को बंधक बना लिया। फिर कुछ दिन के बाद अड़की, कुरूगां में भी पुलिस को बंधक बनाया गया। धीरे-धीरे ये मामला गर्माता ही गया। बंधक तो बनाया लेकिन आदिवासियों के द्वारा किसी तरह की हिंसा नहीं फैलायी गयी। सूत्र कहते हैं कि इस आंदोलन के पीछे नक्सलियों का बड़ा सहयोग था। कुछ लोग तो कहते पीएलएफ का भी सहयोग रहा। पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया ये एक नक्सली संगठन है जो झारखंड़ के पुलिस के लिए काम करता है।'

ह बताते हैं, 'खूंटी के तोरपा में गांव में प्रवेश करते वक्त पत्थर पर आदिवासियों का अधिकार गढ़ा हुआ है। ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद 244 के अंतर्गत आता है। इस पत्थर को लगवाने वाले बीडी शर्मा थे। जो कि झारखंड़ के पूर्व कमिश्र्नर थे। ताकि आदिवासियों का अधिकार सबके समक्ष रहे।'

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