असम में एनआरसी लागू होने के बाद अंतिम सूची में 19 लाख व्यक्तियों के नाम नहीं थे। इसमें नाम शामिल करने के लिए 3, 30, 27, 661 व्यक्तियों ने आवेदन किया था। इनमें से 3,11,21, 004 लोगों को ही इसमें शामिल किया गया है जबकि 19, 06, 657 को इससे बाहर रखा गया है....
पत्रकार और लेखक दीपक असीम ने असम का दौरा किया और वहां एनआरसी के पहलुओं को जाना-समझा, वहां से लौटकर उन्होंने केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को लिखा है खुला खत...
प्रिय अमित शाह जी,
सुना है आप पूरे देश में एनआरसी लागू करने वाले हैं। मैं चाहता हूं कि आप कहीं और करें ना करें, मध्य प्रदेश में जरूर कर दें। मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं खुद घुसपैठिया हूं। मैंने जालसाजी करके और लोगों को पैसा खिलाकर अपने पिता जी का नाम सन् 51 के जनसंख्या रजिस्टर में दर्ज कराया था। हर दस साल बाद होने वाली जनगणना के रजिस्टर में मैने दस-दस हजार रुपये के रेट से नाम दर्ज कराए। मैंने झूठा मतदाता परिचय पत्र बनवाया और झूठा ही आधार कार्ड भी।
असल में मैं फ्रांस का नागरिक हूं। मेरा असली नाम दीपक असीम नहीं 'दि पेक असीमियन है'। मैं पेरिस के पास एक शहर 'इन दो रेरू' में रहता था। आपको शायद नहीं मालूम होगा, एक बार फ्रांस में भी नोटबंदी हुई थी, जिसके बाद मैं तबाह हो गया। यह आज से बीस साल पहले की बात है, नोटबन्दी के बाद मुझ पर कर्जा चढ़ गया। वहां मेरी जो पान की दुकान थी, वो ठप हो गई। मैं अपने उधारी वालों के पीछे भागता और मुझे उधार देने वाले मेरे पीछे दौड़ लगाते। मैंने सुना था कि हिंदुस्तान सोने की चिड़िया है सो मैं यहां चला आया। यहां पर मैंने बचे हुए यूरो को नोटों में कन्वर्ट कराया तो मालूम पड़ा कि एक यूरो की कीमत लगभग अस्सी रुपये है। मुझे लगा कि भारत आते ही मैं अमीर हो गया, मगर जब खर्च किया तो फिर गरीब महसूस करने लगा। फिर मैंने हिंदी सीखी। इस चक्कर में मैं फ्रांसिसी भूल गया। जब आप मुझे पेरिस पहुंचाएंगे तो पाएंगे कि मुझे फ्रेंच बिल्कुल नहीं आती। इसी से साबित होता है कि मैं सच बोल रहा हूं।
सुना है आप एनआरसी कराने वाले हैं। जितने भी घुसपैठिये बाहर से आए हैं, सबको निकालेंगे, बशर्ते वो हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख नहीं हों। मैं भोलेनाथ की कसम खाकर कहता हूं कि मैं इसाई हूं। मेरा निवेदन है कि मुझे फ्रांस पहुंचा दीजिए। चूंकि मैं उन्हें छोड़कर भाग आया हूं सो वे मुझसे नाराज होंगे। इसलिए हो सकता है वे मुझे पहचानने से इंकार कर दें। वे कहेंगे कि इस आदमी का रंग-रूप, नैन-नक्श कुछ भी फ्रांसिसियों की तरह नहीं है, इसे फ्रांसिसी का एक शब्द भी नहीं आता, मगर आप उनकी नाराजगी पर ध्यान मत देना। मुझे फ्रांस का नागरिक बनवा कर ही मानना और पेरिस छोड़ कर ही आना। बाकी मैं संभाल लूंगा।
मुझे पता है कि आप मुझ जैसे घुसपैठियों को उनके देश ही डिपोर्ट करेंगे। क्योंकि आपकी जेलें हाउस फुल वैसे ही रहती हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में जेलें नई बनी ही नहीं। डिटेंशन सेंटर असम में ही अभी एक भी नहीं बना है, सो पूरे देश में पता नहीं कब बनेंगे। ऐसे में आपके पास एक ही विकल्प रहता है कि आप घुसपैठियों से पूछें कि वे कहां से आए हैं और उन्हें वहीं पहुंचाएं। मेरे कुछ दोस्त और हैं। वे भी घुसपैठिये हैं। उनमें से एक की इच्छा अमेरिका जाने की है। उसने अभी से अपना वोटर कार्ड और आधार कार्ड फाड़ कर फेंक दिया है। एक दोस्त खुद को न्यूज़ीलैंड का नागरिक बताता है। एक कहता है कि उसका जन्म स्विट्जरलैंड में हुआ और उसके मां-बाप स्विस थे। हालाँकि वो बिल्कुल काला कलूटा है, पर इससे क्या होता है। आशा है आप हम सबको अपने अपने देश पहुंचाएंगे।
- फ्रांस का घुसपैठिया (दि पेक असीमियन)