क्यों सांड सा भड़क जाता है शासन-प्रशासन मजदूरों के हाथों में लाल झंडे देख
मजदूरों ने कहा मोदी सरकार लगातार पब्लिक संसाधनों और पब्लिक ढाँचों को बर्बाद करके बेच रही हैं। इसने 600 रेलवे स्टेशनों को बेच दिया। ये सारे देश की बुनियादी व्यवस्था को खोखला करने पर लगे हुए हैं, अतः अब हमें देश बचाने के लिए मोदी को हटाना होगा।
सुशील मानव की रिपोर्ट
जैसे लाल कपड़े को देखकर सांड भड़कते हैं वैसे ही 8 जनवरी दैकिन (Daikin) कंपनी में मजदूरों द्वारा लाल झंडा लगाने पर प्रशासन भड़क गया। प्रशासन न सिर्फ भड़क गया, बल्कि उसने लाठी चार्ज करके तीन दर्जन से अधिक मजदूरों को फोड़कर लाल कर दिया।
गौरतलब है कि दस मजदूर संगठनों के दो दिवसीय हड़ताल के आह्वान पर राजस्थान अलवर के नीमराना औद्योगिक क्षेत्र में जिसे जापानी जोन भी बोला जाता है, में भी कई कंपनियों फैक्ट्रियों के मजदूरों ने भी हड़ताल की थी। इनमें एसी बनाने वाली कंपनी डाइकिन के मजदूर भी शामिल हुए। पिछले पांच सालों से यूनियन बनाने के लिए दैकिन के मजदूर अपनी यूनियन बनाने के लिए संघर्षरत हैं। 29 सितबंर को डाइकिन यूनियन को रजिस्ट्रेशन मिल गया था लेकिन कंपनी ने मान्यता नहीं दी।
डाइकिन एयर कंडीशनर मजदूर यूनियन के नेतृत्व में ही हड़ताल और मजदूर अधिकार रैली निकाली गयी था। सुबह 5 बजे जब कंपनी के मजदूर आसपास के इलाके में घूम घूमकर हड़ताल का प्रचार कर रहे थे, तब कंपनी की ओर से गुंडे भेजकर मजदूरों के साथ मार-पिटाई की गई जिसमें एक मजदूर बुरी तरह घायल होकर हॉस्पिटलाइज होना पड़ा था। फिर इसके बाद दिन में 11 बजे जब मजदूर अधिकार रैली शुरू हुई, जिसमें कई कंपनियों के करीब 2 हजार मजदूर हिस्सा ले रहे थे।
ये रैली जब डाइकिन के गेट पर पहुँची और कंपनी वर्कर्स कंपनी के गेट पर शांतिपूर्ण तरीके से झंडा लगाने गए तो उन्हें झंडा नहीं लगाने दिया गया और उन पर कंपनी के करीब 100 बाउंसरों और 150 पुलिसकर्मियों ने हमला बोल दिया। बिना किसी चेतावनी के सीधे ही पुलिस ने मजदूरों पर लाठीचार्ज कर दिया और उन पर वाटर कैनन, रबर बुलेट और टीयर्स गैस का इस्तेमाल किया गया। बाउंसरों ने मजदूरों पर पत्थर फेंके। करीब 50 मजदूर बुरी तरह घायल हो गए। किसा का सिर फूटा तो किसी के हाथ पांव की हड्डी टूटी। ये सब मजदूरों को तितर—बितर करने के लिए किये गया, जिसकी प्रतिक्रिया में मजदूरों ने भी तीन पुलिस वैन में तोड़-फोड़ की और बचाव में पत्थर फेंके।
रात में पुलिस ने मजदूरों के खिलाफ कई फर्जी केस दर्ज करके उनके घरों में छापेमारी करके 12 मजदूरों को हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया। पुलिस ने कुल 17 मजदूरों पर नामजद 600-700 अज्ञात मजदूरों के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज की गई है।
8 जनवरी की इस लड़ाई के विरोध में 9 जनवरी को दोपर 3 बजे कई मजदूर संगठनों ने दिल्ली स्थित बीकानेर हाउस के सामने धरना दिया। इन मजदूर संगठनों की मांग थी कि गिरफ्तार मजदूरों को तुरंत रिहा किया जाए और आरोपी पुलिसवालों को निलंबित किया जाये। मजदूर अपने साथ ज्ञापन भी लिखकर ले आये थे, पर सरकार की ओर से किसी प्रतिनिधि के बाहर न आने के चलते मजदूरों ने बीकानेर हाउस के गेट पर चस्पां कर दिया।
गौरतलब है कि दस मजदूर/कर्मचारी संगठनों INTUC, AITUC,CITU, AUTUC, AICCTU, UTUC, SEWA, LPF, MEC, AIBEA के साझा आह्वान पर बुलाई गई दो दिवसीय (8-9 जनवरी) देशव्यापी हड़ताल का देशभर में व्यापक असर हुआ। बैंकिंग रेल और सड़क यातायात सेवाएं प्रभावित हुईं। इसके अलावा बैंक, बाजार और यूनिवर्सिटी कॉलेज भी बंद रहे। ये अलग बात है कि इस देशव्यापी बंद को मीडिया में फुटेज नहीं मिली।
हड़ताल के दूसरे दिन 9 जनवरी को मंडी हाउस से संसद मार्ग तक शान्तिपूर्ण मार्च निकाला गया और सभा आयोजित की गई। इस विरोध मार्च में यूनिवर्सिटी कर्मचारी यूनियनें और ऑल इंडिया बैंक इंप्लायी एसोसिएशन और दिल्ली स्टेट बैंक इंपलॉयी एसोसिएशन जैसी बैंक कर्मचारी यूनियनें भी शामिल हुईं। इस हड़ताल और अधिकार रैली में देना बैंक और विजया बैंक के कर्मचारी भी शामिल हुए थे।
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने इन दोनों बैंकों का बैंक ऑफ बड़ौदा में विलय करने का फ़रमान जारी किया है। ऑल इंडिया बैंक इंप्लॉयी एसोसिएशन के अध्यक्ष जय प्रकाश शर्मा ने हमसे बात करते हुए अपनी माँगें दुहराई कीं- अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी किया जाए, न्यूनतम वेतनमान 18 हजार रुपए किया जाए और सरकारी बैंकों का विलय फौरन रोका जाये।
वहीं दिल्ली यूनिवर्सिटी एंड कॉलेज यूनियन के सचिव नरेंद्र गिरी ने मांग की कि यूनिवर्सिटी में वर्षों से काम कर रहे लोगों को स्थायी किया जाए और पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल की जाए।
अधिकार रैली संसद मार्ग में जहाँ समाप्त हुई, वहीं एक सभा का आयोजन किया गया जिसे तमाम संगठनों और यूनियनों के अगुवा नेताओं ने संबोधित किया। सभा को संबोधित करते हुए INTUC के अध्यक्ष अशोक सिंह ने कहा कि मजदूर आंदोलन जन आंदोलन में बदल रहा है। ये सरकार मजदूर विरोधी किसान विरोधी छात्र विरोधी है, अतः ये सरकार जनविरोधी और राष्ट्र विरोधी है। ये सरकार लगातार पब्लिक संसाधनों और पब्लिक ढाँचों को बर्बाद करके बेच दे रही हैं। इसने 600 रेलवे स्टेशनों को बेच दिया। ये सारे देश की बुनियादी व्यवस्था को खोखला करने पर लगे हुए हैं, अतः अब हमें देश बचाने के लिए मोदी को हटाना होगा।
ऐपवा की सचिव कविता कृष्णन यह पूछने पर कि क्यों मजदूरों किसानों के इन आंदोलनों को सत्ता लाल रंग से जोड़ देती है और कहती है कि वाम विचारधारा के लोग राजनीति कर रहे हैं? कहती हैं, तो क्या दिक्कत है सरकार जोड़ती है तो जोड़े। इसका मतलब तो यही है कि सिर्फ वाम दल ही मजदूरों—किसानों के साथ खड़ा है। हालांकि यहाँ आज के आंदोलन में लाल के अलावा भी कई रंग हैं, फिर भी लाल झंडा यहाँ काफी दिख रहा है तो इसलिए कि लाल झंडे वाले मजदूरों के बीच जाते हैं, रहते हैं उनका सुख-दुख साझा करते हैं। मजदूर भी लाल झंडे का अपना झंडा मानते हैं उनसे जुड़े हैं।
कविता कृष्णन आगे कहती हैं, ये सरकार की दिक्कत है कि इन लोगों की समस्याओं को झंडे के रंग से जोड़कर नहीं सुन रही है। वो लाल झंडे के चलते मजदूरों को नहीं देख रही, सुन रही या लाल व हरे झंडे के चलते किसानों को नहीं सुन रही, छात्रों व युवाओं को नहीं सुन रही। सरकार कह दे न कि वो मजदूरों को अपना नहीं मानती, क्योंकि वो लाल झंडे से जुड़े हैं, किसानों को अपना नहीं मानती क्योंकि वो लाल हरे झंडे से जुड़े हैं। छात्रों को अपना नहीं मानती, ये सब उनके लिए परायें हैं तो सरकार के अपने कौन हैं? सिर्फ अडानी और अंबानी?
पिछले दो सालों में मंदसौर, दिल्ली और महाराष्ट्र में थोड़े-थोड़े अंतरालों पर चार पाँच बैक टू बैक किसान आंदोलनों का व्यापक राजनीतिक असर हुआ और किसान पाँच विधानसभा चुनावों में बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन जाता है। आने वाले लोकसभा चुनाव में भी किसान राजनीति के केंद्र में होगा। फिर क्या वजह है कि तमाम आंदोलनों के बावजूद मजदूर राजनीति के केंद्र में नहीं आ पाता, न ही चुनाव का मुद्दा बन पाता है? के जवाब में कविता कृष्णन कहती हैं, दिल्ली के पिछले चुनाव में मजदूरों के सवाल चुनाव के केंद्र में रहे थे और उन्हीं को उठाकर आम आदमी पार्टी दिल्ली की सत्ता में आई। बाकी जिन जगहों पर अभी वाम पार्टी की सरकार है या रही है, वहाँ भी मजदूरों के सवाल राजनीति के केंद्र में रहे हैं। फिर भी आपकी चिंता वाजिब है कि इसे किस तरह मजदूरों के सवाल को राजनीति के केंद्र में लाया जाए। सचमुच में ये एक सवाल है, एक पहेली है जिसका हल मेरी उम्मीद है कि है हल। ये सवाल दुनिया में और भी कई जगह बन रहे हैं। अमेरिका में भी इस बार बाई-इलेक्शन में मजदूरों के सवाल उभरकर आयें।
पत्रकार नित्यानंद गायेन से बात करते हुए वृंदा करात कहती हैं, मोदी सरकार ने लेबर मशीनरी खत्म करके इम्पलायर्स को खुली छूट दे दी है कि वो मजदूरों के साथ जो मर्जी करे। ‘फिक्स टर्म कांट्रैक्ट’ कानून बहुत खतरनाक कानून है। इस नये कानून से पक्की नौकरी का प्रावधान ही खत्म हो जाएगा।